अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
आ न॑यै॒तमा र॑भस्व सु॒कृतां॑ लो॒कमपि॑ गच्छतु प्रजा॒नन्। ती॒र्त्वा तमां॑सि बहु॒धा म॒हान्त्य॒जो नाक॒मा क्र॑मतां तृ॒तीय॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । न॒य॒ । ए॒तम् । आ । र॒भ॒स्व॒ । सु॒ऽकृता॑म् । लो॒कम् । अपि॑ । ग॒च्छ॒तु॒ । प्र॒ऽजा॒नन् । ती॒र्त्वा । तमां॑सि । ब॒हु॒ऽधा । म॒हान्ति॑ । अ॒ज: । नाक॑म् । आ । क्र॒म॒ता॒म् । तृ॒तीय॑म् ॥५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नयैतमा रभस्व सुकृतां लोकमपि गच्छतु प्रजानन्। तीर्त्वा तमांसि बहुधा महान्त्यजो नाकमा क्रमतां तृतीयम् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । नय । एतम् । आ । रभस्व । सुऽकृताम् । लोकम् । अपि । गच्छतु । प्रऽजानन् । तीर्त्वा । तमांसि । बहुऽधा । महान्ति । अज: । नाकम् । आ । क्रमताम् । तृतीयम् ॥५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
[कोई शुभेच्छु आचार्य के प्रति निवेदन करता है कि हे आचार्य!] (एतम्) इस मुमुक्षु को (आनय) अपने समीप ले आ, (आरभस्व) और इसका शिक्षण आरम्भ कर, ताकि (प्रजानन्) योग विधि को जानता हुआ यह (सुकृतां लोकम्) सुकर्मियों के लोक में (अपि गच्छतु) जाय। (बहुधा) बहुत प्रकार के (महान्ति) बड़े-बड़े (तमांसि) तमोमय जीवनों को (तीर्त्वा) तैर कर,पार कर, (अजः) यह अजन्मा जीवात्मा (तृतीयं नाकम्) तिसरे सुखमय लोक की ओर (आक्रमताम्) पग बढ़ाए।
टिप्पणी -
["अज” का अर्थ बकरा जानकर, याज्ञिक सम्प्रदाय, मन्त्र में बकरे का वर्णन मानते हैं, परन्तु बकरा अर्थ में “प्रजानन्” पद व्यर्थ प्रतीत होता है। मन्त्र में मुमुक्षु का वर्णन है जोकि निज आत्मस्वरूप को “अज” अर्थात् जन्म मरण से रहित जानकर मोक्ष पाने का अभिलाषी है। "महान्ति तमांसि" का अभिप्राय है लम्बे-लम्बे कालों तक नानाविध तामसिक जीवन को तैर कर मानुष शरीर को पाना। “तृतीय नाक” के सम्बन्ध में देखो, मन्त्र १० का व्याख्या]