अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 2/ मन्त्र 19
सूक्त - नारायणः
देवता - ब्रह्मप्रकाशनम्, पुरुषः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मप्रकाशन सूक्त
केन॑ प॒र्जन्य॒मन्वे॑ति॒ केन॒ सोमं॑ विचक्ष॒णम्। केन॑ य॒ज्ञं च॑ श्र॒द्धां च॒ केना॑स्मि॒न्निहि॑तं॒ मनः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठकेन॑ ।प॒र्जन्य॑म् । अनु॑ । ए॒ति॒ । केन॑ । सोम॑म् । वि॒ऽच॒क्ष॒णम् । केन॑ । य॒ज्ञम् । च॒ । अ॒ध्दाम् । च॒ । केन॑ । अ॒स्मि॒न् । निऽहि॑तम् । मन॑: ॥२.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
केन पर्जन्यमन्वेति केन सोमं विचक्षणम्। केन यज्ञं च श्रद्धां च केनास्मिन्निहितं मनः ॥
स्वर रहित पद पाठकेन ।पर्जन्यम् । अनु । एति । केन । सोमम् । विऽचक्षणम् । केन । यज्ञम् । च । अध्दाम् । च । केन । अस्मिन् । निऽहितम् । मन: ॥२.१९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 2; मन्त्र » 19
विषय - पर्जन्य-सोम
पदार्थ -
१. (केन) = किस अद्भुत देव द्वारा यह पुरुष (निहितम्) = अन्तरिक्ष में स्थापित किये हुए (पर्जन्यम्) = मेघ को (अनु एति) = लगातार-प्रतिवर्ष प्राप्त करता है? (केन) = किसके द्वारा शरीर में स्थापित किये गये (विचक्षणम्) = विशिष्ट प्रकाशवाले (सोमम्) = वीर्य को प्रास करता है? शरीर में यह सोम ही ज्ञानाग्नि का ईंधन बनकर जीवन को प्रकाशमय बनाता है, यह सोम विचक्षण है। २. (केन) = किस देव के द्वारा स्थापित (यज्ञं च श्रद्धां च) = यज्ञ और श्रद्धा को प्राप्त करता है? और (केन) = किससे (अस्मिन्) = इस देह में (निहितं मनः) = रक्खे हुए मन को अनुकूलता से प्राप्त करता है?
भावार्थ -
प्रभु ने मानव-हित के लिए पर्जन्यों का निर्माण करके अन्न को सम्भव किया है [पर्जन्यादन्नसम्भवः] । प्रभु ने इस अन्न द्वारा शरीर में सोम की स्थापना की है। सुरक्षित सोम यज्ञ और श्रद्धा का मूल बनता है और मानसशक्ति का विकास करता है।
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