अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 2/ मन्त्र 28
सूक्त - नारायणः
देवता - ब्रह्मप्रकाशनम्, पुरुषः
छन्दः - भरिग्बृहती
सूक्तम् - ब्रह्मप्रकाशन सूक्त
ऊ॒र्ध्वो नु सृ॒ष्टास्ति॒र्यङ्नु सृ॒ष्टा३स्सर्वा॒ दिशः॒ पुरु॑ष॒ आ ब॑भू॒वाँ३। पुरं॒ यो ब्रह्म॑णो॒ वेद॒ यस्याः॒ पुरु॑ष उ॒च्यते॑ ॥
स्वर सहित पद पाठऊ॒र्ध्व: । नु । सृ॒ष्टा३: । ति॒र्यङ् । नु । सृ॒ष्टा३: । सर्वा॑: । दिश॑: । पुरु॑ष: । आ । ब॒भू॒वाँ३ । पुर॑म् । य: । ब्रह्म॑ण: । वेद॑ । यस्या॑: । पुरु॑ष: । उ॒च्यते॑ ॥२.२८॥
स्वर रहित मन्त्र
ऊर्ध्वो नु सृष्टास्तिर्यङ्नु सृष्टा३स्सर्वा दिशः पुरुष आ बभूवाँ३। पुरं यो ब्रह्मणो वेद यस्याः पुरुष उच्यते ॥
स्वर रहित पद पाठऊर्ध्व: । नु । सृष्टा३: । तिर्यङ् । नु । सृष्टा३: । सर्वा: । दिश: । पुरुष: । आ । बभूवाँ३ । पुरम् । य: । ब्रह्मण: । वेद । यस्या: । पुरुष: । उच्यते ॥२.२८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 2; मन्त्र » 28
विषय - ऊर्ध्व, तिर्यकः, सर्वाः दिश:
पदार्थ -
१. (नु) = निश्चय से वह प्रभु (ऊर्ध्व: सुष्टा:) = ऊपर [ascertained-obtained, certain knowl edge of] ज्ञात होते हैं-ऊपर द्युलोक के एक-एक पिण्ड में प्रभु की महिमा प्रकट होती है। (तिर्यक् नुसृष्टा:) = निश्चय से एक किनारे से दूसरे किनारे तक [तिर्यक्-crosswise] उस प्रभु का निश्चय होता है। कहीं देखो, सर्वत्र उस प्रभु की महिमा दिखती है। (सर्वाः दिश:) = सब दिशाओं में (पुरुषः आबभूव) = वह पुरुष व्यास हो रहा है। ('यस्येमे हिमवन्तो महित्वा यस्य समुद्रं रसया सहाहुः'-'पर्वत, समुद्र, पृथिवी') = सब उस प्रभु की महिमा का प्रतिपादन कर रहे हैं। २. (य:) = [यम् उ] संयमी पुरुष ही (ब्रह्मण: पुरं वेद) = ब्रह्म की इस नगरी को जान पाता है, (यस्याः पुरुषः उच्यते) = जिस कारण से ये ब्रह्म पुरुष कहलाते हैं-'पुरि वसति'-पुरी में रहनेवाले हैं। ब्रह्माण्ड प्रभु का पुर है, इसमें वे प्रभु सर्वत्र व्याप्त हो रहे हैं।
भावार्थ -
वे प्रभु ऊपर युलोक के पिण्डों में अपनी महिमा से प्रकट हो रहे हैं। एक सिरे से दूसरे सिरे तक सम्पूर्ण अन्तरिक्ष में प्रभु की महिमा प्रकट है। सब दिशाओं में वे व्याप्त हो रहे हैं। संयमी पुरुष ही उस ब्रह्म की ब्रह्माण्डरूप पुरी को जान पाता है। इस पुरी में निवास के कारण ही तो प्रभु 'पुरुष' कहलाते हैं।
सूचना -
यहाँ 'सृष्टाः३' आदि में विचार्यमाणानाम्' इस सूत्र से 'टि' को प्लुत हुआ है।
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