अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 5/ मन्त्र 4
अनु॑छ्य श्या॒मेन॒ त्वच॑मे॒तां वि॑शस्तर्यथाप॒र्वसिना॒ माभि मं॑स्थाः। माभि द्रु॑हः परु॒शः क॑ल्पयैनं तृ॒तीये॒ नाके॒ अधि॒ वि श्र॑यैनम् ॥
स्वर सहित पद पाठअनु॑ । च्छ्य॒ । श्या॒मेन॑ । त्वच॑म् । ए॒ताम् । वि॒ऽश॒स्त॒: । य॒था॒ऽप॒रु । अ॒सिना॑ । मा । अ॒भि । मं॒स्था॒: । मा । अ॒भि । द्रु॒ह॒: । प॒रु॒ऽश: । क॒ल्प॒य॒ । ए॒न॒म् । तृ॒तीये॑ । नाके॑ । अधि॑ । वि । श्र॒य॒ । ए॒न॒म् ॥५.४॥
स्वर रहित मन्त्र
अनुछ्य श्यामेन त्वचमेतां विशस्तर्यथापर्वसिना माभि मंस्थाः। माभि द्रुहः परुशः कल्पयैनं तृतीये नाके अधि वि श्रयैनम् ॥
स्वर रहित पद पाठअनु । च्छ्य । श्यामेन । त्वचम् । एताम् । विऽशस्त: । यथाऽपरु । असिना । मा । अभि । मंस्था: । मा । अभि । द्रुह: । परुऽश: । कल्पय । एनम् । तृतीये । नाके । अधि । वि । श्रय । एनम् ॥५.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(विशस्तः) हे विशेष प्रशस्त [आचार्य!] (श्यामेन) श्याम ब्रह्म के उपदेश द्वारा, (असिना) तथा ज्ञानासि द्वारा, (यथापरु) परु-परु करके, (एताम् त्वचम्) इस मुमुक्षु की त्वचा को (अनुच्छ्य) अनुकूलतया काट दे, (माभिमंस्थाः) इस सम्बन्ध में तू अभिमान न कर, अथवा इसकी हिंसा न कर (मा अभिद्रुहः) और न इसके साथ द्रोह कर, (एनम् परुशः कल्पय) अपितु इस मुमुक्षु को परु-परु में सामर्थ्यवान् कर, तथा (एनम्) इसको (तृतीये नाके अधि) सुखमय तीसरे नाक पर (विश्रय) विश्राम करने योग्य कर।
टिप्पणी -
[विशस्तः=विशस्तृ प्रातिपदिक का सम्बुद्धि पद; यथा हे पितः!, हे मातः!। “शस्” धातु प्रशंसार्थक भी है, यथा प्रशस्तः पुरुषः। शस्त=Praised, best (आप्टे)। अनुच्छच=अनुकूल होकर काट (छो छेदने, दिवादिः), प्रतिकूल भावना से नहीं। श्यामेन= ब्रह्म के दो रूप हैं श्याम और शबल (छान्दोग्य उप० अध्याय ८, खण्ड १३)। शबल का अर्थ है नानारूपी, और श्याम का अभिप्राय है एकरूपी। जगत् के साथ सम्बन्ध से ब्रह्म नानारूपी है। माता, पिता, बन्धु, जगत् का कर्त्ता, धर्त्ता, प्रलय कर्त्ता, कर्माध्यक्ष, न्यायकारी आदि नानारूपों में ब्रह्म प्रकट होता है, और प्रलयकाल में वह एकरूपी होता है “अमात्र” अव्यवहार्यः प्रपञ्चोपशमः शिवः, अद्वैतम=आदि रूप। आचार्य मुमुक्षु को सांसारिक रूपों से पृथक् करने के लिये मुमुक्षु को श्याम१ ब्रह्म का उपदेश देता है ताकि वह मोक्ष का अधिकारी हो सके। साथ ही आचार्य ज्ञानासि अर्थात् विवेक ज्ञान रूपी “असि”१ अर्थात् तलवार का भी उपदेश देता है ताकि वह आविद्या की गांठ को काट सके। यथा “तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः। छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत।। (गीता ५।४२) में ज्ञानासि का वर्णन हुआ है। “असि” के द्वारा शरीर के पुरुओं अर्थात् अङ्ग-प्रत्यङ्गों के काटने का यह अभिप्राय है कि मुमुक्षु के जन्मजात अङ्ग-प्रत्यङ्गों में दुराचार (मन्त्र ३) प्रविष्ट हुए-हुए है उन्हें ज्ञानासि द्वारा काटकर अलग कर देना, ताकि मुमुक्षु नव पवित्र जीवन को प्राप्त कर मुक्त हो सके। इस सम्बन्ध में आचार्य को कहा है कि मुमुक्षु को मोक्षाधिकारी बनाने में तू आत्माभिमान न कर। तथा उसे यह भी कहा है कि मुमुक्षु के साथ तू द्रोह भी न कर। अति-तपश्चर्या के द्वारा इसका हनन न कर। “अभिपूर्वो मन्यतिहिंसार्थः” (महीधर, यजु० १३।४१)। इसी भावना को प्रकट करने के लिये मन्त्र में “मा द्रुहः” तथा “कल्पयैनम्” का प्रयोग हुआ है। मन्त्रार्थ में प्रायः “शवलेन असिना” ऐसा अन्वय किया जाता है, जिस का अर्थ है “कृष्णवर्ण मिश्रित नीली तलवार” द्वारा इसके पुरुओं अर्थात् जोड़ों को काट दे। परन्तु यह अर्थ मन्त्रोवत “माभिम्ंस्थाः, मा अभिद्रुहः, और कल्पयैनम्” के विरुद्ध प्रतीत होता है ] [१.आचार्य शिष्य के दुर्गुणों को हटाने के लिये असि-क्रिया अर्थात् शल्य-क्रिया करता है, और सद्गुणों का आधान करने के लिये श्याम-ब्रह्म के सदुपदेश का आश्रय लेता है इसलिये आचार्य को “मृत्यु” कहा है, और “वरुण, सोम, ओषधः, तथा पयः (दूध) भी कहा है (अथर्व० ११।५।१४)।]