ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 96/ मन्त्र 3
ऋषिः - प्रतर्दनो दैवोदासिः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स नो॑ देव दे॒वता॑ते पवस्व म॒हे सो॑म॒ प्सर॑स इन्द्र॒पान॑: । कृ॒ण्वन्न॒पो व॒र्षय॒न्द्यामु॒तेमामु॒रोरा नो॑ वरिवस्या पुना॒नः ॥
स्वर सहित पद पाठसः । नः॒ । दे॒व॒ । दे॒वऽता॑ते । प॒व॒स्व॒ । म॒हे । सो॒म॒ । प्सर॑से । इ॒न्द्र॒ऽपानः॑ । कृ॒ण्वन् । अ॒पः । व॒र्षय॑न् । द्याम् । उ॒त । इ॒माम् । उ॒रोः । आ । नः॒ । व॒रि॒व॒स्य॒ । पु॒ना॒नः ॥
स्वर रहित मन्त्र
स नो देव देवताते पवस्व महे सोम प्सरस इन्द्रपान: । कृण्वन्नपो वर्षयन्द्यामुतेमामुरोरा नो वरिवस्या पुनानः ॥
स्वर रहित पद पाठसः । नः । देव । देवऽताते । पवस्व । महे । सोम । प्सरसे । इन्द्रऽपानः । कृण्वन् । अपः । वर्षयन् । द्याम् । उत । इमाम् । उरोः । आ । नः । वरिवस्य । पुनानः ॥ ९.९६.३
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 96; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(देव, सोम) हे दिव्यगुणयुक्त परमात्मन् ! (देवताते) विद्वद्भिः विस्तृते (महे) महति (प्सरसे) सुन्दरयज्ञे भवान् (पवस्व) पवित्रयतु (इन्द्रपानः) भवान् कर्मयोगिनां तृप्तिरूपोऽस्ति (अपः, कृण्वन्) शुभकर्माणि कुर्वन् (उत) अथवा (इमां, द्यां) इमं द्युलोकमुत्पादयन् (उरः) अस्य कर्मयोगस्य विस्तृतमार्गेण (आ) आगच्छन् (नः) अस्मान् (वरिवस्य) धनाद्यैश्वर्यद्वारेण (पुनानः) पावयन् एत्य अस्मद्हृदये विराजताम् ॥३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(देव सोम) हे दिव्यगुणयुक्त परमात्मन् ! (देवताते) विद्वानों से विस्तृत किये हुए (महे) बड़े (प्सरसे) सुन्दर यज्ञ में आप (पवस्व) पवित्र करें (इन्द्रपानः) आप कर्म्मयोगियों के तृप्तिरूप हैं और (अपः कृण्वन्) शुभ कर्मों को करते हुए (उत) अथवा (इमां द्याम्) इस द्युलोक को उत्पन्न करते हुए आप (उरः) इस कर्म्मयोग के विस्तृत मार्ग से (आ) आते हुए (नः) हमको (वरिवस्य) धनादि ऐश्वर्य्य के द्वारा (पुनानः) पवित्र करते हुए आप आकर हमारे हृदय में विराजमान हों ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में कर्मयोग का वर्णन है कि कर्मयोगी अपने योगजकर्म द्वारा परमात्मा का साक्षात्कार करता है ॥३॥
विषय
उसका रण में प्रयाण।
भावार्थ
हे (देव) तेजस्विन् विद्वन् ! हे (सोम) अभिषिक्त ! शासक ! तू (नः) हमारे (देव-ताते) विजयोत्सुक, वीरों से किये जाने योग्य संग्राम में (महे सरसे) बड़े भारी ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिये (पवस्व) आगे बढ़ा। तू (इन्द्र-पानः) ऐश्वर्य का पालनकर्त्ता है। (अपः कृण्वन् द्याम् वर्षयन्) जलों को उत्पन्न करते, और आकाश को बर्षाते हुए मेघ के तुल्य ही (अपः कृण्वन्) काम करता हुआ (उत इमाम् द्याम्) और इस विजयिनी सेना से शस्त्रों की बर्षा करता हुआ (उरोः) इस विशाल राष्ट्र से (पुनानः) शत्रु को दूर करता हुआ (नः वरिवस्य) हमें उत्तम पद, ऐश्वर्य प्रदान कर और प्रजागण की सेवा कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रतदनो दैवोदासिर्ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ३, ११,१२, १४, १९, २३ त्रिष्टुप्। २, १७ विराट् त्रिष्टुप्। ४—१०, १३, १५, १८, २१, २४ निचृत् त्रिष्टुप्। १६ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। २०, २२ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
महे प्सरसे
पदार्थ
हे (देव) = प्रकाशमय सोम! (सः) = वह तू (नः) = हमें (देवताते) = इस दिव्य गुणों के विस्तार वाले जीवनयज्ञ में (पवस्व) = प्राप्त हो । हे सोम, वीर्यशक्ते ! तू (इन्द्रपानः) = जितेन्द्रिय पुरुष से पातव्य होता हुआ (महे प्सरसे) = महान सौन्दर्य व ऐश्वर्य के लिये होता है। हे सोम ! तू (अपः कृण्वन्) = व्यापक कर्मों को जन्म देता हुआ, (द्याम् वर्षयन्) = द्युलोक से प्रकाश की वृष्टि कराता हुआ (उत) = और (इमाम्) = इस पृथ्वी रूप शरीर को शक्तिवर्षण से सिक्त करता हुआ (नः) = हमें (उरो:) = विशाल हृदयान्तरिक्ष से (पुनानः) = पवित्र करता हुआ (आवरिवस्या) = ऐश्वर्यदान से सेवित कर । सोमरक्षण से हमारी क्रियाशीलता में वृद्धि होती है, मस्तिष्क दीप्त होकर ज्ञान के प्रकाश को प्राप्त कराता है, यह शरीर शक्तिसिक्त होता है और हृदय की विशालता जीवन को पवित्र करती है।
भावार्थ
भावार्थ- सोम सुरक्षित होकर महान् सौन्दर्य का कारण बने। इससे शरीर क्रियाशील, मस्तिष्क दीत बने व हृदय विशाल हो ।
इंग्लिश (1)
Meaning
O divine Soma, you are the protector of the honour and excellence of humanity, indeed of the very soul of life. Come and bless our great and beautiful social yajna in honour of divinities, initiating, stimulating and exciting noble thoughts and actions, blessing this earth from heaven and the vast spaces with showers of divine favours of grace, purifying us and giving us fulfilment of our highest order of desire and ambition.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात कर्मयोगाचे वर्णन आहे की कर्मयोगी आपल्या योगकर्माद्वारे परमेश्वराचा साक्षात्कार करतो. ॥३॥
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