ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 96/ मन्त्र 11
ऋषिः - प्रतर्दनो दैवोदासिः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
त्वया॒ हि न॑: पि॒तर॑: सोम॒ पूर्वे॒ कर्मा॑णि च॒क्रुः प॑वमान॒ धीरा॑: । व॒न्वन्नवा॑तः परि॒धीँरपो॑र्णु वी॒रेभि॒रश्वै॑र्म॒घवा॑ भवा नः ॥
स्वर सहित पद पाठत्वया॑ । हि । नः॒ । पि॒तरः॑ । सो॒म॒ । पूर्वे॑ । कर्मा॑णि । च॒क्रुः । प॒व॒मा॒न॒ । धीराः॑ । व॒न्वन् । अवा॑तः । प॒रि॒ऽधीन् । अप॑ । ऊ॒र्णु॒ । वी॒रेऽभिः । अश्वैः॑ । म॒घऽवा॑ । भ॒व॒ । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वया हि न: पितर: सोम पूर्वे कर्माणि चक्रुः पवमान धीरा: । वन्वन्नवातः परिधीँरपोर्णु वीरेभिरश्वैर्मघवा भवा नः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वया । हि । नः । पितरः । सोम । पूर्वे । कर्माणि । चक्रुः । पवमान । धीराः । वन्वन् । अवातः । परिऽधीन् । अप । ऊर्णु । वीरेऽभिः । अश्वैः । मघऽवा । भव । नः ॥ ९.९६.११
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 96; मन्त्र » 11
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सोम) हे परमात्मन् ! (पूर्वे, पितरः) पूर्वकालिकाः पितृपितामहादयः (धीराः) ये धीरास्ते (त्वया) त्वत्प्रेरणयैव (कर्माणि, चक्रुः) कर्माणि अकार्षुः (पवमान) हे सर्वपावक ! (वन्वन्) भवन्तं सेवमानः (अवातः) निश्चलः सन् (परिधीन्) राक्षसान् (अप, ऊर्णु) अपसारयाणि (वीरेभिः) वीरपुरुषैः (अश्वैः) शक्तिसम्पन्नैश्च अस्मान् (मघवा, भव) ऐश्वर्यसम्पन्नं कुर्याः ॥११॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सोमः) हे परमात्मन् ! (पूर्वे, पितरः) पूर्वकाल के पिता-पितामह (धीराः) जो धीर हैं (त्वया) तुम्हारी प्रेरणा से (कर्माणि, चक्रुः) कर्म्मों को करते थे। (पवमान) हे सबको पवित्र करनेवाले परमात्मन् ! (वन्वन्) आपका भजन करते हुए (अवातः) निश्चल होकर (परिधीन्) राक्षसों को (अपोर्णु) दूर करें (वीरेभिः) वीरपुरुषों से (अश्वैः) और जो शक्तिसम्पन्न हैं, उनसे (नः) हमको (मघवा, भव) ऐश्वर्य्यसम्पन्न करें ॥११॥
भावार्थ
परमात्मा की आज्ञापालन करने से देश में ज्ञानी तथा विज्ञानी पुरुषों की उत्पत्ति होती है और देश ऐश्वर्य्यसम्पन्न होता है, इस प्रकार राक्षसभाव निवृत्त होकर सभ्यता के भाव का प्रचार होता है ॥११॥
विषय
जगत्-शासक प्रभु और राजा से प्रजाओं की प्रार्थना।
भावार्थ
हे (सोम) जगत् के शासक, परमेश्वर ! राजन् ! हे (पवमान) परम पावन ! (त्वया हि) तेरे ही सहाय से (नः पूर्वे पितरः) हमारे पहले के पालक, गुरु, माता-पिता एवं देश के पालक, राजा, अमात्य शासकादि जन (कर्माणि चक्रुः) समस्त अनेकानेक कर्म करते रहे। तू (अवातः) अपराजित कभी नाश न होने वाला, होकर (वन्वन्) शत्रुओं का नाश करता हुआ, (परिधीन् अप ऊर्णु) चारों ओर के बन्धनों या सीमाओं को खोल दे। और (वीरेभिः अश्वैः) वीर अश्वों, वा वेगवान् वीरों विद्वानों वा प्राणों द्वारा (नः मघवा भव) हमारे ऐश्वर्य का स्वामी, धनपति हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रतदनो दैवोदासिर्ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ३, ११,१२, १४, १९, २३ त्रिष्टुप्। २, १७ विराट् त्रिष्टुप्। ४—१०, १३, १५, १८, २१, २४ निचृत् त्रिष्टुप्। १६ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। २०, २२ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
परिधीन् अपेर्ण
पदार्थ
हे (पवमान) = पवित्रता को करनेवाले (सोम) = वीर्यशक्ते ! (नः) = हमारे में से (पूर्वे) = अपना पालन व पूरण करनेवाले (पितरः) = वासनाओं से अपना रक्षण करनेवाले (धीराः) = ज्ञानी लोग (त्वया हि) = तेरे द्वारा ही तेरी ही शक्ति से (कर्माणि चक्रुः) = लोक रक्षणात्मक कार्यों को कर पाते हैं। सोमरक्षण ही हमें उत्कृष्ट कार्यों को करने की क्षमता प्रदान करता है। (वन्वन्) = शत्रुओं को हिंसित करता हुआ, (अवातः) = शत्रुओं से अनाकान्त तू (परिधी:) = चारों ओर से घेर लेनेवाले इन राक्षसी भावों को (अपोर्णु) = आच्छादित कर, हमारे से दूर कर । (वीरेभिः अश्वैः) = वीरतापूर्ण इन इन्द्रियाश्वों से (नः) = हमारे लिये (मघवा भवः) = सब ऐश्वर्यों को प्राप्त करानेवाला हो। सोमरक्षण से ही सबल बनकर कर्मेन्द्रियाँ यज्ञादि उत्तम कर्म करती हैं, तो ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञानैश्वर्य को प्राप्त करनेवाली होती हैं।
भावार्थ
भावार्थ- सब उत्तम कर्म सोमरक्षण से ही सम्भव होते हैं । यह सोम राक्षसी भावों को दूर करके हमें वास्तविक ऐश्वर्य प्राप्त कराये ।
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma, pure and purifying spirit of the world, it is only by your grace that our forefathers of yore all time performed their acts of Dharma in life. Unhurt, unmoved and unchallenged, pray open up all inhibiting limitations and raise us to honour, excellence and glory with brave heroes and dynamic forces of progress and achievement.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराची आज्ञा पालन करण्याने देशात ज्ञानी व विज्ञानी पुरुषांची उत्पत्ती होते व देश ऐश्वर्यसंपन्न होतो. या प्रकारे राक्षस भाव नष्ट होऊन सभ्यतेचा भाव प्रचलित होतो. ॥११॥
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