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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 117 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 117/ मन्त्र 10
    ऋषिः - कक्षीवान् देवता - अश्विनौ छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ए॒तानि॑ वां श्रव॒स्या॑ सुदानू॒ ब्रह्मा॑ङ्गू॒षं सद॑नं॒ रोद॑स्योः। यद्वां॑ प॒ज्रासो॑ अश्विना॒ हव॑न्ते या॒तमि॒षा च॑ वि॒दुषे॑ च॒ वाज॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒तानि॑ । वा॒म् । श्र॒व॒स्या॑ । सु॒दा॒नू॒ इति॑ सुऽदानू । ब्रह्म॑ । आ॒ङ्गू॒षम् । सद॑नम् । रोद॑स्योः । यत् । वा॒म् । प॒ज्रासः॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । हव॑न्ते । य॒तम् । इ॒षा । च॒ । वि॒दुषे॑ । च॒ । वाज॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एतानि वां श्रवस्या सुदानू ब्रह्माङ्गूषं सदनं रोदस्योः। यद्वां पज्रासो अश्विना हवन्ते यातमिषा च विदुषे च वाजम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एतानि। वाम्। श्रवस्या। सुदानू इति सुऽदानू। ब्रह्म। आङ्गूषम्। सदनम्। रोदस्योः। यत्। वाम्। पज्रासः। अश्विना। हवन्ते। यातम्। इषा। च। विदुषे। च। वाजम् ॥ १.११७.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 117; मन्त्र » 10
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्युदादिजगन्निर्मातृ ब्रह्मैवोपास्यमित्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे सुदानू अश्विना वां युवयोरेतानि श्रवस्या कर्माणि प्रशंसनीयानि सन्त्यतो वां पज्रासो यद्रोदस्योः सदनमाङ्गूषं ब्रह्म हवन्ते यच्च युवां यातं तस्य वाजमिषा च विदुषे सम्यक् प्रापयतम् ॥ १० ॥

    पदार्थः

    (एतानि) कर्माणि (वाम्) युवयोः (श्रवस्या) श्रवस्स्वन्नादिषु साधूनि (सुदानू) शोभनदानशीलौ (ब्रह्म) सर्वज्ञं परमेश्वरम् (आङ्गूषम्) अङ्गूषाणां विद्यानां विज्ञापकमिदम्। अत्रागिधातोरूषन्ततस्तस्येदमित्यण्। (सदनम्) अधिकरणम् (रोदस्योः) पृथिवीसूर्ययोः (यत्) (वाम्) युवयोः (पज्रासः) विज्ञापयितॄणि मित्राणि (अश्विना) (हवन्ते) आददति। हुधातोर्बहुलं छन्दसीति श्लोरभावः। (यावम्) प्राप्नुतम् (इषा) इच्छया (च) प्रयत्नेन योगाभ्यासेन च (विदुषे) प्राप्तविद्याय (च) विद्यार्थिभ्यः (वाजम्) विज्ञानम् ॥ १० ॥

    भावार्थः

    सर्वैर्मनुष्यैः सर्वाधिष्ठानं सर्वोपास्यं सर्वनिर्मातृ ब्रह्म यैरुपायैर्विज्ञायते तैर्विज्ञायान्येभ्योऽप्येवमेव विज्ञाप्याखिलानन्द आप्तव्यः ॥ १० ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब बिजुली आदि पदार्थरूप संसार का बनानेवाला परमेश्वर ही उपासनीय है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (सुदानू) अच्छे दान देनेवाले (अश्विनौ) सभा सेनाधीशो ! (वाम्) तुम दोनों के (एतानि) ये (श्रवस्या) अन्न आदि पदार्थों में उत्तम प्रशंसा योग्य कर्म हैं इस कारण (वाम्) तुम दोनों (पज्रासः) विशेष ज्ञान देनेवाले मित्र जन (यत्) जिस (रोदस्योः) पृथिवी और सूर्य के (सदनम्) आधाररूप (आङ्गूषम्) विद्याओं के ज्ञान देनेवाले (ब्रह्म) सर्वज्ञ परमेश्वर को (हवन्ते) ध्यान मार्ग से ग्रहण करते (च) और जिसको तुम लोग (यातम्) प्राप्त होते हो उसके (वाजम्) विज्ञान को (इष) इच्छा और (च) अच्छे यत्न तथा योगाभ्यास से (विदुषे) विद्वान् के लिये भलीभाँति पहुँचाओ ॥ १० ॥

    भावार्थ

    सब मनुष्यों को चाहिये कि सबका आधार, सबको उपासना के योग्य, सबका रचनेहारा ब्रह्म जिन उपायों से जाना जाता है, उनसे जान औरों के लिये भी ऐसे ही जनाकर पूर्ण आनन्द को प्राप्त होवें ॥ १० ॥

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    विषय

    प्राणसाधना के तीन लाभ

    पदार्थ

    १. हे (सुदानू) = [दाप् लवने , दैप शोधने] उत्तमता से बुराइयों का खण्डन और जीवन का शोधन करनेवाले (अश्विना) = प्राणापानो ! (वाम्) = आप दोनों के (एतानि) = ये (श्रवस्या) = प्रशंसनीय व कीर्तनीय कर्म हैं - [क] आपकी साधना चलने पर (ब्रह्म) = प्रभु का स्तोत्र (अङ्गूषम्) = [आघोषणीयम्] घोषणा के योग्य होता है , अर्थात् प्राणायाम के द्वारा प्राणों की साधना करने पर हमारी प्रकृति प्रवणता समाप्त होती है और हम प्रभु - प्रवण बन पाते हैं । हममें स्वभावतः प्रभु - स्तोत्रों के उच्चारण की वृत्ति जागती है और हम इन स्तोत्रों में रस अनुभव करने लगते हैं । [ख] आपकी साधना का दूसरा परिणाम यह होता है कि (रोदस्योः) = द्यावापृथिवी का (सदनम्) = हममें निवास होता है । द्यावा , अर्थात् मस्तिष्क और पृथिवी , अर्थात् शरीर दोनों ही उत्तम बनते हैं । मस्तिष्क द्युलोक की भाँति ब्रह्मज्ञान के सूर्य तथा विज्ञान के नक्षत्रों से चमकता है तो शरीर पृथिवी की भाँति दृढ़ होता है और [प्रथ विस्तारे] विस्तृत शक्तियोंवाला बनता है । २. उल्लिखित दो बातों के अतिरिक्त (यत्) = जब (वाम्) = आप दोनों को (पज्रासः) = [पद् - पज्] गतिशील और गतिशीलता के कारण शक्तिशाली आङ्गिरस लोग (हवन्ते) = पुकारते हैं तब आप (इषा) = प्रेरणा के साथ (यातम्) = उन्हें प्राप्त होते हो , अर्थात् प्राणायाम से हृदय के शुद्ध होने पर उन्हें प्रभु की प्रेरणा सुनाई पड़ती है (च) = और (विदुषे) = उस ज्ञानी पुरुष के लिए (च वाजम्) = और शक्ति को आप प्राप्त करा देते हो । प्राणापान की साधना से जहाँ प्रभु की प्रेरणा सुन पड़ती है , वहाँ उस प्रेरणा को क्रियारूप में लाने के लिए शक्ति की प्राप्ति होती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना के तीन लाभ हैं - [क] हम प्रभुस्तवन की प्रवृत्तिवाले बनते हैं , [ख] हमारा मस्तिष्क उज्ज्वल व शरीर दृढ़ होता है , [ग] प्रभु - प्रेरणा सुन पड़ती है और उस प्रेरणा को क्रियान्वित करने की शक्ति भी प्राप्त होती है ।

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    विषय

    विद्वान् प्रमुख नायकों तथा स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( सुदानू ) उत्तम दानशील ( अश्विनौ ) ऐश्वर्य के भोक्ता स्त्री पुरुषो ! ( वां ) तुम दोनों के ( एतानि ) ये ( श्रवस्या ) सब कार्य श्रवण करने योग्य, प्रशंसा करने योग्य तथा अन्नादि उत्पादन और प्रदान सम्बन्धी, अथवा यशोजनक या वेदोक्त ज्ञान के अनुसार हों । ( रोदस्योः सदनं ब्रह्म ) सूर्य और पृथिवी का एक मात्र आश्रय वह महान् परम ब्रह्म ही ( आङ्गूषम् ) समस्त विद्याओं का विज्ञापक अनादि गुरु है । और (रोदस्योः) परस्पर उपदेश लेने और देने वाले और एक दूसरे के ऊपर आश्रित सूर्य पृथिवी के समान गुरु शिष्य और स्त्री पुरुष इन दोनों के ( सदनम् ) सब कार्यों का आश्रय भी ( ब्रह्म ) वही परमेश्वर और ज्ञानमय वेद ( आङ्गूषम् ) सब विज्ञानों का विज्ञान कराने हारा है । हे ( अश्विना ) विद्वान् स्त्री पुरुषो ! ( यत् ) क्यों ( पज्रासः ) ज्ञानवान् पुरुष ही ( वां ) आप दोनों को उस ( ब्रह्म वाजं ) परम ब्रह्म और वेद का ज्ञान ( हवन्ते ) उपदेश करते हैं इसलिये आप दोनों ( विदुषे ) विद्वान् पुरुषों को देने के लिये ( इषा च ) अन्न आदि इच्छानुकूल पदार्थों के साथ ( यातम् ) प्राप्त होवो (च) और ( वाजम् ) ज्ञान प्राप्त करो और अन्न का दान करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः–१ निचृत् पंक्तिः । ६, २२ विराट् पंक्तिः। २१, २५, ३१ भुरिक पंक्तिः। २, ४, ७, १२, १६, १७, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। ८, ९, १०, १३-१५, २०, २३ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ५, २४ त्रिष्टुप् ॥ धैवतः ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सर्व माणसांनी सर्वांचा आधार, सर्वांनी उपासना करण्यायोग्य, सर्वांची निर्मिती करणाऱ्या ब्रह्माला ज्या उपायांनी जाणले जाते त्यांना जाणून इतरांनाही असेच जाणवून देऊन पूर्ण आनंद प्राप्त करावा. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, generous divinities of nature and humanity, these are your reputable acts of charity. This is the song of praise for you. The infinite and omniscient lord, Brahma, is the home and sustenance of heaven and earth, whom you and your friends and admirers invoke and worship. Move on, powers of life and light divine, with your will and gifts of food for life and soul and with the vision divine for the man and seeker of knowledge.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    God alone who is the Creator of electricity and the whole world is to be adored is taught in the tenth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O liberal givers, teachers and preachers, These your philanthropic acts are praiseworthy. Therefore please give us the knowledge of Brahma (God) Who is the Support of the sun and the earth and Supreme Teacher of all sciences, Whom all your preceptors and friends also invoke. Give the knowledge of that Supreme Being to all scholars willingly and with the constant practice of Yoga.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अंगूषम्) आंगूषाणां विद्यानां विज्ञापकमिदं (ब्रह्म) अत्र अगिगतेरुषन् ततस्तस्येदमित्यण् = God who is the Supreme Teacher of all sciences. (पञ्चासः) विज्ञापयितृणि मित्रारिण = Teachers and friends. (वाजम्) विज्ञानम् = Knowledge or wisdom.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of all men to know the means by which Brahma (God) who is the support of all, worthy of Adoration by all and creator of the whole world is attained and to teach them to others and thus to attain all Bliss.

    Translator's Notes

    The word आंगूषम् Angoosham is derived from अगि-गतौ गतेस्त्रिस्वर्थेषु अल ज्ञानार्थ ग्रहणम् Among the three meanings of गति the first meaning of knowledge has been taken here. Angoosham is the adjective of Brahma which therefore means as given above. पचास: is from पद-गतौ among the three meanings of गति the first that of knowledge has been taken here in implied causative form लुप्तण्यन्त: It is wrong on the part of Sayana'Sacricharya to interpret it as पत्रासोंऽगिरसां गोबोत्पन्ना यजमानाः sacrifices born in Angirasa family. It simply means learned persons and their preceptors.

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