अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 5/ मन्त्र 23
नास्यास्थी॑नि भिन्द्या॒न्न म॒ज्ज्ञो निर्ध॑येत्। सर्व॑मेनं समा॒दाये॒दमि॑दं॒ प्र वे॑शयेत् ॥
स्वर सहित पद पाठन । अ॒स्य॒ । अस्थी॑नि । भि॒न्द्या॒त् । न । म॒ज्ज्ञ: । नि: । ध॒ये॒त् । सर्व॑म् । ए॒न॒म् । स॒म्ऽआ॒दाय॑ । इ॒दम्ऽइ॑दम् । प्र । वे॒श॒ये॒त् ॥५.२३॥
स्वर रहित मन्त्र
नास्यास्थीनि भिन्द्यान्न मज्ज्ञो निर्धयेत्। सर्वमेनं समादायेदमिदं प्र वेशयेत् ॥
स्वर रहित पद पाठन । अस्य । अस्थीनि । भिन्द्यात् । न । मज्ज्ञ: । नि: । धयेत् । सर्वम् । एनम् । सम्ऽआदाय । इदम्ऽइदम् । प्र । वेशयेत् ॥५.२३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 23
भाषार्थ -
(अस्य) इस शिष्य की (अस्थीनि) अस्थियों को (न भिन्द्यात्) अध्यात्मगुरु न तोड़ें, (न) और न (मज्जः) अस्थिगत मज्जा को (निर्धयेत्) निकाल कर पीएं। (एनम्) इस शिष्य को (सर्वम्) सम्पूर्णरूप में, (इदम्, इदम्) इसके इस प्रत्येक अङ्ग समेत (समादाय) इसे लेकर (प्रवेशयेत्) परमेश्वर में प्रविष्ट करा दे।
टिप्पणी -
[परमेश्वर की प्राप्ति के लिये तप की अर्थात् तपश्चर्यामय जीवन की आवश्यकता होती है (मन्त्र ६)। इसके लिये गुरु शिष्य से ऐसी तपश्चर्या न कराए जिससे शिष्य के अंग भंग की आशंका हो, इसकी हडि्डयों में विकृति पैदा हो जाय, और रीढ़ की हड्डियों का मज्जा सूख जाय, विनष्ट हो जाय। अपितु इसे सर्वाङ्ग रूप में प्राप्त कर इसे परमेश्वर में तल्लीन करे। योगदर्शन में तप में सम्बन्ध में कहा है कि “नातपस्विनो योगः सिद्ध्यति, तच्च चित्तप्रसादनमबाषधमानमनेनाऽऽसेव्यमिति मन्यते” (साधन पाद, सूत्र १ का भाष्य), अर्थात् अतपस्वी को योग सिद्ध नहीं होता, परन्तु वह तप उस सीमा तक ही होना चाहिये जितनी तक कि मन प्रसन्न रहे और योग में बाधा न पड़े”। शरीर के स्वस्थ रहते ही तो योगसाधन किये जा सकते हैं, अस्थि तोड़ तथा रीढ़ की अस्थियों के रस को सुखा देने वाला तप योगविरोधी ही है।]