ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 66/ मन्त्र 28
ऋषिः - शतं वैखानसाः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
प्र सु॑वा॒न इन्दु॑रक्षाः प॒वित्र॒मत्य॒व्यय॑म् । पु॒ना॒न इन्दु॒रिन्द्र॒मा ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । सु॒वा॒नः । इन्दुः॑ । अ॒क्षा॒रिति॑ । प॒वित्र॑म् । अति॑ । अ॒व्यय॑म् । पु॒ना॒नः । इन्दुः॑ । इन्द्र॑म् । आ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र सुवान इन्दुरक्षाः पवित्रमत्यव्ययम् । पुनान इन्दुरिन्द्रमा ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । सुवानः । इन्दुः । अक्षारिति । पवित्रम् । अति । अव्ययम् । पुनानः । इन्दुः । इन्द्रम् । आ ॥ ९.६६.२८
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 66; मन्त्र » 28
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सुवानः) सर्वोत्पादकः (इन्दुः) सकलप्रकाशकः परमात्मा (प्राक्षाः) आनन्दस्य वृष्टिं करोति। तथा (पुनानः) पविता परमेश्वरः (इन्द्रम्) कर्मयोगिने (पवित्रमव्ययम्) पवित्रमव्ययं च भावं ददन् तथा तेषामन्तःकरणेषु (आ) आवसन् (अति) अत्येति अज्ञानं नाशयतीत्यर्थः “अति” इत्युपसर्गश्रुतेर्योग्यक्रियाया “एति” इत्यस्याध्याहारः ॥२८॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सुवानः) सबको उत्पन्न करनेवाले तथा (इन्दुः) सर्वप्रकाशक परमात्मा (प्राक्षाः) आनन्द की वृष्टि करता है। तथा (पुनानः) पवित्र करनेवाला जगदीश (इन्द्रम्) कर्मयोगी को (पवित्रमव्ययम्) पवित्र अव्ययभाव को देता हुआ तथा उनके अन्तःकरणों में (आ) निवास करता हुआ (अति) “अत्येति” अज्ञान का नाश करता है ॥२८॥
भावार्थ
यद्यपि मनुष्यमात्र के हृदय में परमात्मा विराजमान है। उससे एक अणुमात्र भी खाली नहीं है, तथापि कर्मयोगी और ज्ञानयोगियों के हृदय में योगज सामर्थ्य से अधिक अभिव्यक्ति समझी जाती है। इस अभिप्राय से परमात्मा का आवेश यहाँ योगीजनों के हृदय में कथन किया गया है ॥२८॥
विषय
पुनानः
पदार्थ
[१] (सुवानः) = शरीर में उत्पन्न किया जाता हुआ यह (इन्दुः) = हमें शक्तिशाली बनानेवाला सोम (पवित्रम्) = वासनाओं से शून्य (अव्ययम्) = [ अ वि अय] विविध विषय-वासनाओं की ओर न जानेवाले हृदय को (अति अक्षा:) = अतिशयेन प्राप्त होता है, पवित्र हृदयवाले पुरुष को लक्ष्य करके क्षरित होता है । [२] (पुनानः) = पवित्र करता हुआ (इन्दुः) = यह सोम (इन्द्रं आ) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु की ओर आनेवाला होता है। हमें प्रभु की ओर ले चलता है। इसी भाव को बाईसवें मन्त्र में 'अभ्यर्षति सुष्टुतिम्' शब्दों से कहा गया है।
भावार्थ
भावार्थ- हृदय के पवित्र होने पर सोम सुरक्षित होता है। यह हमें प्रभु की ओर ले चलता
विषय
देह के अधिष्ठाता जीव की जीवन-क्रीड़ा, और परमानन्द के लिये प्रभु की पुकार।
भावार्थ
(इन्दुः) ऐश्वर्यवान् वह (सुवानः) अभिषेक को प्राप्त होता हुआ (पवित्रम्) पवित्र (अव्ययम्) नाश को न प्राप्त होने वाले, सर्व-रक्षक पद को (अति अक्षाः) सर्वोपरि प्राप्त हो (पुनानः) अन्यों को भी पवित्र करता हुआ वह (इन्दुः) ऐश्वर्यवान्, दयालु होकर (इन्द्रम् आ अक्षाः) ऐश्वर्ययुक्त शत्रुहन्ता पद को प्राप्त हो। अध्यात्म में—‘इन्दु’ प्रभु ‘इन्द्र’ जीव को प्राप्त हो। अथवा ‘इन्दु’ शरणा गत जीव उस ‘इन्द्र’ प्रभु को पवित्र होकर प्राप्त हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शतं वैखानसा ऋषयः॥ १–१८, २२–३० पवमानः सोमः। १९—२१ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १ पादनिचृद् गायत्री। २, ३, ५—८, १०, ११, १३, १५—१७, १९, २०, २३, २४, २५, २६, ३० गायत्री। ४, १४, २२, २७ विराड् गायत्री। ९, १२,२१,२८, २९ निचृद् गायत्री। १८ पाद-निचृदनुष्टुप् ॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Creative, creator and energiser, peaceable inspirer and self-refulgent Soma absolutely pervades the holy imperishable world of existence and, purifying and sanctifying, all blissful, radiates to the heart and soul of the devotee.
मराठी (1)
भावार्थ
जरी प्रत्येक माणसाच्या हृदयात परमात्मा विराजमान आहे एक अणुही त्याच्याशिवाय नाही. अर्थात प्रत्येक अणुरेणुत तो भरलेला आहे. तरीही कर्मयोगी व ज्ञानयोगी यांच्या हृदयात योगज सामर्थ्याने अधिक अभिव्यक्ती समजली जाते. याच अभिप्रायाने परमात्म्याचा येथे योगिजनाच्या हृदयात प्रवेश होतो हे कथन केलेले आहे. ॥२८॥
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