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  • यजुर्वेद - अध्याय 16/ मन्त्र 48
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - आर्षी जगती स्वरः - निषादः
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    इ॒मा रु॒द्राय॑ त॒वसे॑ कप॒र्दिने॑ क्ष॒यद्वी॑राय॒ प्र भ॑रामहे म॒तीः। यथा॒ श॑मसद् द्वि॒पदे॒ चतु॑ष्पदे॒ विश्वं॑ पु॒ष्टं ग्रामे॑ऽअ॒स्मिन्न॑नातु॒रम्॥४८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒माः। रु॒द्राय॑। त॒वसे॑। क॒प॒र्दिने॑। क्ष॒यद्वी॑रा॒येति॑ क्ष॒यत्ऽवी॑राय। प्र। भ॒रा॒म॒हे॒। म॒तीः। यथा॑। श॒म्। अ॒स॒त्। द्वि॒पद॒ इति॑ द्वि॒ऽपदे॑। चतु॑ष्पदे। चतुः॑पद॒ इति॒ चतुः॑ऽपदे। विश्व॑म्। पु॒ष्टम्। ग्रामे॑। अ॒स्मिन्। अ॒ना॒तु॒रम् ॥४८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमा रुद्राय तवसे कपर्दिने क्षयद्वीराय प्रभरामहे मतीः । यथा शमसद्द्विपदे चतुष्पदे विश्वम्पुष्टङ्ग्रामेऽअस्मिन्ननातुरम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इमाः। रुद्राय। तवसे। कपर्दिने। क्षयद्वीरायेति क्षयत्ऽवीराय। प्र। भरामहे। मतीः। यथा। शम्। असत्। द्विपद इति द्विऽपदे। चतुष्पदे। चतुःपद इति चतुःऽपदे। विश्वम्। पुष्टम्। ग्रामे। अस्मिन्। अनातुरम्॥४८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 16; मन्त्र » 48
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - हे शत्रूंना ताडना करून रडविणार्‍या वीर माणसा, (यथा) ज्यायोगे (अस्मिन्) या (ग्रामे) ब्रह्मांडसमूहात (सर्व जण) (अनातुरम्) दु:खापासून मुक्त होऊन (पुष्टम्) पुष्ट व बलवान होऊन (विश्वम्) सर्व जग (शम्) सुखी (असत्) होईल (अशी सत्कृत्ये तू नेहमी करीत जा) तसेच आम्ही (सर्व नागरिकांनी) (द्विपदे) मनुष्य आदी द्विपाद प्राण्यांना आणि (चतुष्पदे) गौ आदी चतुष्पाद प्राण्यांना (तवसे) बलशाली करण्यासाठी आणि (कपर्दिने) ब्रह्मचर्य (ओज व प्राणशक्ती) धारण करण्यासाठी (यत्नशील असावे) (रुद्राय) दुष्टांचा नाश करणार्‍या व (रुद्राय) पापी लोकांना रडविणार्‍या सेनापतीसाठी आम्ही (इमा:) या (मती:) बुद्धिमान लोकांना (सभरामहे) चांगल्या प्रकारे धारण-पोषण करीत आहेत, आमच्याप्रमाणे (हे वीर मनुष्या) तू ही त्या विद्वानांचा आश्रय घे. (राष्ट्रातील नागरिकांनी विद्वानांचा सत्कार, सन्मान करावा व त्यांना कोणत्या प्रकारे अभाव असू नये, हे पहावे. त्याचप्रमाणे वीर क्षत्रियांनी, राजपुरुषांनी देखील याकडे लक्ष द्यावे.) ॥ 48 ॥

    भावार्थ - missing

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