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  • यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 43
    ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - होत्रादयो देवताः छन्दः - आद्यस्य याजुषी पङ्क्तिः, कृति स्वरः - पञ्चमः, षड्जः
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    होता॑ यक्षद॒श्विनौ॒ छाग॑स्य ह॒विष॒ऽआत्ता॑म॒द्य म॑ध्य॒तो मेद॒ऽउद्भृ॑तं पु॒रा द्वेषो॑भ्यः पु॒रा पौरु॑षेय्या गृ॒भो घस्तां॑ नू॒नं घा॒सेऽअ॑ज्राणां॒ यव॑सप्रथमाना सु॒मत्क्ष॑राणा शतरु॒द्रिया॑णामग्निष्वा॒त्तानां॒ पीवो॑पवसनानां पार्श्व॒तः श्रो॑णि॒तः शि॑ताम॒तऽउ॑त्साद॒तोऽङ्गा॑दङ्गा॒दव॑त्तानां॒ कर॑तऽए॒वाश्विना॑ जु॒षेता॑ ह॒विर्होत॒र्यज॑॥४३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हो॒ता। य॒क्ष॒त्। अ॒श्विनौ॑। छाग॑स्य। ह॒विषः॑। आत्ता॑म्। अ॒द्य। म॒ध्य॒तः। मेदः॑। उद्भृ॑त॒मित्युत्ऽभृ॑तम्। पु॒रा। द्वेषो॑भ्य॒ इति॒ द्वेषः॑ऽभ्यः। पु॒रा। पौरु॑षेय्याः। गृ॒भः। घस्ता॑म्। नू॒नम्। घा॒सेऽअ॑ज्राणा॒मिति॑ घा॒सेऽअ॑ज्राणाम्। यव॑सप्रथमाना॒मिति॒ यव॑सऽप्रथमानाम्। सु॒मत्क्ष॑राणा॒मिति॑ सु॒मत्ऽक्ष॑राणाम्। श॒त॒रु॒द्रिया॑णा॒मिति॑ शतऽरु॒द्रिया॑णाम्। अ॒ग्नि॒ष्वा॒त्ताना॑म्। अ॒ग्नि॒स्वा॒त्ताना॒मित्य॑ग्निऽस्वा॒त्ताना॑म्। पीवो॑पवसनाना॒मिति॒ पीवः॑ऽउपवसनानाम्। पा॒र्श्व॒तः श्रो॒णि॒तः। शि॒ता॒म॒तः। उ॒त्सा॒द॒त इत्यु॑त्ऽसाद॒तः। अङ्गा॑दङ्गा॒दित्यङ्गा॑त्ऽअङ्गात्। अव॑त्तानाम्। कर॑तः। एव। अ॒श्विना॑। जु॒षेता॑म्। ह॒विः। होतः॑। यज॑ ॥४३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    होता यक्षदश्विनौ च्छागस्य हविषऽआत्तामद्य मध्यतो मेदऽउद्भृतम्पुरा द्वेषोभ्यः पुरा पौरुषेय्या गृभो घस्तान्नूनङ्घासेअज्राणाँयवसप्रथमानाँ सुमत्क्षराणाँ शतरुद्रियाणामग्निष्वात्तानाम्पीवोपवसानाम्पार्श्वतः श्रोणितः शितामतऽउत्सादतोङ्गाद्ङ्गादवत्तानाम्करत एवाश्विना जुषेताँ हविर्हातर्यज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    होता। यक्षत्। अश्विनौ। छागस्य। हविषः। आत्ताम्। अद्य। मध्यतः। मेदः। उद्भृतमित्युत्ऽभृतम्। पुरा। द्वेषोभ्य इति द्वेषःऽभ्यः। पुरा। पौरुषेय्याः। गृभः। घस्ताम्। नूनम्। घासेऽअज्राणामिति घासेऽअज्राणाम्। यवसप्रथमानामिति यवसऽप्रथमानाम्। सुमत्क्षराणामिति सुमत्ऽक्षराणाम्। शतरुद्रियाणामिति शतऽरुद्रियाणाम्। अग्निष्वात्तानाम्। अग्निस्वात्तानामित्यग्निऽस्वात्तानाम्। पीवोपवसनानामिति पीवःऽउपवसनानाम्। पार्श्वतः श्रोणितः। शितामतः। उत्सादत इत्युत्ऽसादतः। अङ्गादङ्गादित्यङ्गात्ऽअङ्गात्। अवत्तानाम्। करतः। एव। अश्विना। जुषेताम्। हविः। होतः। यज॥४३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 21; मन्त्र » 43
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    पदार्थ -
    পদার্থঃ- হে (হোতঃ) দাতা ! যেমন (হোতা) গ্রহীতা (অশ্বিনৌ) অধ্যাপনা ও উপদেশকারীদেরকে (য়ক্ষৎ) সংগতি করিবে এবং তাহারা (অদ্য) আজ (ছাগস্য) ছাগাদি পশুদিগের (মধ্যতঃ) মধ্য হইতে (হবিষা) গ্রহণীয় পদার্থের (মেদঃ) স্নিগ্ধ অংশ অর্থাৎ ঘৃত দুগ্ধ ইত্যাদি (উদ্ভৃতম্) উদ্ধার কৃত (আত্তাম্) গ্রহণ করিবে অথবা যেমন (দ্বেষোভ্যঃ) দুষ্টদিগের হইতে (পুরা) প্রথম (গৃভঃ) গ্রহণীয় (পৌরুষেভ্যঃ) পুরুষদিগের সমূহে উত্তম স্ত্রীর (পুরা) প্রথমে (নূনম্) নিশ্চয় করিয়া (ঘস্তাম্) আহার করিবে অথবা যেমন (য়বসপ্রথমানাম্) যব যাহার প্রথম অন্ন (ঘাসে অজ্রাণাম্) যাহা খাইতে প্রথম উপস্থিত করিবার যোগ্য (সুমৎক্ষরাণাম্) যাহার উত্তম উত্তম আনন্দের কম্পন আগমন (শতরুদ্রিয়াণাম্) দুষ্টদিগকে রোদনকারী শত শত রুদ্র যাহাদের দেবতা (পীবোপবসনানাম্) বা যাহাদের মোটা মোটা বস্ত্র সমূহের আচ্ছাদন-পরিধান করা (অগ্নিষ্বাত্তানাম্) অথবা যাহারা ভালমত অগ্নিবিদ্যার গ্রহণ করিয়াছে, এই সব প্রাণিদিগের (পার্শ্বতঃ) পার্শ্বভাগ (শ্রোণিতঃ) কটিপ্রদেশ (শিতামতঃ) তীক্ষ্ন যাহাতে অপক্বঅন্ন সেই প্রদেশ (উৎসাদতঃ) উৎপাটিত অঙ্গ এবং (অঙ্গাদঙ্গাৎ) প্রত্যেক অঙ্গ দ্বারা ব্যবহার বা (অবত্তানাম্) নম্র উত্তম অঙ্গ সকল (এব) ইর ব্যবহার (অশ্বিনা) সুবৈদ্য (করতঃ) করিবে এবং (হবিঃ) উক্ত পদার্থ দ্বারা খাইবার যোগ্য পদার্থের (জুষেতাম্) সেবন করিবে তদ্রূপ (য়জ) সকল পদার্থ বা ব্যবহারের সংগতি করিতে থাক ॥ ৪৩ ॥

    भावार्थ - ভাবার্থঃ- যাহারা ছাগাদি পশুসমূহের রক্ষা করিয়া তাহাদের দুগ্ধাদির সুসংস্কার এবং আহার করিয়া বৈরভাবযুক্ত পুরুষদিগের নিবারণ করিয়া এবং সুবৈদ্যদিগের সঙ্গ করিয়া উত্তম আহার-পরিধান করে, তাহারা প্রত্যেক অঙ্গ দ্বারা রোগসমূহকে দূরীভূত করিয়া সুখী হয় ॥ ৪৩ ॥

    मन्त्र (बांग्ला) - হোতা॑ য়ক্ষদ॒শ্বিনৌ॒ ছাগ॑স্য হ॒বিষ॒ऽআত্তা॑ম॒দ্য ম॑ধ্য॒তো মেদ॒ऽউদ্ভৃ॑তং পু॒রা দ্বেষো॑ভ্যঃ পু॒রা পৌর॑ুষেয়্যা গৃ॒ভো ঘস্তাং॑ নূ॒নং ঘা॒সেऽঅ॑জ্রাণাং॒ য়ব॑সপ্রথমানাᳬं সু॒মৎক্ষ॑রাণাᳬं শতরু॒দ্রিয়া॑ণামগ্নিষ্বা॒ত্তানাং॒ পীবো॑পবসনানাং পার্শ্ব॒তঃ শ্রো॑ণি॒তঃ শি॑তাম॒তऽউ॑ৎসাদ॒তোऽঙ্গা॑দঙ্গা॒দব॑ত্তানাং॒ কর॑তऽএ॒বাশ্বিনা॑ জু॒ষেতা॑ᳬं হ॒বির্হোত॒র্য়জ॑ ॥ ৪৩ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - হোতেত্যস্য স্বস্ত্যাত্রেয় ঋষিঃ । হোত্রাদয়ো দেবতাঃ । আদ্যস্য য়াজুষী পংক্তিশ্ছন্দঃ । পঞ্চমঃ স্বরঃ । হবিষ ইত্যুত্তরস্যোৎকৃতিশ্ছন্দঃ ।
    ষড্জঃ স্বরঃ ॥

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