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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 96 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 96/ मन्त्र 2
    ऋषिः - प्रतर्दनो दैवोदासिः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सम॑स्य॒ हरिं॒ हर॑यो मृजन्त्यश्वह॒यैरनि॑शितं॒ नमो॑भिः । आ ति॑ष्ठति॒ रथ॒मिन्द्र॑स्य॒ सखा॑ वि॒द्वाँ ए॑ना सुम॒तिं या॒त्यच्छ॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । अ॒स्य॒ । हरि॑म् । हर॑यः । मृ॒ज॒न्ति॒ । अ॒श्व॒ऽह॒यैः । अनि॑ऽशितम् । नमः॑ऽभिः । आ । ति॒ष्ठ॒ति॒ । रथ॑म् । इन्द्र॑स्य । सखा॑ । वि॒द्वान् । ए॒न॒ । सु॒ऽम॒तिम् । या॒ति॒ । अच्छ॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समस्य हरिं हरयो मृजन्त्यश्वहयैरनिशितं नमोभिः । आ तिष्ठति रथमिन्द्रस्य सखा विद्वाँ एना सुमतिं यात्यच्छ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । अस्य । हरिम् । हरयः । मृजन्ति । अश्वऽहयैः । अनिऽशितम् । नमःऽभिः । आ । तिष्ठति । रथम् । इन्द्रस्य । सखा । विद्वान् । एन । सुऽमतिम् । याति । अच्छ ॥ ९.९६.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 96; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अस्य, हरिं) अस्य परमात्मनो हरणशीलशक्तीः (हरयः) ज्ञानकिरणाः (मृजन्ति) प्रदीपयन्ति तथा (अश्वहयैः) विद्युदादि शक्तय इव (अनिशितं) असंस्कृतमपि (नमोभिः) सत्कारद्वारेण संस्कृतं कुर्वन् (आ, तिष्ठति) आगत्य विराजते (रथं) उक्तगतिशीलपरमात्मानं (इन्द्रस्य) कर्मयोगिनः (सखा) मित्रं (विद्वान्) मेधावी जनः (एन) उक्तमार्गेण (सुमतिं) सुमार्गं (अच्छ, याति) सम्यक् प्राप्नोति ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अस्य हरिम्) उस परमात्मा की हरणशील शक्ति को (हरयः) ज्ञान की किरणें (मृजन्ति) प्रदीप्त करती हैं और (अश्वहयैः) विद्युदादि शक्तियों के समान (अनिशितम्) असंस्कृत को भी (नमोभिः) सत्कार द्वारा संस्कृत करता हुआ (आतिष्ठति) आकर विराजमान होता है। (रथम्) उक्त गतिस्वरूप परमात्मा को (इन्द्रस्य) कर्मयोगी का (सखा) मित्र (विद्वान्) मेधावी पुरुष (एना) उक्त रास्ते से (सुमतिम्) सुन्दर मार्ग को (अच्छ याति) भली-भाँति प्राप्त होता है ॥२॥

    भावार्थ

    जो लोग नम्रभाव से परमात्मा की उपासना करते हैं, वे असंस्कृत होकर भी शुद्ध हो जाते हैं अर्थात् उनकी शुद्धि का कारण एकमात्र परमात्मोपासनरूपी संस्कार ही है, कोई अन्य संस्कार नहीं ॥२॥

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    विषय

    सेनापति के अश्वों और अधीन पदाधिकारियों का सुभूषित करना। महारथी का वर्णन।

    भावार्थ

    (हरयः) विद्वान् लोग (अनिशितम्) असंस्कृत, अभूषित (अस्य हरिम्) इसके अश्व को और अनुत्साहित इसके अन्य तेजस्वी जन को भी (अश्व-हयैः) वेगवान् अन्य अश्वों सहित और (नमोभिः) आदर सत्कारों तथा शत्रु को नमाने वाले अनेक साधनों, पदों, अधिकारों से (संमृजन्ति) अलंकृत, शोभित करते हैं। वह (इन्द्रस्य सखा) राजा का परम मित्र (रथम् अतिष्ठति) रथ पर विराजता है और (विद्वान् एता) विद्वान् इस रथ से (सुमतिम् अच्छ याति) उत्तम मतिमान् और आदर को प्राप्त करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रतदनो दैवोदासिर्ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ३, ११,१२, १४, १९, २३ त्रिष्टुप्। २, १७ विराट् त्रिष्टुप्। ४—१०, १३, १५, १८, २१, २४ निचृत् त्रिष्टुप्। १६ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। २०, २२ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    सुमति की प्राप्ति

    पदार्थ

    (अस्य) = इस जीव के (हरिम्) = दुःखहर्ता सोम को (हरयः) = इन्द्रियाश्व ही (समृजन्ति) = शुद्ध करते हैं। जो सोम (अश्वहयैः) = इन्द्रियाश्वों की इधर-उधर गति से (अनिशितम्) = तेज व उबाल वाला नहीं कर दिया गया । वह सोम (नमोभिः) = प्रभु नमनों के द्वारा (रथम् आतिष्ठति) = इस शरीर रथ में ही चारों ओर स्थित होता है। यदि इन्द्रियाँ विषयों में इधर-उधर नहीं भटकती और हम प्रभु नमन में प्रवृत्त होते हैं, तो यह सोम शरीर में सुरक्षित रहता है । (इन्द्रस्य सखा) = उस समय यह सोम इस जितेन्द्रिय पुरुष का मित्र होता है। विद्वान् ज्ञानी पुरुष (एना) = इस सोम के द्वारा (सुमतिं अच्छ) = कल्याणी मति की ओर (याति) = जाता है सोमरक्षण से शुभमति को प्राप्त करता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- इन्द्रियाँ जब विषयों में नहीं जाती तो प्रभु नमन करती हुईं सोम का रक्षण करती करता हैं। यह सोम सुरक्षित हुआ हुआ सुमति का प्रदान है

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Active and self-sacrificing people of society with fast driving forces and incessant inputs of men, materials and committed loyalties empower the chariot of this leader of humanity. Also, the ruling Indra’s friend, a sagely scholar, comes up and joins the chariot, and with him Soma goes forward well with proper understanding, principles and policies.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लोक नम्र भावाने परमात्म्याची उपासना करतात ते असंस्कृत असून ही शुद्ध होतात अर्थात अर्थात त्यांच्या शुद्धीचे कारण एकमेव परमात्म्याचे उपासनारूपी संस्कारच आहेत. इतर कोणते नाही. ॥२॥

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