अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 2/ मन्त्र 23
सूक्त - नारायणः
देवता - ब्रह्मप्रकाशनम्, पुरुषः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मप्रकाशन सूक्त
ब्रह्म॑ दे॒वाँ अनु॑ क्षियति॒ ब्रह्म॒ दैव॑जनी॒र्विशः॑। ब्रह्मे॒दम॒न्यन्नक्ष॑त्रं॒ ब्रह्म॒ सत्क्ष॒त्रमु॑च्यते ॥
स्वर सहित पद पाठब्रह्म॑ । दे॒वान् । अनु॑ । क्षि॒य॒ति॒ । ब्रह्म॑ । दैव॑ऽजनी: । विश॑: । ब्रह्म॑ । इ॒दम् । अ॒न्यत् । नक्ष॑त्रम् । ब्रह्म॑ । सत् । क्ष॒त्रम् । उ॒च्य॒ते॒ ॥२.२३॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्म देवाँ अनु क्षियति ब्रह्म दैवजनीर्विशः। ब्रह्मेदमन्यन्नक्षत्रं ब्रह्म सत्क्षत्रमुच्यते ॥
स्वर रहित पद पाठब्रह्म । देवान् । अनु । क्षियति । ब्रह्म । दैवऽजनी: । विश: । ब्रह्म । इदम् । अन्यत् । नक्षत्रम् । ब्रह्म । सत् । क्षत्रम् । उच्यते ॥२.२३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 2; मन्त्र » 23
विषय - न-क्षत्रं-सत् क्षत्रम्
पदार्थ -
१. (केन) = किस सामर्थ्य से मनुष्य (देवान् अनु क्षियति) = देवों के साथ निवास करता है दिव्य गुणों को अपने में बढ़ानेवाला बनता है ? (केन) = किस सामर्थ्य से (दैवजनी: विश:) = प्रभु से उत्पादित प्रजाओं के साथ अनुकूलता से निवास कर पाता है ? (केन अन्यत्) = किससे भिन्न रहित होकर (इदम्) = यह (न-क्षत्रम्) = क्षतों से अपना त्राण करनेवाला नहीं होता, और (केन = -किसके द्वारा (सत् क्षत्रम्) = उत्तम बलस्वरूप [क्षत्रों से अपना त्राण करनेवाला] (उच्यते) = कहा जाता है। २. (ब्रह्म देवान् अनु क्षियति) = ज्ञान से यह पुरुष देवों के साथ निवास करता है। (ब्रह्म दैवजनी: विशः) [अनुक्षियति] = ज्ञान द्वारा देव से उत्पादित प्रजाओं के साथ अनुकूलता से निवास करता है। (ब्रह्म अन्यत्) = ब्रह्म से रहित (इदं नक्षत्रम्) = यह निर्वीर्य है। (ब्रह्म) = ज्ञान ही (सत् क्षत्रम्) = उत्तम बल (उच्यते) = कहा जाता है।
भावार्थ -
ज्ञान से दिव्यगुणों का विकास होता है। ज्ञान से मनुष्य सब प्रजाओं के साथ अनुकूलतापूर्वक निवास करता है। ज्ञानशून्यता ही निर्वीर्यता है। ज्ञान ही उत्कृष्ट बल है।
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