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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 5/ मन्त्र 18
    सूक्त - भृगुः देवता - अजः पञ्चौदनः छन्दः - त्रिपदा विराड्गायत्री सूक्तम् - अज सूक्त

    अ॒जः प॒क्वः स्व॒र्गे लो॒के द॑धाति॒ पञ्चौ॑दनो॒ निरृ॑तिं॒ बाध॑मानः। तेन॑ लो॒कान्त्सूर्य॑वतो जयेम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ज: । प॒क्व: । स्व॒:ऽगे । लो॒के । द॒धा॒ति॒ । पञ्च॑ऽओदन: । नि:ऽऋ॑तिम् । बाध॑मान: । तेन॑ । लो॒कान् । सूर्य॑ऽवत: । ज॒ये॒म॒ ॥५.१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अजः पक्वः स्वर्गे लोके दधाति पञ्चौदनो निरृतिं बाधमानः। तेन लोकान्त्सूर्यवतो जयेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अज: । पक्व: । स्व:ऽगे । लोके । दधाति । पञ्चऽओदन: । नि:ऽऋतिम् । बाधमान: । तेन । लोकान् । सूर्यऽवत: । जयेम ॥५.१८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 18

    भाषार्थ -
    (पक्वः अजः) समाधि में परिपक्व हुआ, साक्षात् प्रकट हुआ नित्य परमेश्वर, (पञ्चौदनः) जो कि पंचविध इन्द्रियभोगों का स्वामी है, (निर्ऋर्ति बाधमानः) कष्टों को हटाता हुआ, (स्वर्गे लोके दधाति) स्वर्गलोक में स्थापित कर देता है। (तेन) उस की सहायता या कृपा से (सूर्यवतः लोकान् जयेम) सूर्य वाले लोकों पर हम विजय पाएं, उन्हें प्राप्त हों।

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