अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 5/ मन्त्र 15
ए॒तास्त्वा॒जोप॑ यन्तु॒ धाराः॑ सो॒म्या दे॒वीर्घृ॒तपृ॑ष्ठा मधु॒श्चुतः॑। स्त॑भान पृ॑थि॒वीमु॒त द्यां नाक॑स्य पृ॒ष्ठेऽधि॑ स॒प्तर॑श्मौ ॥
स्वर सहित पद पाठए॒ता: । त्वा॒ । अ॒ज॒ । उप॑ । य॒न्तु॒ । धारा॑: । सो॒म्या: । दे॒वी: । घृ॒तऽपृ॑ष्ठ: । म॒धु॒ऽश्चुत॑: । स्त॒भा॒न् । पृ॒थि॒वीम् । उ॒त । द्याम् । नाक॑स्य । पृ॒ष्ठे । अधि॑ । स॒प्तऽर॑श्मौ ॥५.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
एतास्त्वाजोप यन्तु धाराः सोम्या देवीर्घृतपृष्ठा मधुश्चुतः। स्तभान पृथिवीमुत द्यां नाकस्य पृष्ठेऽधि सप्तरश्मौ ॥
स्वर रहित पद पाठएता: । त्वा । अज । उप । यन्तु । धारा: । सोम्या: । देवी: । घृतऽपृष्ठ: । मधुऽश्चुत: । स्तभान् । पृथिवीम् । उत । द्याम् । नाकस्य । पृष्ठे । अधि । सप्तऽरश्मौ ॥५.१५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 15
भाषार्थ -
(अज) हे जन्म मरण से रहित परमेश्वर ! (सोम्याः) सोम का, (देवीः, घृतपृष्ठाः, मधुश्चुतः) दिव्य, घृतस्पर्शी तथा मधुमिश्रित (एताः धारा) ये धाराएं (त्वा उपयन्तु) तुझे प्राप्त हों। (नाकस्य पृष्ठे) नाक की पीठ पर (सप्तरश्मौ) सात प्रकार की रश्मियों वाले सूर्य में (अधि) अधिष्ठित हुआ तू (पृथिवीम् उत द्याम्) पृथिवी और द्युलोक को (स्तभान) थाम।
टिप्पणी -
[मन्त्र १३ में अग्निस्वरूप परमेश्वर के प्रकाश से मुमुक्षु “अज” अर्थात् जन्मरहित है, इस निमित्त मन्त्र १४ में यज्ञ कराने सम्बन्धी दक्षिणा का वर्णन हुआ है, और मन्त्र १५ में घृत तथा मधु से मिश्रित सोमयाग की कर्त्तव्यता का निर्देश किया है। सूर्य को सप्तरश्मि कहा है। इस की शुभ्र रश्मियां फट कर, सातरंगों की रश्मियों में परिवर्तित हो जाती हैं। ये सातरंगी रश्मियां वर्षर्तु में मेघीय इन्द्र-धनुष् में दीखती हैं। यजुर्वेद (४०।१७) में भी परमेश्वर की स्थिति आदित्य में दर्शाई है।]