ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 96/ मन्त्र 13
ऋषिः - प्रतर्दनो दैवोदासिः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
पव॑स्व सोम॒ मधु॑माँ ऋ॒तावा॒पो वसा॑नो॒ अधि॒ सानो॒ अव्ये॑ । अव॒ द्रोणा॑नि घृ॒तवा॑न्ति सीद म॒दिन्त॑मो मत्स॒र इ॑न्द्र॒पान॑: ॥
स्वर सहित पद पाठपव॑स्व । सो॒म॒ । मधु॑ऽमान् । ऋ॒तऽवा॑ । अ॒पः । वसा॑नः । अधि॑ । सानौ॑ । अव्ये॑ । अव॑ । द्रोणा॑नि । घृ॒तऽव॑न्ति । सी॒द॒ । म॒दिन्ऽत॑मः । म॒त्स॒रः । इ॒न्द्र॒ऽपानः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पवस्व सोम मधुमाँ ऋतावापो वसानो अधि सानो अव्ये । अव द्रोणानि घृतवान्ति सीद मदिन्तमो मत्सर इन्द्रपान: ॥
स्वर रहित पद पाठपवस्व । सोम । मधुऽमान् । ऋतऽवा । अपः । वसानः । अधि । सानौ । अव्ये । अव । द्रोणानि । घृतऽवन्ति । सीद । मदिन्ऽतमः । मत्सरः । इन्द्रऽपानः ॥ ९.९६.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 96; मन्त्र » 13
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सोम) हे परमात्मन् ! भवान् (मधुमान्) आनन्दमयोऽस्ति (ऋतवा, अपः) कर्मरूपयज्ञानामधिष्ठाता च (अव्ये) रक्षणीये (अधि, सानौ) सर्वोपर्युच्चपदे (वसानः) विराजते च (पवस्व) मामपि रक्षतु (द्रोणानि) अन्तःकरणरूपकलशाः (घृतवन्ति) ये हि सस्नेहास्तेषु (अव, सीद) विराजतां (मत्सरः) भवान् सकलजनतृप्तिकारकः (मदिन्तमः) आह्लादकतमश्च (इन्द्रपानः) कर्मयोगितृप्तिकारणं च ॥१३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सोम) हे परमात्मन् ! आप (मधुमान्) आनन्दमय हैं, (ऋतावापः) कर्मरूपी यज्ञ के अधिष्ठाता हैं, (अव्ये) रक्षायुक्त (अधिसानौ) सर्वोपरि उच्चपद में (वसानः) विराजमान हैं। (पवस्व) आप हमारी रक्षा करें और (द्रोणानि) अन्तःकरणरूपी कलश (घृतवन्ति) जो स्नेहवाले हैं, (अवसीद) उनमें आकर स्थिर हों। आप (मत्सरः) सबके तृप्तिकारक हैं और (मदिन्तमः) अत्यन्त आह्लादक हैं और आप (इन्द्रपानः) कर्म्मयोगी की तृप्ति के कारण हैं ॥१३॥
भावार्थ
जिन पुरुषों के अन्तःकरण प्रेमरूप वारि से नम्रभाव को ग्रहण किये हुए हैं, उनमें परमात्मा के भाव आविर्भाव को प्राप्त होते हैं ॥१३॥
विषय
जगत्-शासक प्रभु और राजा से प्रजाओं की प्रार्थना।
भावार्थ
हे (सोम) ऐश्वर्यवन् ! हे आत्मन् ! तू (मधुमान्) अन्न जल, बल, ज्ञान आदि से सम्पन्न होकर एवं (ऋत-वा) सत्य ज्ञान और तेज से युक्त होकर (अपः वसानः) आप्त प्रजाजनों को प्राणों के तुल्य धारण करता हुआ (अव्ये सानौ अधि) प्रजारक्षक के उच्च पद पर विराज कर (घृतवन्ति द्रोणानि) जल से सम्पन्न नीचे के भूमि-भागों को भी (अव सीद) प्राप्त हो, उनपर भी शासन कर। वा (घृतवन्ति द्रोणानि अवसीद) जल-युक्त कलशों के नीचे बैठकर अभिषेक कर। तू (मदिन्तमः) सबको खूब प्रसन्न करने वाला (इन्द्र-पानः) ऐश्वर्य का वा राजपद का उत्तम रक्षक और (मत्सरः) सब को सुखी, तृप्त करने हारा सब का पालक हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रतदनो दैवोदासिर्ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ३, ११,१२, १४, १९, २३ त्रिष्टुप्। २, १७ विराट् त्रिष्टुप्। ४—१०, १३, १५, १८, २१, २४ निचृत् त्रिष्टुप्। १६ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। २०, २२ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
'माधुर्य- यज्ञभावना- क्रियाशीलता व आनन्द' की प्राप्ति
पदार्थ
हे सोम ! तू (पवस्व) = हमें प्राप्त हो । (मधुमान्) = तू माधुर्य वाला है, जीवन को मधुर बनाता है । (ऋतावा) = तू हमारे जीवन में ऋत का, यज्ञ का अवन [रक्षण] करता है। (अपः वसानः) = = कर्मों को धारण करता हुआ, सदा क्रियाशील होता हुआ अव्ये रक्षण करने वालों में उत्तम पुरुष में (अधि सानो) = तू ऊर्ध्वगतिवाला होता हुआ शिखर पर पहुँचता है । वहाँ मस्तिष्क रूप द्युलोक को तू ज्ञानसूर्य से दीप्त करता है । अब तू (घृतवान्ति) = दीप्ति व निर्मलता [मलों के क्षरण] वाले द्रोणानि इन शरीर पात्रों में तू (अव) = विषय वासनाओं के उबाल से दूर होता हुआ (सीद) = आसीन हो । (मदिन्तम्) = अत्यन्त आनन्दमय, (मत्सरः) = उल्लास का संचार करनेवाला तू (इन्द्रपानः) = जितेन्द्रिय पुरुष से पातव्य हो । जितेन्द्रिय पुरुष ही सोम का शरीर में व्यापन करता है ।
भावार्थ
भावार्थ - जितेन्द्रिय पुरुष से शरीर में व्याप्त किया हुआ सोम 'माधुर्य- यज्ञियभावना-क्रियाशीलता-आनन्द व उल्लास' को देता है।
इंग्लिश (1)
Meaning
Flow, purify and bless, O Soma, rich in the honey sweets of life, high priest of cosmic yajna, reflecting in the cosmic processes of evolution on top of protective nature. Flow and abide in the depth of holy hearts deep in love and faith divine, O spirit most exhilarating, ecstatic and infinite source of fulfilment for Indra, potent vibrant soul, lover of divine glory.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या पुरुषांची अंत:करणे प्रेमयुक्त नम्रभाव धारण करतात त्यांच्यामध्ये परमेश्वराचे भाव प्रकट होतात. ॥१३॥
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