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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 117 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 117/ मन्त्र 13
    ऋषिः - कक्षीवान् देवता - अश्विनौ छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यु॒वं च्यवा॑नमश्विना॒ जर॑न्तं॒ पुन॒र्युवा॑नं चक्रथु॒: शची॑भिः। यु॒वो रथं॑ दुहि॒ता सूर्य॑स्य स॒ह श्रि॒या ना॑सत्यावृणीत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒वम् । च्यवा॑नम् । अ॒श्वि॒ना॒ । जर॑न्तम् । पुनः॑ । युवा॑नम् । च॒क्र॒थुः॒ । शची॑भिः । यु॒वोः । रथ॑म् । दु॒हि॒ता । सूर्य॑स्य । स॒ह । श्रि॒या । ना॒स॒त्या॒ । अ॒वृ॒णी॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युवं च्यवानमश्विना जरन्तं पुनर्युवानं चक्रथु: शचीभिः। युवो रथं दुहिता सूर्यस्य सह श्रिया नासत्यावृणीत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युवम्। च्यवानम्। अश्विना। जरन्तम्। पुनः। युवानम्। चक्रथुः। शचीभिः। युवोः। रथम्। दुहिता। सूर्यस्य। सह। श्रिया। नासत्या। अवृणीत ॥ १.११७.१३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 117; मन्त्र » 13
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्युवाऽवस्थायामेव विवाहकरणाऽवश्यकत्वमाह ।

    अन्वयः

    हे नासत्याऽश्विना युवं शचीभिः सह वर्त्तमानान् स्वसन्तानान् सम्यग् यूनश्चक्रथुः। पुनर्युवोर्युवयोर्युवतिः सूर्यस्योषा इव दुहिता श्रिया सह वर्त्तमानं च्यवानं जरन्तं युवानं रथं पतिं चावृणीत। पुत्रोऽपि युवा सन् युवतिं च ॥ १३ ॥

    पदार्थः

    (युवम्) युवाम् (च्यवानम्) गच्छन्तम् (अश्विना) शरीरात्मबलयुतौ (जरन्तम्) स्तवानम् (पुनः) (युवानम्) संपादितयौवनम् (चक्रथुः) कुरुतम् (शचीभिः) प्रज्ञाभिः कर्मभिर्वा (युवोः) (रथम्) रमणीयं पतिम् (दुहिता) पूर्णयुवतिः कन्या (सूर्यस्य) सवितुरुषा इव (सह) (श्रिया) लक्ष्म्या शोभया विद्यया सेवया वा (नासत्या) (अवृणीत) वृणुयात् ॥ १३ ॥

    भावार्थः

    अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। मातापित्रादीनामतीव योग्यमस्ति यदा स्वापत्यानि पूर्णसुशिक्षाविद्याशरीरात्मबलरूपलावण्यशीलारोग्य-धर्मेश्वरविज्ञानादिभिः शुभेर्गुणैः सह वर्त्तमानानि स्युस्तदा स्वेच्छापरीक्षाभ्यां स्वयंवरविधानेनाभिरूपौ तुल्यगुणकर्मस्वभावौ पूर्णयुवावस्थौ बलिष्ठौ कुमारौ विवाहं कृत्वर्त्तुं गामिनौ भूत्वा धर्मेण वर्त्तित्वा प्रजाः सूत्पादयेतामित्युपदेष्टव्यानि नह्येतेन विना कदाचित् कुलोत्कर्षो भवितुं योग्योऽस्तीति तस्मात् सज्जनैरेवमेव सदा विधेयम् ॥ १३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर जवान अवस्था ही में विवाह करना अवश्य है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (नासत्या) सत्य वर्त्ताव वर्त्तनेवाले (अश्विना) शरीर और आत्मा के बल से युक्त सभासेनाधीशो ! (युवम्) तुम दोनों (शचीभिः) अच्छी बुद्धियों वा कर्मों के साथ वर्त्तमान अपने सन्तानों को भली-भाँति सेवा कर ज्वान (चक्रथुः) करो (पुनः) फिर (युवोः) तुम दोनों की युवती अर्थात् यौवन अवस्था को प्राप्त (सूर्यस्य) सूर्य की किई हुई प्रातःकाल की वेला के समान (दुहिता) कन्या (श्रिया) धन, शोभा, विद्या वा सेवा के (सह) साथ वर्त्तमान (च्यवानम्) गमन और (जरन्तम्) प्रशंसा करनेवाले (युवानम्) ज्वानी से परिपूर्ण (रथम्) रमण करने योग्य मनोहर पति को (अवृणीत) वरे और पुत्र भी ऐसा ज्वान होता हुआ युवति स्त्री को वरे ॥ १३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। माता-पिता आदि को अतीव योग्य है कि जब अपने सन्तान पूर्ण अच्छी सिखावट, विद्या, शरीर और आत्मा के बल, रूप, लावण्य, स्वभाव, आरोग्यपन, धर्म और ईश्वर को जानने आदि उत्तम गुणों के साथ वर्त्ताव रखने को समर्थ हों तब अपनी इच्छा और परीक्षा के साथ आप ही स्वयंवर विधि से दोनों सुन्दर समान गुण, कर्म, स्वभावयुक्त पूरे ज्वान, बली, लड़की-लड़के विवाह कर ऋतु समय में साथ का संयोग करनेवाले होकर, धर्म के साथ अपना वर्त्ताव वर्त्तकर प्रजा अर्थात् सन्तानों को अच्छे उत्पन्न करें, यह उपदेश देने चाहियें। विना इसके कभी कुल की उन्नति होने के योग्य नहीं है, इससे सज्जन पुरुषों को ऐसा ही सदा करना चाहिये ॥ १३ ॥

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    विषय

    जरन् को युवा बनाना

    पदार्थ

    १. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (युवम्) = आप दोनों (च्यवानम्) = जिसकी शक्ति क्षरित हो गई है [च्युतिर् क्षरणे] , उस (जरन्तम्) = जीर्ण हो गये व्यक्ति को (पुनः) = फिर (शचीभिः) = प्रज्ञानों व शक्तियों से (युवानं चक्रथुः) = युवा कर देते हो । प्राणसाधना से शक्तियों का रक्षण होकर मनुष्य युवा बन जाता है । २. हे (नासत्या) = सब असत्यों को दूर करनेवाले प्राणापानो ! (युवोः रथम्) = आप दोनों के इस शरीर - रथ को (श्रिया सह) = श्री के साथ (सूर्यस्य दुहिता) = सूर्य की दुहिता (अवृणीत) = वरती है । जब हम प्राणायाम के द्वारा प्राणसाधना में चलते है तो हमारा यह शरीर रथ प्राणापान का रथ कहलाता है । यह रथ श्रीसम्पन्न बनता है और उषा इस रथ का वरण करती है , अर्थात् इसे सब प्रकार के दोषों से शून्य [उष दाहे] कर देती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना जीर्ण को युवा बनाती है । शरीर रथ को श्रीसम्पन्न बनाती है और इसके दोषों का दहन कर देती है ।

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    विषय

    विद्वान् प्रमुख नायकों तथा स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( अश्विना ) शरीर और आत्मा के बल से युक्त, अश्व के समान हृष्ट पुष्ट युवा स्त्री पुरुषो ! ( युवं ) आप दोनों ( च्यवानं ) ज्ञान प्राप्त करने वाले (जरन्तम्) उपदेश प्राप्त करते हुए बालक को (शचीभिः) विद्या और कर्मों के उपदेशों से ( युवानं चक्रथुः ) युवा, जवान करो । तब हे ( नासत्या ) हे सदा सत्य स्वभाव के स्त्री पुरुषो ! (सूर्यस्य दुहिता) उत्तम तेजस्वी उत्पादक पिता की पुत्री ( युवोः ) तुम दोनों के बीच में ( त्रिया सह ) अति शोभा के सहित ( रथं ) रमण योग्य पति को ( अवृणीत ) वरण करे । [ २ ] हे ( अश्विना नासत्या ) प्रमुख न्यायकारी नायक पुरुषो ! आप दोनों ( च्यवानं ) शत्रु को संग्राम में पराजित करने वाले आज्ञापक, युवा बलवान् पुरुष को (शचीभिः युक्तं चक्रथुः) शक्तियों और अधिकारों से युक्त करो । ( सूर्यस्य दुहिता ) सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष को सब ऐश्वर्यो को दोहन या पूर्ण करने वाली पृथ्वी निवासिनी प्रजा अपनी (श्रिया सह) राज्य समृद्धि सहित ( रथम् ) महारथ पुरुष को अपना स्वामी ( अवृणीत ) वरण करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः–१ निचृत् पंक्तिः । ६, २२ विराट् पंक्तिः। २१, २५, ३१ भुरिक पंक्तिः। २, ४, ७, १२, १६, १७, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। ८, ९, १०, १३-१५, २०, २३ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ५, २४ त्रिष्टुप् ॥ धैवतः ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात लुप्तोपमालंकार आहे. माता-पिता जेव्हा आपल्या संतानांना पूर्ण चांगली शिकवण, विद्या, शरीर व आत्मा यांचे बल, रूप, लावण्य, स्वभाव, आरोग्य, धर्म, ईश्वराची जाण इत्यादी गुणांसह वर्तन ठेवण्यास समर्थ करतील तेव्हा स्वेच्छेने व परीक्षेद्वारे सुंदर, समान गुण, कर्म स्वभावयुक्त, पूर्ण तारुण्ययुक्त बलवान मुला-मुलींनी स्वयंवर विधीने विवाह करावा. ऋतूकाळी संयोग करून धार्मिक आचरण करून चांगले संतान उत्पन्न करा असा त्यांना उपदेश द्यावा. याशिवाय कुलाची उन्नती होत नाही. त्यासाठी सज्जन माणसांनी सदैव याप्रमाणे वागावे. ॥ १३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, lovers of truth and masters of the currents of natural energy, by your noble and creative acts you rejuvenate Chyavana, man of dynamic living and prayerful culture but ageing and declining in energy, and you return him to his youth again, and the Dawn, daughter of the sun chooses you and rides your chariot in your company in all her beauty and grandeur.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The necessity of marriage in youth only is told in the 13th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O absolutely truthful and persons endowed with physical and spiritual power, you should make your sons full of youth, endowing them with good intellect and power of action. Your youthful learned daughter who is charming and full of splendor and beauty like the Dawn the Daughter of the sun, should select a husband who is devoted to God and admirer of good men and charming on account of his noble virtues. Your young sons also should select for wedlock young learned and virtuous girls.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (जरन्तम्) स्तवानम् = Praising God and admiring noble men. (च्यवानम्) गच्छन्तम् = Going about or active. (रथम्) रमणीयं पतिम् = Charming husband. (श्रिया) लक्ष्म्या, शोभया विद्यया सेवया च = By wealth, beauty, knowledge and the spirit of service.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of parents to tell their sons when they are endowed with thoroughly good education, wisdom, physical and spiritual power, beauty, good character and temperament, health and knowledge of Dharma and good virtues that they should marry with their free will or of their own accord and after proper test, according to the injunctions of selection of suitable match strong and young and after marriage observing self restraint. they should beget good progeny. There can not be true progress of the family line without it. Therefore all good people should do likewise.

    Translator's Notes

    (जरन्तम् ) is derived from जरति अर्चति कर्मा (निघ० ३.१ ) जरिता स्तोतृनाम (निघ० ३.१६) च्यवानम् is from च्युङ् गतौ भ्वा. hence the meaning given by Rishi Dayananda as गच्छन्तम् or going about, active. श्रिया is from श्रिञ्-सेवायाम् hence the meaning of सेवया or with the spirit of service in Rishi Dayananda's Commentary. What a world of difference between interpretation based upon the Vedic Lexicon-Nighantu and Dhatu path and the (श्रिया) लक्ष्म्या, शोभया विद्यया सेवया च = By wealth, beauty knowledge and the spirit of service.

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