अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 2/ मन्त्र 18
सूक्त - नारायणः
देवता - ब्रह्मप्रकाशनम्, पुरुषः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मप्रकाशन सूक्त
केने॒मां भूमि॑मौर्णो॒त्केन॒ पर्य॑भव॒द्दिव॑म्। केना॒भि म॒ह्ना पर्व॑ता॒न्केन॒ कर्मा॑णि॒ पुरु॑षः ॥
स्वर सहित पद पाठकेन॑ । इ॒माम् । भूमि॑म् । औ॒र्णो॒त् । केन॑ । परि॑ । अ॒भ॒व॒त् । दिव॑म् । केन॑ । अ॒भि । म॒ह्ना । पर्व॑तान् । केन॑ । कर्मा॑णि । पुरु॑ष:॥२.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
केनेमां भूमिमौर्णोत्केन पर्यभवद्दिवम्। केनाभि मह्ना पर्वतान्केन कर्माणि पुरुषः ॥
स्वर रहित पद पाठकेन । इमाम् । भूमिम् । और्णोत् । केन । परि । अभवत् । दिवम् । केन । अभि । मह्ना । पर्वतान् । केन । कर्माणि । पुरुष:॥२.१८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 2; मन्त्र » 18
विषय - भूमि-द्युलोक
पदार्थ -
१. (पूरुषः) = उस परमपुरुष ने (केन मह्ना) = किस अद्भुत सामर्थ्य से (इमां भूमिं और्णोत्) = इस भूमि को आच्छादित किया है-बिछा-सा दिया है? (केन) = किस सामर्थ्य से (दिवं परि अभवत्) = द्युलोक को समन्तात् व्यास किया हुआ है ? (केन) = किस अद्भुत सामर्थ्य से (पर्वतान्) = पर्वतों को और (केन) = किस सामर्थ्य से (कर्माणि) = सब कमों को (अभि) = [अभवत्] अभिभूत-वशीभूत किया हुआ है?
भावार्थ -
उस परमपुरुष ने भूमि को अपनी महिमा से बिछा-सा दिया है और द्युलोक को व्याप्त किया हुआ है। उसी ने पर्वतों व सब कर्मों को वशीभूत किया हुआ है।
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