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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 2/ मन्त्र 5
    सूक्त - नारायणः देवता - ब्रह्मप्रकाशनम्, पुरुषः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मप्रकाशन सूक्त

    को अ॑स्य बा॒हू सम॑भरद्वी॒र्यं करवा॒दिति॑। अंसौ॒ को अ॑स्य॒ तद्दे॒वः कुसि॑न्धे॒ अध्या द॑धौ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क: । अ॒स्य॒ । बा॒हू इति॑ । सम् । अ॒भ॒र॒त् । वी॒र्य᳡म् । क॒र॒वा॒त् । इति॑ । अंसौ॑ । क: । अ॒स्‍य॒ । तत् । दे॒व: । कुसि॑न्धे । अधि॑ । आ । द॒धौ॒ ॥२.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    को अस्य बाहू समभरद्वीर्यं करवादिति। अंसौ को अस्य तद्देवः कुसिन्धे अध्या दधौ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    क: । अस्य । बाहू इति । सम् । अभरत् । वीर्यम् । करवात् । इति । अंसौ । क: । अस्‍य । तत् । देव: । कुसिन्धे । अधि । आ । दधौ ॥२.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 2; मन्त्र » 5

    पदार्थ -

    १. (क:) = किस अद्भुत रचयिता ने (अस्य) = इस पुरुष की (बाहू समभरत्) = भुजाओं को संभृत किया है, (वीर्यं करवात् इति) = जिससे यह वीरतापूर्ण कर्मों को करनेवाला बनता है, (तत्) = उसी कर्तव्य-भार को उठाने के उद्देश्य से ही (कः देव:) = किस दिव्य स्रष्टा ने (अस्य कुसिन्धे अधि) = इस पुरुष के धड़ पर (अंसौ आदधौ) = कन्धों को स्थापित किया है।

    भावार्थ -

    भुजाएँ शक्तिशाली कर्मों को करने के लिए दी गई हैं और कन्धे कर्तव्यभार को उठाने के लिए प्राप्त कराये गये हैं। हम कर्तव्यभार से घबराएँ नहीं, अपितु वीरता के साथ कर्म करनेवाले बनें।

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