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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 96 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 96/ मन्त्र 14
    ऋषिः - प्रतर्दनो दैवोदासिः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    वृ॒ष्टिं दि॒वः श॒तधा॑रः पवस्व सहस्र॒सा वा॑ज॒युर्दे॒ववी॑तौ । सं सिन्धु॑भिः क॒लशे॑ वावशा॒नः समु॒स्रिया॑भिः प्रति॒रन्न॒ आयु॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वृ॒ष्टिम् । दि॒वः । श॒तऽधा॑रः । प॒व॒स्व॒ । स॒ह॒स्र॒ऽसाः । वा॒ज॒ऽयुः । दे॒वऽवी॑तौ । सम् । सिन्धु॑ऽभिः । क॒लशे॑ । वा॒व॒शा॒नः । सम् । उ॒स्रिया॑भिः । प्र॒ऽति॒र॑न् । नः॒ । आयुः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वृष्टिं दिवः शतधारः पवस्व सहस्रसा वाजयुर्देववीतौ । सं सिन्धुभिः कलशे वावशानः समुस्रियाभिः प्रतिरन्न आयु: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वृष्टिम् । दिवः । शतऽधारः । पवस्व । सहस्रऽसाः । वाजऽयुः । देवऽवीतौ । सम् । सिन्धुऽभिः । कलशे । वावशानः । सम् । उस्रियाभिः । प्रऽतिरन् । नः । आयुः ॥ ९.९६.१४

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 96; मन्त्र » 14
    अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (शतधारः) भवाननन्तशक्तियुक्तः (दिवः, वृष्टिं) द्युलोकाद्वृष्ट्या (सं, पवस्व) सम्यक् तर्पयतु (देववीतौ) यज्ञेषु (वाजयुः) विविधबलानां धारकोऽस्ति (सिन्धुभिः) प्रेमभावैः (कलशे) ममान्तःकरणे (सं वावसानः) सम्यग् वासं कुर्वन् (उस्रियाभिः) ज्ञानरूपशक्तिभिः (नः) मम (आयुः) वयः (प्रतिरन्) द्राघयतु ॥१४॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (शतधारः) आप अनन्तशक्तियुक्त हैं और (दिवः) द्युलोक से (वृष्टिम्) वृष्टि (सं पवस्व) से पवित्र करें। (देववीतौ) यज्ञों में (वाजयुः) अनेक प्रकार के बलों को प्राप्त हैं और (सिन्धुभिः) प्रेम के भावों से (कलशे) हमारे अन्तःकरण में (सं वावसानः) अच्छी प्रकार वास करते हुए (उस्रियाभिः) ज्ञानरूप शक्तियों से (नः) हमारी (आयुः) उमर को (प्रतिरन्) बढ़ायें ॥१४॥

    भावार्थ

    जो पुरुष परमात्मा के ज्ञानविज्ञानादि भावों को धारण करके अपने को योग्य बनाते हैं, परमात्मा उनके ऐश्वर्य्य को अवश्यमेव बढ़ाता है ॥१४॥

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    विषय

    विद्वान् और वीर के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे सोम ! उत्तम शासक ! विद्वन् ! हे जिज्ञासो ! तू (शत-धारः) सैकड़ों जलधाराओं वाले मेघ के तुल्य (शत-धारः) सैकड़ों वाणियों का धारण करनेवाला हो और (दिवः वृष्टिं) आकाश से जल वृष्टिवत् (दिवः वृष्टिम्) ज्ञान प्रकाश की, अज्ञान-उच्छेदिनी शक्ति को (पवस्व) स्वयं प्राप्त कर और अन्यों को दे। तू (सहस्र-साः) सहस्रों, ऐश्वर्यों और ज्ञानों का अन्यों को देने में समर्थ एवं (वाज-युः) ज्ञानैश्वर्य, संग्राम, बल, वेगादि प्राप्त करने वाला (देववीतौ पवस्व) देव, प्रभु की प्राप्ति, विद्वानों की संगति, शुभगुणों के लाभ के लिये यत्न कर। (कलशे) अभिषेक घट के नीचे (सिन्धुभिः) बहती जलधाराओं से (सं वावशानः) सबको अच्छा लगता, हुआ वा (कलशे) राष्ट्र में (सिन्धुभिः) वेगवान् अश्वों से (वावशानः) सबको वश करता हुआ, चमकता हुआ, (उस्त्रियाभिः) उन्नति की ओर जानेवाली दुग्धधाराओं के तुल्य समृद्धियों से (नः आयुः सं प्रतिरन्) हमारे जीवनों और प्रजाजन की वृद्धि कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रतदनो दैवोदासिर्ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ३, ११,१२, १४, १९, २३ त्रिष्टुप्। २, १७ विराट् त्रिष्टुप्। ४—१०, १३, १५, १८, २१, २४ निचृत् त्रिष्टुप्। १६ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। २०, २२ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    शक्ति- दिव्यगुण- ज्ञान व दीर्घजीवन

    पदार्थ

    हे सोम! (शतधारः) = सैकड़ों प्रकार से धारण करनेवाला तू (दिवः वृष्टिम्) = द्युलोक से वर्षा को, मस्तिष्क रूप द्युलोक से होनेवाली आनन्द की वर्षा को (पवस्व) = प्राप्त कर । (सहस्रसा:) = हजारों शक्तियों को प्राप्त करानेवाला तू (देववीतौ) = दिव्यगुणों की प्राप्ति के निमित्त (वाजयुः) = शक्ति को हमारे साथ जोड़नेवाला है। (सिन्धुभिः) = ज्ञान प्रवाहों के द्वारा कलशे इस शरीर कलश में (वावशानः) = हमारे हित की कामना करता हुआ (सम्) [गच्छस्व] = संगत हो । (उस्त्रियाभिः) = ज्ञान किरणों के साथ (नः आयु:) = हमारे आयुष्य को (प्रतिरन्) = दीर्घ करता हुआ (सम्) = संगत हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण के द्वारा हमें 'शक्ति, दिव्यगुणों, ज्ञान व दीर्घजीवन' की प्राप्ति होती है ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O lord of thousandfold speed, power and victory, harbinger of a hundred showers of bliss, bring us showers of heavenly light for our yajnic worship of divinity. Loving and abiding in the holy hearts of celebrants, let streams of good health and joyous age flow to us with infinite oceans of love and bliss and showers of the light of knowledge.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे पुरुष परमेश्वराचे ज्ञान-विज्ञान इत्यादी भाव धारण करून स्वत:ला योग्य बनवितात. परमेश्वर त्यांचे ऐश्वर्य अवश्य वाढवितो. ॥१४॥

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