ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 96/ मन्त्र 20
ऋषिः - प्रतर्दनो दैवोदासिः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
मर्यो॒ न शु॒भ्रस्त॒न्वं॑ मृजा॒नोऽत्यो॒ न सृत्वा॑ स॒नये॒ धना॑नाम् । वृषे॑व यू॒था परि॒ कोश॒मर्ष॒न्कनि॑क्रदच्च॒म्वो॒३॒॑रा वि॑वेश ॥
स्वर सहित पद पाठमर्यः॑ । न । शु॒भ्रः । त॒न्व॑म् । मृ॒जा॒नः । अत्यः॑ । न । सृत्वा॑ । स॒नये॑ । धना॑नाम् । वृषा॑ऽइव । यू॒था । परि॑ । कोश॑म् । अर्ष॑न् । कनि॑क्रदत् । च॒म्वोः॑ । आ । वि॒वे॒श॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मर्यो न शुभ्रस्तन्वं मृजानोऽत्यो न सृत्वा सनये धनानाम् । वृषेव यूथा परि कोशमर्षन्कनिक्रदच्चम्वो३रा विवेश ॥
स्वर रहित पद पाठमर्यः । न । शुभ्रः । तन्वम् । मृजानः । अत्यः । न । सृत्वा । सनये । धनानाम् । वृषाऽइव । यूथा । परि । कोशम् । अर्षन् । कनिक्रदत् । चम्वोः । आ । विवेश ॥ ९.९६.२०
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 96; मन्त्र » 20
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यूथा, वृषेव) स परमात्मा यथा सेनापतिः सङ्घं प्राप्नोति तथा (कोशं, अर्षन्) ब्रह्माण्डरूपकोशं प्राप्नुवन् (कनिक्रदत्) उच्चस्वरेण गर्जन् (चम्वोः, परि, आ, विवेश) अस्मिन् ब्रह्माण्डरूपिविस्तृतप्रकृतिखण्डे सम्यक् प्रविशति। (न) यथा च (मर्यः) मनुष्यः (शुभ्रः, तन्वं, मृजानः) शुभ्रशरीरं दधत् (अत्यः, न) अत्यन्तगतिशीलपदार्था इव (धनानां, सनये) धनप्राप्तये (सृत्वा) गमनशीलो भूत्वा कटिबद्धो भवति, तथैव प्रकृतिरूपैश्वर्यं धारयितुं परमात्मा सदैवोद्यतः ॥२०॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
वह परमात्मा (यूथा, वृषेव) जिस प्रकार एक सङ्घ को उसका सेनापति प्राप्त होता है, इसी प्रकार (कोशम्) इस ब्रह्माण्डरूपी कोश को (अर्षन्) प्राप्त होकर (कनिक्रदत्) उच्चस्वर से गर्जता हुआ (चम्वोः पर्य्याविवेश) इस ब्रह्माण्डरूपी विस्तृत प्रकृतिखण्ड में भली-भाँति प्रविष्ट होता है और (न) जैसे कि (मर्यः) मनुष्य (शुभ्रस्तन्वं मृजानः) शुभ्र शरीर को धारण करता हुआ (अत्यो न) अत्यन्त गतिशील पदार्थों के समान (सनये) प्राप्ति के लिये (सृत्वा) गतिशील होता हुआ (धनानाम्) धनों के लिये कटिबद्ध होता है, इसी प्रकार प्रकृतिरूपी ऐश्वर्य्य को धारण करने के लिये परमात्मा सदैव उद्यत है ॥२०॥
भावार्थ
जिस प्रकार मनुष्य इस स्थूल शरीर को चलाता है अर्थात् जीवरूप से इसका अधिष्ठाता है, एवं परमात्मा इस प्रकृतिरूप शरीर का अधिष्ठाता है ॥२०॥
विषय
वीर युवा अश्व के तुल्य आत्मा का देहों में संक्रमण।
भावार्थ
वह (शुभ्रः मर्यः न) सुशोभित युवा पुरुष के समान अपने (तन्वं मृजानः) देह रूप को अलंकृत करता हुआ, (धनानां सनये) धनों के देने वाले के लिये (अत्यः सृत्वा न) वेगवान् अश्व के समान सदा सरण या आक्रमण करने में तैयार, (यूथा वृषा इव) गोयूथ में वृषभ के समान हृष्ट पुष्ट, होकर (कोशम् परि अर्षन्) खड्ग वा धनकोश को प्राप्त करता हुआ, (कनिक्रदत्) शत्रुओं को ललकारता हुआ, वीरवत् (चम्वोः अविवेश) दोनों सेनाओं के बीच प्रवेश करे। इसी प्रकार विद्वान् उपदेष्टा होकर (चम्वोः) स्त्री पुरुषों के बीच प्रवेश करे। इस मन्त्र में जीव का गर्भाशय में प्रवेश भी कहा है। इति नवमो वर्गः॥
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रतदनो दैवोदासिर्ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ३, ११,१२, १४, १९, २३ त्रिष्टुप्। २, १७ विराट् त्रिष्टुप्। ४—१०, १३, १५, १८, २१, २४ निचृत् त्रिष्टुप्। १६ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। २०, २२ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
'शुद्धि-संपत्ति-शक्ति व ज्ञान' का साधन सोम
पदार्थ
(शुभ्रः मर्यः न) = एक स्वच्छ वृत्ति के मनुष्य की तरह (तन्वम्) = शरीर को यह सोम (मृजान:) = शुद्ध करता है सोमरक्षण से शरीर में रोग नहीं रहते, मन में वासना नहीं रहती । इस प्रकार शरीर शुद्ध हो जाता है। (सृत्वा) = संग्राम में गति करनेवाले (अत्यः न) = अश्व के समान यह सोम (धनानां सनये) = अन्नमय आदि कोशों के तेजस्विता आदि धनों की प्राप्ति के लिये होता है। घोड़ा भी संग्राम में विजय को प्राप्त करा के धन लाभ का कारण बनता है। (इव) = जैसे (वृषा) = एक शक्तिशाली वृषभ (यूथा) = गोवृन्द की ओर (परि अर्षन्) = जाता हुआ शब्द करता है, इसी प्रकार यह सोम (कोशम्) = अन्नमय आदि कोशों की ओर जाता हुआ (कनिक्रदत्) = प्रभु के नामों का उच्चारण करता हुआ (चम्वोः आविवेश) = द्यावापृथिवी में प्रविष्ट होता है। शरीर व मस्तिष्क ही पृथ्वी व द्युलोक हैं। इनमें प्रविष्ट हुआ हुआ सोम शरीर को शक्ति से तथा मस्तिष्क को ज्ञान से दीप्त बनाता है ।
भावार्थ
भावार्थ- सोम शरीर को शुद्ध बनाता है । सब अन्नमय आदि कोशों के धनों को प्राप्त कराता है। एक-एक कोश में प्रविष्ट होता हुआ, प्रभुस्मरण की ओर हमारा झुकाव करता हुआ यह सोम शरीर को सशक्त तथा मस्तिष्क को दीप्त करता है।
इंग्लिश (1)
Meaning
Radiant and adorable Soma wearing the manifestive cosmic form like the mortal human wearing the body form, moving fast like radiations of light for the realisation of world’s wealth by pervading, vibrating like a mighty power across the cosmic structure as a virile leader, fills the skies between earth and heaven and abides there proclaiming its presence loud and bold.
मराठी (1)
भावार्थ
मनुष्य या स्थूल शरीराला चालवितो अर्थात् जीवरूपाने याचा अधिष्ठाता आहे व परमात्मा या प्रकृतिरूपी शरीराचा अधिष्ठाता आहे. ॥२०॥
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