ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 66/ मन्त्र 6
तवे॒मे स॒प्त सिन्ध॑वः प्र॒शिषं॑ सोम सिस्रते । तुभ्यं॑ धावन्ति धे॒नव॑: ॥
स्वर सहित पद पाठतव॑ । इ॒मे । स॒प्त । सिन्ध॑वः । प्र॒ऽशिष॑म् । सो॒म॒ । सि॒स्र॒ते॒ । तुभ्य॑म् । धा॒व॒न्ति॒ । धे॒नवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तवेमे सप्त सिन्धवः प्रशिषं सोम सिस्रते । तुभ्यं धावन्ति धेनव: ॥
स्वर रहित पद पाठतव । इमे । सप्त । सिन्धवः । प्रऽशिषम् । सोम । सिस्रते । तुभ्यम् । धावन्ति । धेनवः ॥ ९.६६.६
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 66; मन्त्र » 6
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सोम) चराचरोत्पादक परमात्मन् ! (तव) भवतः (इमे) इमे (सप्त सिन्धवः) सप्तविधाः (धेनवः) वाणीप्रवाहाः (प्रशिषम्) प्रशासनम् (सिस्रते) अनुसरन्ति। अथ च (तुभ्यम्) तुभ्यमेव (धावन्ति) प्रतिदिनं गच्छन्ति ॥६॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सोम) हे परमात्मन् ! (तव) तुम्हारे (इमे) ये (सप्त सिन्धवः) सात प्रकार के (धेनवः) वाणियों के प्रवाह (प्रशिषम्) प्रशासन को (सिस्रते) अनुसरण करते हैं और (तुभ्यम्) तुम्हारे लिए ही (धावन्ति) प्रतिदिन गमन करते हैं ॥६॥
भावार्थ
परमात्मा के शासन में वेदादि वाणियों के प्रवाह बहते हैं। अथवा यों कहो कि ज्ञानेन्द्रियों के सप्त छिद्रों के द्वारा प्राण सिन्धु के समान प्रतिक्षण क्रिया को प्राप्त हो रहे हैं। अथवा यों कहो कि सम्पूर्ण भूत, सिन्धु आदि नदियों के समान उसी से निकलकर उसी के स्वरूप में प्रतिदिन स्त्रवित होते हैं ॥६॥
विषय
सप्त सिन्धवः
पदार्थ
[१] हे (सोम) = वीर्यशक्ते ! (इमे) = ये (सप्त सिन्धवः) = सात ज्ञान के प्रवाह [ स्यन्द् प्रस्रवणे], 'कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्' इन सात ऋषियों से प्रवाहित होनेवाले ज्ञान प्रवाह, (तव प्रशिषम्) = तेरी आज्ञा के अनुसार ही सिस्रते-चलते हैं। सोम ही वस्तुतः इन ज्ञान प्रवाहों का साधन बनता है । सोम के अभाव में तो ये सब सूख जाते हैं । [२] (तुभ्यम्) = तेरे लिये ही (धेनवः) = ये ज्ञानदुग्ध से प्रीणित करनेवाली वेदवाणी रूप गौवें (धावन्ति) = गतिवाली होती हैं। सोम के शरीर में सुरक्षित होने पर ही मनुष्य की ज्ञान की रुचि होती है।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम ही सातों ज्ञान प्रवाहों के प्रसार का कारण बनता है। सोम के सुरक्षित होने पर ही वेदवाणी रूप धेनुएँ हमें प्राप्त होती हैं ।
विषय
सर्वशासक, वाणियों का परम लक्ष्य है।
भावार्थ
(इमे सप्त सिन्धवः) ये वेग से बहने वाले नद नदी, जल समुद्रादि वा देह में प्राण गण, हे (सोम) सर्वशासक ! (तव प्रशिषं) तेरे ही उत्कृष्ट शासन को पा कर (सिस्रते) गति करते हैं और (तुभ्यं धेनवः) तेरे ही लिये ये वाणियां (धावन्ति) वेग से निकलती हैं। अथवा (तुभ्यं धेनवः धावन्ति) तेरी ही वाणियां सब को पवित्र करती हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शतं वैखानसा ऋषयः॥ १–१८, २२–३० पवमानः सोमः। १९—२१ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १ पादनिचृद् गायत्री। २, ३, ५—८, १०, ११, १३, १५—१७, १९, २०, २३, २४, २५, २६, ३० गायत्री। ४, १४, २२, २७ विराड् गायत्री। ९, १२,२१,२८, २९ निचृद् गायत्री। १८ पाद-निचृदनुष्टुप् ॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
These seven seas, these seven modes of Prakrti, all flow in obedience to your order of law. All thoughts, all words, all stars and planets creative and moving in the flux of existence move in honour and homage to you.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्म्याच्या शासनानुसार वेदवाणीचे प्रवाह वाहतात किंवा ज्ञानेन्द्रियांच्या सप्तछिद्राद्वारे प्राण सिंधुप्रमाणे प्रतिक्षण क्रिया करतात किंवा संपूर्ण भूत सिंधु इत्यादी नद्यांप्रमाणे त्याच्यापासून उगम पावून त्याच्याच स्वरूपात प्रत्येक दिवशी स्रवित होतात. ॥६॥
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