अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 2/ मन्त्र 32
सूक्त - नारायणः
देवता - ब्रह्मप्रकाशनम्, पुरुषः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मप्रकाशन सूक्त
तस्मि॑न्हिर॒ण्यये॒ कोशे॒ त्र्य॑रे॒ त्रिप्र॑तिष्ठिते। तस्मि॒न्यद्य॒क्षमा॑त्म॒न्वत्तद्वै ब्र॑ह्म॒विदो॑ विदुः ॥
स्वर सहित पद पाठतस्मि॑न् । हि॒र॒ण्यये॑ । कोशे॑ । त्र्यऽअ॑रे । त्रिऽप्र॑तिस्थिते । तस्मि॑न् । यत् । य॒क्षम् । आ॒त्म॒न्ऽवत् । तत् । वै । ब्र॒ह्म॒ऽविद॑: । वि॒दु॒: ॥२.३२॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्मिन्हिरण्यये कोशे त्र्यरे त्रिप्रतिष्ठिते। तस्मिन्यद्यक्षमात्मन्वत्तद्वै ब्रह्मविदो विदुः ॥
स्वर रहित पद पाठतस्मिन् । हिरण्यये । कोशे । त्र्यऽअरे । त्रिऽप्रतिस्थिते । तस्मिन् । यत् । यक्षम् । आत्मन्ऽवत् । तत् । वै । ब्रह्मऽविद: । विदु: ॥२.३२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 2; मन्त्र » 32
विषय - 'त्र्यरे त्रिप्रतिष्ठित कोश'
पदार्थ -
१.(तस्मिन्) = उस (त्र्यरे) = सत्त्व, रजस्व तमस् रूप तीन अरोंवाले, (त्रिप्रतिष्ठिते) = 'ज्ञान, कर्म, उपासना' में प्रतिष्ठित हिरण्यये कोशे ज्योतिर्मयकोश में (तस्मिन्) = उसी मनोमयकोश में (यत्) = जो (आत्मन्यत्) = सदा जीवित [animate, alive] (यक्षम्) = पूजनीय सत्ता है, (तत्) = उस सत्ता को (वै) = निश्चय से (ब्रह्मविद:) = ज्ञानी पुरुष ही (विदुः) = जानते हैं।
भावार्थ -
प्रभु का निवास इस मनोमयकोश में है। तम व रज से ऊपर उठकर जब यहाँ सत्त्व की प्रधानता होती है, तब उस सदा चैतन्य, पूजनीय सत्ता का यहाँ दर्शन होता है। एक ज्ञानीपुरुष इसे 'ज्ञान, कर्म व उपासना' में प्रतिष्ठित करता है और इसमें प्रभु को देखने का प्रयल करता है।
इस भाष्य को एडिट करें