अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 2/ मन्त्र 33
सूक्त - नारायणः
देवता - ब्रह्मप्रकाशनम्, पुरुषः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मप्रकाशन सूक्त
प्र॒भ्राज॑मानां॒ हरि॑णीं॒ यश॑सा सं॒परी॑वृताम्। पुरं॑ हिर॒ण्ययीं॒ ब्रह्मा वि॑वे॒शाप॑राजिताम् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒ऽभ्राज॑मानाम् । हरि॑णीम् । यश॑सा । स॒म्ऽपरि॑वृताम् । पुर॑म् । हि॒र॒ण्ययी॑म् । ब्रह्म॑ । आ । वि॒वे॒श॒ । अप॑राऽजिताम् ॥२.३३॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रभ्राजमानां हरिणीं यशसा संपरीवृताम्। पुरं हिरण्ययीं ब्रह्मा विवेशापराजिताम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्रऽभ्राजमानाम् । हरिणीम् । यशसा । सम्ऽपरिवृताम् । पुरम् । हिरण्ययीम् । ब्रह्म । आ । विवेश । अपराऽजिताम् ॥२.३३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 2; मन्त्र » 33
विषय - प्रभाजमाना-अपराजिता
पदार्थ -
१. जिस समय हम इस शरीर-नगरी को पूरी तरह से स्वस्थ रखने का प्रयत्न करते हैं तब यह अन्नमयकोश में (प्राभ्राजमानाम्) = तेजस्विता से दीप्त होती है [भ्राज़ दीसौ]। यह प्राणमयकोश में प्राणशक्तिपूर्ण होने से हरिणीम् सब दुःखों को हरण करनेवाली होती है। इसमें रोगों का प्रवेश नहीं होता। मनोमयकोश में यह (यशसा संपरीवृतानाम्) = सब यशस्वी-प्रशस्त भावनाओं से पूर्ण होती है। विज्ञानमयकोश में यह (हिरण्ययीम्) = हितरमणीय ज्ञानज्योति से परिपूर्ण होती है और आनन्दमयकोश में (अपराजिताम्) = किन्हीं भी अशुभ आसुर भावनाओं से पराजित नहीं होती। यह कोश 'सहस' वाला है-शत्रुकषर्ण शक्तिवाला है, अतएव आनन्दमय है। इस नगरी में (ब्रह्म आविवेश) = प्रभु का प्रवेश होता है, अर्थात् यहाँ प्रभु का दर्शन होता है।
भावार्थ -
हम इस शरीर-नगरी को 'प्रभ्राजमाना, हरिणी, यश:संपरीवृता, हिरण्ययी व अपराजिता' बनाएँ। इसमें हमें प्रभु का दर्शन होगा। गतमन्त्र के अनुसार इस शरीर नगरी को 'प्रभ्राजमाना' बनाने की कामनावाला व्यक्ति 'अथर्वा' [अथ अर्वा] आत्मनिरीक्षण की वृत्तिवाला बनता है। आत्मनिरीक्षण करता हुआ यह शरीर में वीर्य-रक्षण का पूर्ण प्रयत्न करता है। यह वीर्य उसके लिए 'वरणमणि' बनती है सब रोग व मलिनताओं का निवारण करनेवाली। यह कहता है कि -
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