ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 96/ मन्त्र 24
ऋषिः - प्रतर्दनो दैवोदासिः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आ ते॒ रुच॒: पव॑मानस्य सोम॒ योषे॑व यन्ति सु॒दुघा॑: सुधा॒राः । हरि॒रानी॑तः पुरु॒वारो॑ अ॒प्स्वचि॑क्रदत्क॒लशे॑ देवयू॒नाम् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । ते॒ । रुचः॑ । पव॑मानस्य । सो॒म॒ । योषा॑ऽइव । य॒न्ति॒ । सु॒ऽदुघाः॑ । सु॒ऽधा॒राः । हरिः॑ । आनी॑तः । पु॒रु॒ऽवारः॑ । अ॒प्ऽसु । अचि॑क्रदत् । क॒लशे॑ । दे॒व॒ऽयू॒नाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ ते रुच: पवमानस्य सोम योषेव यन्ति सुदुघा: सुधाराः । हरिरानीतः पुरुवारो अप्स्वचिक्रदत्कलशे देवयूनाम् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । ते । रुचः । पवमानस्य । सोम । योषाऽइव । यन्ति । सुऽदुघाः । सुऽधाराः । हरिः । आनीतः । पुरुऽवारः । अप्ऽसु । अचिक्रदत् । कलशे । देवऽयूनाम् ॥ ९.९६.२४
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 96; मन्त्र » 24
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सोम) हे सर्वोत्पादक परमात्मन् ! (पवमानस्य, ते, रुचः) सर्वपावकस्य तव दीप्तयः (सुदुघाः) याः सम्यक् सर्वेषां परिपूरयित्र्यः (सुधाराः) शोभनधारायुक्ताश्च सन्ति ता भक्तजनानभि (योषेव, यन्ति) अति प्रेमकर्त्री मातेव प्राप्नुवन्ति (हरिः) दुःखनाशकः परमात्मा (आनीतः) उपासितः (अप्सु, पुरुवारः) प्रकृतिरूपब्रह्माण्डे अत्यन्तवरणीयः स च (देवयूनां) परमात्मदिव्यशक्तिम् इच्छूनामुपासकानां (कलशे) हृदये (अचिक्रदत्) सर्वदैव शब्दायते ॥२४॥ इति षण्णवतितमं सूक्तं दशमो वर्ग्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सोम) हे सर्वोत्पादक परमात्मन् ! (पवमानस्य, ते, रुचः) सबको पवित्र करनेवाले आपकी दीप्तियें (सुदुघाः) जो भली-भाँति सबको परिपूर्ण करनेवाली हैं (सुधाराः) और सुन्दर धाराओंवाली हैं, वे भक्त पुरुष के प्रति (योषेव, यन्ति) परम प्रेम करनेवाली माता के समान प्राप्त होती हैं। (हरिः) जो सब दुःखों को हरण करनेवाला परमात्मा है, वह (आनीतः) सब ओर से भली-भाँति उपासना किया हुआ (अप्सु, पुरुवारः) प्रकृतिरूपी ब्रह्माण्ड में अत्यन्त वरणीय है। वह (देवयूनाम्) परमात्मा की दिव्य शक्ति चाहनेवाले उपासकों के (कलशे) हृदय में (अचिक्रदत्) सर्वदैव शब्दायमान है ॥२४॥
भावार्थ
यों तो परमात्मा चराचर ब्रह्माण्ड में सर्वत्रैव देदीप्यमान है, पर भक्तपुरुषों के स्वच्छ अन्तःकरणों में परमात्मा की अभिव्यक्ति सबसे अधिक दीप्तिमती होती है ॥२४॥ यह ९६ वाँ सूक्त और दसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
उत्तम शासक, गृहपति और राजा के समान कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (सोम) उत्तम शासक ! उपदेष्टः ! (पवमानस्य ते रुचः) स्वयं अभिषिक्त, पवित्र एवं अन्यों को पवित्र करने हारे, तेरी कान्तियां और उत्तम २ अभिलाषाएं और (योषा इव) स्त्री के तुल्य ही (सु-दुघाः) उत्तम पुष्टियुक्त, रस प्रदान करने वाली (सु-धाराः) उत्तम वाणियां (आ-यन्ति) सब ओर प्रसार करें। (हरिः) सब के दुःखों को हरने वाला (पुरु-वारः) बहुतों से वरण करने योग्य होकर (अप्सु आनीतः) प्रजाओं के बीच लाया जावे, वे (देवयूनां कलशे) विद्वानों या राजा के चाहने वाले जनों के राष्ट्र में (अचिक्रदत्) शासन करे। इसी प्रकार विद्वान् पुरुष (देवयूनां कलशे) शुभ गुणों के आकांक्षी, जन मण्डल में उपदेश करे। इति दशमो वर्गः॥ इति पञ्चमोऽनुवाकः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रतदनो दैवोदासिर्ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ३, ११,१२, १४, १९, २३ त्रिष्टुप्। २, १७ विराट् त्रिष्टुप्। ४—१०, १३, १५, १८, २१, २४ निचृत् त्रिष्टुप्। १६ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। २०, २२ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
'सुदुघाः सुधारा: ' रुचः
पदार्थ
हे (सोम) = वीर्यशक्ते! (ते पवमानस्य) = पवित्र करनेवाले (ते) = तेरी (रुचः) = दीप्तियाँ (सुदुघाः) = हमारा उत्तम प्रपूरण करनेवाली हैं तथा (सुधारा:) = उत्तम धारण करनेवाली हैं। ये दीप्तियाँ (योषा इव) = सब बुराइयों को दूर करनेवाली व अच्छाइयों को मिलानेवाली होती हुई (आयन्ति) = हमें प्राप्त होती हैं। (हरिः) = यह सब रोगों व वासनाओं का हर्ता सोम (आनीतः) = शरीर में चारों ओर प्राप्त कराया हुआ (पुरुवार:) = बहुत वरणीय धनों वाला होता है। (देवयूनाम्) = दिव्यगुणों की कामना वाले पुरुषों के (कलशे) = इस शरीर कलश में यह (अप्सु) = कर्मों में (अचिक्रदत्) = उस प्रभु का आह्वान करता है । अर्थात् सोमरक्षक पुरुष प्रभु का स्मरण करता है और कार्यों में प्रवृत्त रहता है 'मामनुस्मर युध्य च' । यह प्रभुस्मरण पूर्वक कार्यों को करना ही उसे पवित्र जीवन वाला बनाता है ।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण से उत्पन्न दीप्तियाँ हमारे में उत्तमताओं को भरती हैं और हमारा धारण करती हैं। सोमरक्षक पुरुष प्रभुस्मरण पूर्वक कार्यों में प्रवृत्त रहता है। अगले सूक्त में भी वसिष्ठ आदि ऋषि 'पवमान सोम' का ही यशोगान करते हैं-
इंग्लिश (1)
Meaning
The rays of your light and glory, O Soma, spirit pure, purifying and radiating, replete with life energy streaming forth, rain in showers like the love of a youthful mother. The divine spirit, destroyer of want and suffering, love and choice of all humanity, manifests bright and beautiful in the dynamics of nature and in the heart and actions of the lovers of divinity.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा चराचर ब्रह्मांडात सर्वत्र देदीप्यमान आहे; परंतु भक्त पुरुषांच्या स्वच्छ अंत:करणात परमेश्वराची अभिव्यक्ती सर्वात अधिक दीप्तिमान असते.
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