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  • यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 44
    ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - विद्वांसो देवता छन्दः - याजुषि त्रिष्टुप्, कृति स्वरः - धैवतः, षड्जः
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    होता॑ यक्ष॒त् सर॑स्वतीं॑ मे॒षस्य॑ ह॒विष॒ऽआव॑यद॒द्य म॑ध्य॒तो मेदः॒ उद्भृ॑तं पु॒रा द्वेषो॑भ्यः पु॒रा पौरु॑षेय्या गृ॒भो घस॑न्नू॒नं घा॒सेऽअ॑ज्राणां॒ यव॑सप्रथमाना सु॒मत्क्ष॑राणा शतरु॒द्रिया॑णामग्निष्वा॒त्तानां॒ पीवो॑पवसनानां पार्श्व॒तः श्रो॑णि॒तः शि॑ताम॒तऽउ॑त्साद॒तोऽङ्गा॑दङ्गा॒दव॑त्तानां॒ कर॑दे॒वꣳ सर॑स्वती जु॒षता॑ ह॒विर्होत॒र्यज॑॥४४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    होता॑। य॒क्ष॒त्। सर॑स्वतीम्। मे॒षस्य॑। ह॒विषः॑। आ। अ॒व॒य॒त्। अ॒द्य। म॒ध्य॒तः। मेदः॑। उद्भृ॑त॒मित्युत्ऽभृ॑तम्। पु॒रा। द्वेषो॑भ्य॒ इति॒ द्वेषः॑ऽभ्यः। पु॒रा। पौरु॑षेय्याः। गृ॒भः। घस॑त्। नू॒नम्। घा॒सेऽअ॑ज्राणा॒मिति॑ घा॒सेऽअ॑ज्राणाम्। यव॑सप्रथमाना॒मिति॒ यव॑सऽप्रथमानाम्। सु॒मत्क्ष॑राणा॒मिति॑ सु॒मत्ऽक्ष॑राणाम्। श॒त॒रु॒द्रिया॑णा॒मिति॑ शतऽरु॒द्रिया॑णाम्। अ॒ग्नि॒ष्वा॒त्ताना॑म्। अ॒ग्नि॒स्वा॒त्ताना॒मित्य॑ग्निऽस्वा॒त्ताना॑म्। पीवो॑पवसनाना॒मिति॒ पीवः॑ऽउपवसनानाम्। पा॒र्श्व॒तः श्रो॒णि॒तः। शि॒ता॒म॒तः। उ॒त्सा॒द॒त इत्यु॑त्ऽसाद॒तः। अङ्गा॑दङ्गा॒दित्यङ्गा॑त्ऽअङ्गात्। अव॑त्तानाम्। कर॑त्। ए॒वम्। सर॑स्वती। जु॒षता॑म्। ह॒विः। होतः॑। यज॑ ॥४४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    होता यक्षत्सरस्वतीम्मेषस्य हविषऽआवयदद्य मध्यतो मेदऽउद्भृतम्पुरा द्वेषोभ्यः पुरा पौरुषेय्या गृभो घसन्नूनङ्घासेऽअज्राणाँयवसप्रथमानाँ सुमत्क्षराणाँ शतरुद्रियाणामग्निष्वात्तानाम्पीवोपवसानाम्पार्श्वतः श्रोणितः शितामतऽउत्सादतोङ्गादङ्गादवत्तानाङ्करदेवँ सरस्वती जुषताँ हविर्हातर्यज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    होता। यक्षत्। सरस्वतीम्। मेषस्य। हविषः। आ। अवयत्। अद्य। मध्यतः। मेदः। उद्भृतमित्युत्ऽभृतम्। पुरा। द्वेषोभ्य इति द्वेषःऽभ्यः। पुरा। पौरुषेय्याः। गृभः। घसत्। नूनम्। घासेऽअज्राणामिति घासेऽअज्राणाम्। यवसप्रथमानामिति यवसऽप्रथमानाम्। सुमत्क्षराणामिति सुमत्ऽक्षराणाम्। शतरुद्रियाणामिति शतऽरुद्रियाणाम्। अग्निष्वात्तानाम्। अग्निस्वात्तानामित्यग्निऽस्वात्तानाम्। पीवोपवसनानामिति पीवःऽउपवसनानाम्। पार्श्वतः श्रोणितः। शितामतः। उत्सादत इत्युत्ऽसादतः। अङ्गादङ्गादित्यङ्गात्ऽअङ्गात्। अवत्तानाम्। करत्। एवम्। सरस्वती। जुषताम्। हविः। होतः। यज॥४४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 21; मन्त्र » 44
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    पदार्थ -
    পদার্থঃ- হে (হোতঃ) গ্রহীতা ! যেমন (হোতা) দাতা (অদ্য) আজ (মেষস্য) উপদেশ প্রাপ্ত মনুষ্যের (শিতামতঃ) তীক্ষ্ন স্বভাব হইতে (হবিষঃ) দেওয়ার যোগ্য পদার্থের (মধ্যতঃ) মধ্যে প্রসিদ্ধ ব্যবহার দ্বারা যে (মেদঃ) স্নিগ্ধ পদার্থ (উদ্ভূতম্) উদ্ধার করিয়াছে অর্থাৎ বাহির করিয়াছে তাহাকে (সরস্বতীম্) ও বাণীকে (আ, অবয়ৎ) প্রাপ্ত হইয়া তথা (য়ক্ষৎ) সৎকার করিয়া এবং (দ্বেষোভ্যঃ) শত্রুদিগের হইতে (পুরা) প্রথমে তথা (গৃভঃ) গ্রহণীয় (পৌরুষেয়্যাঃ) পুরুষসম্পর্কীয়া নারীর (পুরা) প্রথম (নূনম্) নিশ্চয়পূর্বক (ঘসৎ) খাইবে অথবা (ঘাসেঅজ্রাণাম্) যাহা ভোজন করিতে সুন্দর (য়বসপ্রথমানাম্) মিশ্রিতও অমিশ্রিতাদি (সুমৎক্ষরানাম্) শ্রেষ্ঠ আনন্দের বর্ষাকারী এবং (পীবোপবসনানাম্) স্থূলবস্ত্রধারীগণ তথা (অগ্নিষ্বাত্তানাম্) অগ্নিবিদ্যাকে ভালমত গৃহীত এবং (শতরুদ্রিয়াণাম্) বহুর মধ্যে বিদ্বান্দিগের অভিপ্রায় রক্ষাকারীদের (পার্শ্বতঃ) সমীপ ও (শ্রোণিতঃ) কটি ভাগ হইতে (উৎসাদতঃ) গাত্র হইতে যে ত্যাগ তাহা দ্বারা অথবা (অঙ্গাদঙ্গাৎ) অঙ্গ অঙ্গ দ্বারা (অবত্তানাম্) গৃহীত ব্যবহারের বিদ্যাকে (করৎ) গ্রহণ করিবে (এবম্) এমন (সরস্বতী) পন্ডিতা নারী তাহার (জুষতাম্) সেবন করিবে, সেইরূপ তুমিও (হবিঃ) গ্রহণীয় ব্যবহারের (য়জ) সংগতি করিতে থাক ॥ ৪৪ ॥

    भावार्थ - ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যে সব মনুষ্য সজ্জনদিগের সঙ্গ দ্বারা দুষ্টদিগের নিবারণ করিয়া যুক্ত আহার-বিহার দ্বারা আরোগ্যতা লাভ করিয়া ধর্মের সেবন করে, তাহারা কৃতকৃত্য হয় ॥ ৪৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला) - হোতা॑ য়ক্ষ॒ৎ সর॑স্বতীং॑ মে॒ষস্য॑ হ॒বিষ॒ऽআऽব॑য়দ॒দ্য ম॑ধ্য॒তো মেদঃ॒ উদ্ভৃ॑তং পু॒রা দ্বেষো॑ভ্যঃ পু॒রা পৌর॑ুষেয়্যা গৃ॒ভো ঘস॑ন্নূ॒নং ঘা॒সেऽঅ॑জ্রাণাং॒ য়ব॑সপ্রথমানাᳬं সু॒মৎক্ষ॑রাণাᳬं শতরু॒দ্রিয়া॑ণামগ্নিষ্বা॒ত্তানাং॒ পীবো॑পবসনানাং পার্শ্ব॒তঃ শ্রো॑ণি॒তঃ শি॑তাম॒তऽউ॑ৎসাদ॒তোऽঙ্গা॑দঙ্গা॒দব॑ত্তানাং॒ কর॑দে॒বꣳ সর॑স্বতী জু॒ষতা॑ᳬं হ॒বির্হোত॒র্য়জ॑ ॥ ৪৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - হোতেস্যস্য স্বস্ত্যাত্রেয় ঋষিঃ । বিদ্বাংসো দেবতাঃ । পূর্বস্য য়াজুষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ । ধৈবতঃ স্বরঃ । হবিষ ইত্যুত্তরস্য স্বরাডুৎকৃতিশ্ছন্দঃ ।
    ষড্জঃ স্বরঃ ॥

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