अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 2/ मन्त्र 20
सूक्त - नारायणः
देवता - ब्रह्मप्रकाशनम्, पुरुषः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मप्रकाशन सूक्त
केन॒ श्रोत्रि॑यमाप्नोति॒ केने॒मं प॑रमे॒ष्ठिन॑म्। केने॒मम॒ग्निं पूरु॑षः॒ केन॑ संवत्स॒रं म॑मे ॥
स्वर सहित पद पाठकेन॑ । श्रोत्रि॑यम् । आ॒प्नो॒ति॒ । केन॑ । इ॒मम् । प॒र॒मे॒ऽस्थित॑म् । केन॑ । इ॒मम् । अ॒ग्निम् । पुरु॑ष: । केन॑ । स॒म्ऽव॒त्स॒रम् । म॒मे॒ ॥२.२०॥
स्वर रहित मन्त्र
केन श्रोत्रियमाप्नोति केनेमं परमेष्ठिनम्। केनेममग्निं पूरुषः केन संवत्सरं ममे ॥
स्वर रहित पद पाठकेन । श्रोत्रियम् । आप्नोति । केन । इमम् । परमेऽस्थितम् । केन । इमम् । अग्निम् । पुरुष: । केन । सम्ऽवत्सरम् । ममे ॥२.२०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 2; मन्त्र » 20
विषय - 'ब्रह्म [ज्ञान]का महत्त्व
पदार्थ -
१. (केन) = किस हेतु से (श्रोत्रियम् आप्नोति) = वेदज्ञ आचार्य को प्राप्त करता है, (केन) = किससे (इमम्) = इस (परमेष्ठिनम्) = परम स्थान में स्थित प्रभु को प्राप्त करता है? और (पूरुषः) = पुरुष केन किससे (इमं अग्निम्) = इस अग्नि को (ममे) = मापता है-जान पाता है? (केन) = किससे (संवत्सरम्) = काल को मापता है? २. इन प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहते हैं कि ब्रह्म-ज्ञान ही (श्रोत्रियम् आप्नोति) = श्रोत्रिय को प्राप्त करता है, अर्थात् ज्ञान के हेतु से ही मनुष्य श्रोत्रिय के समीप जाता है। (ब्रह्म इमं परमेष्ठिनम्) = ज्ञान ही इस परमेष्ठी को प्राप्त करता है। ज्ञान के द्वारा ही प्रभु की प्रासि होती है। (पूरुषः) = पुरुष (ब्रह्म इमं अग्निं ममे) = ज्ञान के द्वारा इस अग्नि को मापनेवाला होता है और (ब्राह्म संवत्सरं ममे) = ज्ञान ही काल को मापता है। मनुष्य ज्ञान द्वारा ही यज्ञिय अग्नि के महत्त्व को व कालचक्र की गति को जान पाता है।
भावार्थ -
ज्ञान के हेतु से मनुष्य वेदज्ञ आचार्य को प्राप्त करता है। प्राप्त ज्ञान से प्रभु को प्राप्त करता है। ज्ञान से ही यज्ञिय अग्नि में यज्ञादि कर्मों को करता है और कालचक्र की गति को समझता हुआ समय पर कार्यों को करनेवाला बनता है।
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