अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 5/ मन्त्र 2
इन्द्रा॑य भा॒गं परि॑ त्वा नयाम्य॒स्मिन्य॒ज्ञे यज॑मानाय सू॒रिम्। ये नो॑ द्वि॒षन्त्यनु॒ तान्र॑भ॒स्वाना॑गसो॒ यज॑मानस्य वी॒राः ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑य । भा॒गम् । परि॑ । त्वा॒ । न॒या॒मि॒ । अ॒स्मिन् । य॒ज्ञे । यज॑मानाय । सू॒रिम् । ये । न॒: । द्वि॒षन्ति॑ । अनु॑ । तान् । र॒भ॒स्व॒ । अना॑गस: । यज॑मानस्य । वी॒रा: ॥५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राय भागं परि त्वा नयाम्यस्मिन्यज्ञे यजमानाय सूरिम्। ये नो द्विषन्त्यनु तान्रभस्वानागसो यजमानस्य वीराः ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्राय । भागम् । परि । त्वा । नयामि । अस्मिन् । यज्ञे । यजमानाय । सूरिम् । ये । न: । द्विषन्ति । अनु । तान् । रभस्व । अनागस: । यजमानस्य । वीरा: ॥५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
[आचार्य मुमुक्षु के प्रति कहता है कि] हे मुमुक्षु ! (अस्मिन् यज्ञे) इस योगरूपी, ध्यानरूपी, यज्ञ में, (त्वा सूरिम्) तुझ स्तोता को, (यजमानाय इन्द्राय) संसार-यज्ञ के रचयिता परमैश्वर्यवान परमेश्वर के लिये (भागम्) भागरूप में, (परिनयामि) मैं पूर्णतया लाता हूं। (ये) जो काम, क्रोध, लोभ आदि (नः) हमारे साथ (द्विषन्ति) द्वेष करते हैं (तान्) उन्हें (अनुरभस्व) निरन्तर तू पकड़ता रह। ताकि (यजमानस्य) संसार-यज्ञ के रचयिता के (वीराः) वीर पुत्र (अनागसः) पापों से रहित हो जाय।
टिप्पणी -
[व्यक्ति जब तक सांसारिक भोगों में लिप्त रहता है तब तक वह परमेश्वर के लिये निजभागरूप नहीं होता। परन्तु वह मुमुक्षु होकर जब ध्यानयज्ञ में परमेश्वर का स्तोता बन जाता है तब उसे परमेश्वर निजभागरूप में स्वीकार कर लेता है। काम क्रोध लोभ आदि प्रिय तो लगते हैं, परन्तु परिणाम में ये हैं द्वेषी। मुमुक्षु को चाहिये कि वह इनकी पकड़ में न आए अपितु इन शत्रुओं को निरन्तर पकड़ कर इन्हें निज वश में करता रहें। ताकि परमेश्वर के पुत्र, वीर बनें, और वीर बनकर इन शत्रुओं पर विजय पा कर, पापों से रहित हो जाय। सूरिम्= सूरिः स्तोतृनाम (निघं० ३।१६)]