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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 19
    ऋषिः - अत्रिर्ऋषिः देवता - विश्वेदेवा गृहपतयो देवताः छन्दः - भूरिक् आर्षी त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः
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    याँ२ऽआव॑हऽउश॒तो दे॑व दे॒वाँस्तान् प्रेर॑य॒ स्वेऽअ॑ग्ने स॒धस्थे॑। ज॒क्षि॒वासः॑ पपि॒वास॑श्च॒ विश्वेऽसुं॑ घ॒र्मꣳ स्व॒राति॑ष्ठ॒तानु॒ स्वाहा॑॥१९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यान्। आ। अव॑हः। उ॒श॒तः। दे॒व॒। दे॒वान्। तान्। प्र। ई॒र॒य॒। स्वे। अ॒ग्ने॒। स॒धस्थ॒ इति॑ स॒धऽस्थे॑। ज॒क्षि॒वास॒ इति॑ जक्षि॒ऽवासः॑। प॒पि॒वास॒ इति॑ पपि॒ऽवासः॑। च॒। विश्वे॑। असु॑म्। घ॒र्म्मम्। स्वः॑। आ। ति॒ष्ठ॒त॒। अनु॑। स्वाहा॑ ॥१९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    याँ ऽआवह उशतो देव देवाँस्तान्प्रेरय स्वे अग्ने सधस्थे । जक्षिवाँसः पपिवाँसश्च विश्वे सुङ्धर्मँ स्वरातिष्ठतानु स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यान्। आ। अवहः। उशतः। देव। देवान्। तान्। प्र। ईरय। स्वे। अग्ने। सधस्थ इति सधऽस्थे। जक्षिवास इति जक्षिऽवासः। पपिवास इति पपिऽवासः। च। विश्वे। असुम्। घर्म्मम्। स्वः। आ। तिष्ठत। अनु। स्वाहा॥१९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 19
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - हे (देव) दिव्य स्वभाव असणारे अध्यापक, आपण (क्व) आपल्या (अधस्थे) स्थानात (घरात वा विद्यालयात) बसून (यान्) ज्या (उशत:) विद्या आदी सद्गुणांची कामना करणार्‍या (देवान्) विद्वानांना (आ) (अवह:) प्राप्त होतात (शिक्षार्थीजन विद्याध्ययनासाठी तुमच्याकडे येतात) (तान्) त्या जिज्ञासूजनांना (प्र) (ईरय) त्यांच्या त्यांच्या धर्मामध्ये, कर्त्तव्यामध्ये नियुक्तकरा. (त्यांचे मार्गदर्शन करा) हे गृहस्थजनहो, (जक्षिवांस:) भोजन करतांना व (पयिवांस:) पाणी पितांना (सर्व दैनिक जीवन-व्यवहार करीत असतांना) (विश्वे) तुम्ही सर्व जण (स्वाहा) सत्यवाणीद्वारे (धर्मम्) अन्न यज्ञाद्वारे (असुम्) उत्तम बुद्धी व (स्व) आत्यंतिक सुखाला (अनु) (आ) (तिष्ठत) प्राप्त करा आणि सुखी असा ॥19॥

    भावार्थ - भावार्थ - या संसारात जे बालक सदुपदेश देणार्‍या अध्यापकापासून विद्या आणि सद्गुण, सुसंस्कार प्राप्त करतात आणि त्यानुसार सत्यधर्म व सत्यकर्माप्रमाणे वागणारे असतात, तेच सुखभागी होतात, अन्य लोक कदापी नाही. ॥19॥

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