Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 22
    ऋषिः - अत्रिर्ऋषिः देवता - गृहपतयो देवताः छन्दः - भूरिक् साम्नी बृहती,विराट आर्ची बृहती स्वरः - ऋषभः, मध्यमः
    5

    यज्ञ॑ य॒ज्ञं ग॑च्छ य॒ज्ञप॑तिं गच्छ॒ स्वां योनिं॑ गच्छ॒ स्वाहा॑। ए॒ष ते॑ य॒ज्ञो य॑ज्ञपते स॒हसू॑क्तवाकः॒ सर्व॑वीर॒स्तं जु॑षस्व॒ स्वाहा॑॥२२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यज्ञ॑। य॒ज्ञम्। ग॒च्छ॒। य॒ज्ञप॑ति॒मिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिम्। ग॒च्छ॒। स्वाम्। योनि॑म्। ग॒च्छ॒। स्वाहा॑। ए॒षः। ते॒। य॒ज्ञः। य॒ज्ञ॒प॒त॒ इति॑ यज्ञऽपते। स॒हसू॑क्तवाक॒ इति॑ स॒हऽसू॑क्तवाकः। सर्व॑वीर॒ इति॒ सर्व॑ऽवीरः। तम्। जु॒ष॒स्व॒। स्वाहा॑ ॥२२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यज्ञ यज्ञङ्गच्छ यज्ञपतिङ्गच्छ स्वाँयोनिङ्गच्छ स्वाहा । एष ते यज्ञो यज्ञपते सहसूक्तवाकः सर्ववीरस्तञ्जुषस्व स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यज्ञ। यज्ञम्। गच्छ। यज्ञपतिमिति यज्ञऽपतिम्। गच्छ। स्वाम्। योनिम्। गच्छ। स्वाहा। एषः। ते। यज्ञः। यज्ञपत इति यज्ञऽपते। सहसूक्तवाक इति सहऽसूक्तवाकः। सर्ववीर इति सर्वऽवीरः। तम्। जुषस्व। स्वाहा॥२२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 22
    Acknowledgment

    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - हे (यज्ञ) सत्कर्मांचे आचरण करणार्‍या गृहाश्रमी मनुष्या, तू (स्वाहा) सत्य क्रियेने (योग्य पद्धतीने) यज्ञम् विद्वज्जनांच्या सत्काररूप यज्ञाला या गृहाश्रमात (गच्छ) प्राप्त कर (विद्वज्जनांचा आदर-सत्कार करीत जा) (यज्ञपलिम्) तुझ्याप्रमाणे गृहस्थाश्रमधर्म पालन करण्यार्‍या अन्य गृहस्थाच्या संगतीत (गच्छ) जा (स्वाम्) आपल्या (योनिम्) घरात व स्वभावात (गच्छ) गृहाश्रमधर्मरुप यज्ञ करण्याची प्रवृत्ती उत्पन्न (गच्छ) होऊ दे. (यज्ञपते) हे गृहस्थधर्मपालका, (ते) तुझा (एष:) हा जो यज्ञ आहे की जो (सहसूक्तवाक:) ऋक्, यजु:, साम आणि अथर्व वेदाचे तू वेदपाठ करतोस) (सर्ववीर:) ज्यामुळे शरीरात्मबलयुक्त वीर प्राप्त होतात (गृहस्थाश्रमात सर्व मनुष्यांची उत्पती होते आणि त्यामुळे समाज व परिवाराला पराक्रमी वीर पुरुष मिळतात) (यज्ञ:) जो गृहस्थाश्रम उत्तम प्रजेचे रक्षण करण्यासाठी विद्याप्रसाररुप यज्ञ आहे, त्या गृहस्थाश्रमयज्ञाचे तू (स्वाहा) सत्य, विद्या, न्याय आदी सांगणार्‍या वेदोत्त पद्धतीने (जुषस्व) मोठ्या प्रीतीने सेवन कर. ॥22॥

    भावार्थ - भावार्थ - सर्व गृहस्थ पुरुषांनी, प्रजाजनांनी सर्व गृहकार्यें उत्तमप्रकारे संपन्न करावीत राजभक्ती असावी, राजसहाय्य द्यावे आणि उत्तम धर्म मार्गाने गृहस्थाश्रमाचे पालन करावे. त्याचप्रमाणे राजाचेही कर्त्तव्य आहे की त्याने श्रेष्ठ विद्येचा प्रचार करून सर्वांना संतुष्ट करावे. ॥22॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top