ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 66/ मन्त्र 3
परि॒ धामा॑नि॒ यानि॑ ते॒ त्वं सो॑मासि वि॒श्वत॑: । पव॑मान ऋ॒तुभि॑: कवे ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । धामा॑नि । यानि॑ । ते॒ । त्वम् । सो॒म॒ । अ॒सि॒ । वि॒श्वतः॑ । पव॑मान । ऋ॒तुऽभिः॑ । क॒वे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
परि धामानि यानि ते त्वं सोमासि विश्वत: । पवमान ऋतुभि: कवे ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । धामानि । यानि । ते । त्वम् । सोम । असि । विश्वतः । पवमान । ऋतुऽभिः । कवे ॥ ९.६६.३
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 66; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(कवे) हे सर्वज्ञ जगदीश्वर ! (पवमान) सर्वपवित्रकर्तः ! भवान् (ऋतुभिः) वसन्ताद्यृतूनां परिवर्तनेन नव्यान् भावानुत्पादयति। अथ च (यानि ते) यानि तव (धामानि) लोकलोकान्तराणि (परि) परितस्सन्ति तानि (विश्वतः) सर्वथा (त्वं सोमासि) त्वमुत्पादकोऽसि ॥३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(कवे) हे सर्वज्ञ परमात्मन् ! (पवमान) हे सबको पवित्र करनेवाले ! आप (ऋतुभिः) वसन्त आदि ऋतुओं के परिवर्तन से संसार में नये-नये भाव उत्पन्न करते हैं और (यानि ते) जो तुम्हारे (धामानि) लोक-लोकान्तर (परि) सब ओर हैं, उनको (विश्वतः) सब प्रकार से (त्वं सोमासि) आप उत्पन्न करनेवाले हैं ॥३॥
भावार्थ
परमात्मा उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय तीनों प्रकार की क्रियाओं का हेतु है। अर्थात् उसी से संसार की उत्पत्ति और उसी में स्थिति और उसी से प्रलय होता है ॥३॥
विषय
पवमान कवि
पदार्थ
[१] (सोम) = हे सोम ! (यानि) = जो (ते) = तेरे (धामानि) = तेज (परि) = शरीर में चारों ओर हैं, उनके द्वारा हे सोम ! तू (विश्वतः असि) = चारों ओर फैला हुआ है । [२] हे (पवमान) = पवित्र करनेवाले, (कवे) = शान्तप्रज्ञ - बुद्धि को सूक्ष्म बनानेवाले सोम ! तू (ऋतुभिः) = [ऋ गतौ] नियमित गतियों के द्वारा शरीर में पवित्रता व बुद्धि दीप्ति को करनेवाला है। सोमरक्षक पुरुष जीवन की गतियों में बड़ा व्यवस्थित होता है । यह नियमितता उसे पवित्र व दीप्त बुद्धिवाला बनाती है ।
भावार्थ
भावार्थ- हम शरीर में व्याप्त सोम के तेजों से पवित्र व दीप्त बुद्धि बनें।
विषय
सूर्यवत् प्रभु।
भावार्थ
हे (सोम) तेजस्विन् ! प्रकाशक ! (यानि) जो (ते) तेरे (धामानि) तेज (परि) चारों ओर फैले हैं उन से हे (कवे) क्रान्तदर्शिन् ! अन्तर्यामिन् ! हे (पवमान) पवित्र ! व्यापक ! तू (ऋतुभिः) प्राणों, काल के अवयवों और सत्य सामर्थ्यों से सूर्यवत् (विश्वतः असि) सर्वत्र सामर्थ्यवान् है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शतं वैखानसा ऋषयः॥ १–१८, २२–३० पवमानः सोमः। १९—२१ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १ पादनिचृद् गायत्री। २, ३, ५—८, १०, ११, १३, १५—१७, १९, २०, २३, २४, २५, २६, ३० गायत्री। ४, १४, २२, २७ विराड् गायत्री। ९, १२,२१,२८, २९ निचृद् गायत्री। १८ पाद-निचृदनुष्टुप् ॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma, you are the light, power and peace of all regions of the world, your domain wherein and whereon you pervade, pure and purifying, and reflect and rule by the law and order of the time and seasons of nature.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा उत्पत्ती, स्थिती व प्रलय या तिन्ही प्रकारच्या क्रियांचा हेतू आहे. अर्थात त्यांच्यापासूनच जगाची उत्पत्ती व त्यांच्यातच स्थिती व त्याच्याकडूनच प्रलय होतो. ॥३॥
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