अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 5/ मन्त्र 3
सूक्त - भृगुः
देवता - अजः पञ्चौदनः
छन्दः - चतुष्पदा पुरोऽतिशक्वरी जगती
सूक्तम् - अज सूक्त
प्र प॒दोऽव॑ नेनिग्धि॒ दुश्च॑रितं॒ यच्च॒चार॑ शु॒द्धैः श॒फैरा क्र॑मतां प्रजा॒नन्। ती॒र्त्वा तमां॑सि बहु॒धा वि॒पश्य॑न्न॒जो नाक॒मा क्र॑मतां तृ॒तीय॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । प॒द: । भव॑ । ने॒नि॒ग्धि॒ । दु:ऽच॑रितम् । यत् । च॒चार॑ । शु॒ध्दै: । श॒फै: । आ । क्र॒म॒ता॒म् । प्र॒ऽजा॒नन् । ती॒र्त्वा । तमां॑सि । ब॒हु॒ऽधा । वि॒ऽपश्य॑न् । अ॒ज: । नाक॑म् । आ । क्र॒म॒ता॒म् । तृतीय॑म् ॥५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र पदोऽव नेनिग्धि दुश्चरितं यच्चचार शुद्धैः शफैरा क्रमतां प्रजानन्। तीर्त्वा तमांसि बहुधा विपश्यन्नजो नाकमा क्रमतां तृतीयम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । पद: । भव । नेनिग्धि । दु:ऽचरितम् । यत् । चचार । शुध्दै: । शफै: । आ । क्रमताम् । प्रऽजानन् । तीर्त्वा । तमांसि । बहुऽधा । विऽपश्यन् । अज: । नाकम् । आ । क्रमताम् । तृतीयम् ॥५.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
[हे आचार्य !] (प्र पदः) प्रत्येक पाद सम्बन्धी (यत्) जिस (दुश्चिरितम्) दुराचार को (चकार) इस मुमुक्षु ने किया है (अव नेनिग्धी)१ उसे तथा उस सदृश दुराचार को तू शुद्ध कर दे, ताकि (प्रजानन्) ज्ञान सम्पन्न हुआ यह (आक्रमताम्) आगे की ओर पग बढ़ाए, जैसे कि “अज” अर्थात् बकरा (शुद्धैः) रोगों से रहित (शफैः) निज पगों द्वारा आगे पग बढ़ाता है। ताकि (विपश्यन्) जीवन के नए मार्ग को देखता हुआ (अजः) स्वरूप से जन्म रहित मुमुक्षु (बहुधा तमांसि तीर्त्वा) बहुत प्रकार के तमोमय जीवनों को तैर कर, (तृतीयं नाकम्) तीसरे सुखमय लोक की ओर (आक्रमताम्) पग बढ़ाए।
टिप्पणी -
[प्र पदः= प्रत्येक पाद सम्बन्धी; षष्ठी विभक्ति का एकवचन। जो दुश्चरित किये जाते हैं वे प्रायः पैरों द्वारा चल कर ही किये जाते हैं। मन्त्र में “शफैः” पद द्वारा बकरे के खुरों का निर्देश कर बकरे को उपमान रूप में निर्दिष्ट किया है। मन्त्र में “प्रजानन्-तथा-विपश्यन्” पदों द्वारा ज्ञानवान् मुमुक्षु का निर्देश हुआ है। प्रत्येक पाद सम्बन्धी दुश्चरित का यह अभिप्राय है कि दुराचार करने के लिये जिस पाद को उसने प्रथम उठाया है, मानो वह दुराचार उस पाद द्वारा किया गया है।] [१.णिजिर् शौचपोषणयोः, (जुहोत्यादिः), अर्थात् मुमुक्षु के दुर्गुणरूपी मलों को धोकर इसे पवित्र तथा परिपुष्ट कर।]