ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 117/ मन्त्र 19
म॒ही वा॑मू॒तिर॑श्विना मयो॒भूरु॒त स्रा॒मं धि॑ष्ण्या॒ सं रि॑णीथः। अथा॑ यु॒वामिद॑ह्वय॒त्पुर॑न्धि॒राग॑च्छतं सीं वृषणा॒ववो॑भिः ॥
स्वर सहित पद पाठम॒ही । वा॒म् । ऊ॒तिः । अ॒श्वि॒ना॒ । म॒यः॒ऽभूः । उ॒त । स्रा॒मम् । धि॒ष्ण्या॒ । सम् । रि॒णी॒थः॒ । अथ॑ । यु॒वाम् । इत् । अ॒ह्व॒य॒त् । पुर॑म्ऽधिः । आ । अ॒ग॒च्छ॒त॒म् । सी॒म् । वृ॒ष॒णौ॒ । अवः॑ऽभिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
मही वामूतिरश्विना मयोभूरुत स्रामं धिष्ण्या सं रिणीथः। अथा युवामिदह्वयत्पुरन्धिरागच्छतं सीं वृषणाववोभिः ॥
स्वर रहित पद पाठमही। वाम्। ऊतिः। अश्विना। मयःऽभूः। उत। स्रामम्। धिष्ण्या। सम्। रिणीथः। अथ। युवाम्। इत्। अह्वयत्। पुरम्ऽधिः। आ। अगच्छतम्। सीम्। वृषणौ। अवःऽभिः ॥ १.११७.१९
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 117; मन्त्र » 19
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे वृषणौ धिष्ण्याश्विना वां या मह्युत मयोभूरूतिर्नीतिरस्ति तया स्रामं युवां संरिणीथः। अथ यः पुरन्धिर्युवा युवतिमह्वयत्तमिदेवावोभिः सह सीमागच्छतम् ॥ १९ ॥
पदार्थः
(मही) महती (वाम्) युवयोः (ऊतिः) रक्षणादियुक्ता नीतिः (अश्विना) प्रजापालनाधिकृतौ सभासेनेशौ (मयोभूः) मयः सुखं भावयति या सा (उत) (स्रामम्) दुःखप्रदमन्यायम् (धिष्ण्या) धीमन्तौ (सम्) (रिणीथः) हिंस्तम् (अथ) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (युवाम्) द्वौ (इत्) (अह्वयत्) आह्वयेत् (पुरन्धिः) पुष्कलप्रज्ञः (आ) (अगच्छतम्) (सीम्) निश्चये (वृषणौ) (अवोभिः) रक्षणादिभिः ॥ १९ ॥
भावार्थः
राजपुरुषैर्न्यायादन्यायं पृथक्कृत्य धर्मप्रवृत्तान् शरणागतान् संरक्ष्य सर्वतः कृतकृत्यैर्भवितव्यम् ॥ १९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (वृषणौ) सुख वर्षानेवाले (धिष्ण्या) बुद्धिमान् (अश्विना) सभा और सेना में अधिकार पाये हुए जनो ! (वाम्) तुम दोनों की जो (मही) बड़ी (उत) और (मयोभूः) सुख को उत्पन्न करानेवाली (ऊतिः) रक्षा आदि युक्त नीति है उससे (स्रामम्) दुःख देनेवाले अन्याय को (युवाम्) तुम (सं, रिणीथः) भली-भाँति दूर करो (अथ) इसके पीछे जो (पुरन्धिः) अति बुद्धिमान् ज्वान यौवन से पूर्ण स्त्री को (अह्वयत्) बुलावे (इत्) उसी के समान (अवोभिः) रक्षा आदि के साथ (सीम्) ही (आ, अगच्छतम्) आओ ॥ १९ ॥
भावार्थ
राजपुरुषों को चाहिये कि न्याय से अन्याय को अलग कर धर्म में प्रवृत्त, शरण आये हुए जनों को अच्छे प्रकार पाल के सब ओर से कृतकृत्य हों ॥ १९ ॥
विषय
मही , मयोभू , ऊति
पदार्थ
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (वाम्) = आप दोनों का (ऊतिः) = रक्षण (मही) = महान् है (उत) = और (मयोभूः) = कल्याणकारी है तथा हे (धिष्ण्या) = उत्तम बुद्धि को प्राप्त करानेवाले प्राणापानो ! आप (स्रामम्) = व्याधित व विश्लिष्ट अङ्गोंवाले को (संरिणीथः) = संगत अवयववाला करते हो । प्राणसाधना से मनुष्य को उत्तम बुद्धि प्राप्त होती है और वह संसार के पदार्थों का ठीक प्रयोग करता हुआ विकृत अवयव नहीं बनता , उसके सब अङ्गों की शक्ति ठीक बनी रहती है । २. (अथ) = अब (पुरन्धिः) = पूरक व पालक बुद्धिवाली गृहिणी (युवाम् इत्) = आपको ही (अह्वयत्) = पुकारती है । एक उत्तम गृहिणी घर में सबके लिए प्राणसाधना का नियम बनाती है , जिससे सबकी बुद्धि ठीक रहे और सब अपने कार्यों को ठीकरूप से करनेवाले हों । ३. हे (वृषणौ) = शक्तिशाली प्राणापानो ! आप (सीम्) = निश्चय से (अवोभिः) = रक्षणों के साथ (आगच्छतम्) = प्राप्त होओ । प्राणसाधना से शरीर में रोगों के आने की भी आशंका न रहेगी और सब व्यक्ति दीर्घजीवी होंगे । इस प्रकार प्राणापान से किया जानेवाला रक्षण सचमुच महान् और कल्याणकारक है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से शरीर सुरक्षित रहता है , इसमें विकृति नहीं आती । यह साधना बुद्धि को भी ठीक रखती है ।
विषय
सौ मेषों का रहस्य ऋज्राश्व की कथा का रहस्य।
भावार्थ
हे ( अश्विना ) समस्त राज्य, ऐश्वर्य और गृहस्थ के सुखों को भोगने वाले प्रमुख स्त्री पुरुषो ! ( वाम् ) आप दोनों की (मही ऊतिः) बड़ी भारी रक्षणशक्ति, ( मयोभूः ) प्रजा को सुख प्रदान करने वाली होती है । आप दोनों ( घिष्ण्या ) बुद्धिमान् होकर ( स्रामं ) त्रुटिभाग को ( सं रिणीथः ) सुसंगत कर दिया करो । ( अथ ) और ( पुरन्धिः ) पुर अर्थात् राष्ट्र या नगर को धारण करने वाला तथा पालन पोषण करने की शक्ति, कर्म और प्रज्ञा वाला राजा या विद्वान् पुरुष ( इदं ) इस प्रकार आप दोनों को ( अह्वयत् ) उपदेश करे कि ( युवाम् ) तुम दोनों ( अवोभिः ) अपने रक्षण और ज्ञान सामय से ( सम् अगच्छतम् ) सुसंगत होकर रहो, परस्पर मिलकर रहो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः–१ निचृत् पंक्तिः । ६, २२ विराट् पंक्तिः। २१, २५, ३१ भुरिक पंक्तिः। २, ४, ७, १२, १६, १७, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। ८, ९, १०, १३-१५, २०, २३ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ५, २४ त्रिष्टुप् ॥ धैवतः ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
राजपुरुषांनी न्यायाला अन्यायापासून पृथक करून शरण आलेल्या धर्मप्रवृत्त लोकांचे चांगल्या प्रकारे पालन करावे व सर्व प्रकारे कृतकृत्य व्हावे. ॥ १९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, heroes wise and brave, great, soothing and inspiring is your presence and protection. Shatter the injustice, release the lame and the disabled to freedom. And then the very spirit of wisdom and the nation would call upon you: come like the breath of fresh air with favours and fulfilment and be here for life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Ashvins (President of the Council of Ministers and Chief Commander of the Army) you who are showerers of happiness and engaged in the protection of the subjects) your great powerful protective policy is the source of happiness and joy. O wise men, drive away all injustice that is the cause of suffering. As an intelligent youthful husband calls his young wife with love, so we invoke you lovingly. Please do come with your protective powers.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(स्त्रामम् ) दुःखप्रदमन्यायम् = Injustice that causes misery or suffering. (रिणीथः) हिस्तम् = Destroy. (री-गति रेषणयो: क्रया० रिष -हिंसायाम् ) Tr.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The officers of the State should separate or sift injustice from justice, should protect from all sides righteous persons who approach them in difficulties and should have true satisfaction, having discharged their duties properly.
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