ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 117/ मन्त्र 16
अजो॑हवीदश्विना॒ वर्ति॑का वामा॒स्नो यत्सी॒ममु॑ञ्चतं॒ वृक॑स्य। वि ज॒युषा॑ ययथु॒: सान्वद्रे॑र्जा॒तं वि॒ष्वाचो॑ अहतं वि॒षेण॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअजो॑हवीत् । अ॒श्वि॒ना॒ । वर्ति॑का । वा॒म् । आ॒स्नः । यत् । सी॒म् । अमु॑ञ्चतम् । वृक॑स्य । वि । ज॒युषा॑ । य॒य॒थुः॒ । सानु॑ । अद्रेः॑ । जा॒तम् । वि॒ष्वाचः॑ । अ॒ह॒त॒म् । वि॒षेण॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अजोहवीदश्विना वर्तिका वामास्नो यत्सीममुञ्चतं वृकस्य। वि जयुषा ययथु: सान्वद्रेर्जातं विष्वाचो अहतं विषेण ॥
स्वर रहित पद पाठअजोहवीत्। अश्विना। वर्तिका। वाम्। आस्नः। यत्। सीम्। अमुञ्चतम्। वृकस्य। वि। जयुषा। ययथुः। सानु। अद्रेः। जातम्। विष्वाचः। अहतम्। विषेण ॥ १.११७.१६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 117; मन्त्र » 16
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे अश्विना वर्त्तिका सेना यत् सीं वामजोहवीत् तदा तां वृकस्यास्न इव शत्रुमण्डलादमुञ्चतम्। युवां जयुषा निजरथेनाद्रेः सानु वि ययथुः। विष्वाचो जातं बलं विषेणाहतं च ॥ १६ ॥
पदार्थः
(अजोहवीत्) भृशमाह्वयेत् (अश्विना) सद्यो यातारौ (वर्त्तिका) संग्रामे प्रवर्त्तमाना (वाम्) युवाम् (आस्नः) आस्यात् (यत्) यदा (सीम्) खलु (अमुञ्चतम्) मोचयतम् (वृकस्य) वन्यस्य शुनः (वि) (जयुषा) जयप्रदेन (ययथुः) यातम् (सानु) शिखरम् (अद्रेः) शैलस्य (जातम्) प्रसिद्धमुत्पन्नबलम् (विष्वाचः) विविधगतिमतः शत्रुमण्डलस्य (अहतम्) हन्यातम् (विषेण) विपर्ययकरेण निजबलेन ॥ १६ ॥
भावार्थः
राजपुरुषा यथा बलवान् दयालुः शूरवीरो व्याघ्रमुखादजां निर्मोचयति तथा दस्युभयात् प्रजाः पृथग्रक्षेयुः। यदा शत्रवः पर्वतेषु वर्त्तमाना हन्तुमशक्याः स्युस्तदा तदन्नपानादिकं विदूष्य वशं नयेयुः ॥ १६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (अश्विना) शीघ्र जानेहारे सभासेनाधीशो ! (वर्त्तिका) संग्राम में वर्त्तमान सेना (यत्सीम्) जिसी समय (वाम्) तुम दोनों को (अजोहवीत्) निरन्तर बुलावे तब उसको (वृकस्य) भेड़िया के (आस्नः) मुख से जैसे वैसे शत्रुमण्डल से (अमुञ्चतम्) छुड़ावो अर्थात् उसको जीतो और अपनी सेना को बचाओ, तुम दोनों (जयुषा) जय देनेवाले अपने रथ से (अद्रेः) पर्वत के (सानु) शिखर को (वि, ययथुः) विविध प्रकार जाओ और (विष्वाचः) विविध गतिवाले शत्रुमण्डल के (जातम्) उत्पन्न हुए बल को (विषेण) उसका विपर्य्यय करनेवाले विषरूप अपने बल से (अहतम्) विनाशो नष्ट करो ॥ १६ ॥
भावार्थ
राजपुरुष जैसे बलवान् दयालु शूरवीर बघेले के मुख से छेरी को छुड़ाता है, वैसे डाकुओं के भय से प्रजाजनों को अलग रक्खें। जब शत्रुजन पर्वतों में वर्त्तमान मारे नहीं जा सकते हों तब उनके अन्न-पान आदि को विदूषित कर उनको वश में लावें ॥ १६ ॥
विषय
वृक के मुख से वर्तिका की मुक्ति
पदार्थ
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! जब (वर्तिका) = वर्तिका जीवनचर्या [वृत्ति] (वाम्) = आप दोनों की (अजोहवीत्) = प्रार्थना व आराधना करती है (यत्) = तब आप (वृकस्य) = वृक के (अस्नः) = मुख से इस वर्तिका को (सीम्) = निश्चयपूर्वक (अमुञ्चतम्) = मुक्त करते हैं । वर्तिका का अभिप्राय अपने दैनिक कार्यों में वर्तन है - ‘प्रातः उठना , नित्य कर्मों में लगना , स्वास्थ्य के लिए आवश्यक कर्मों के साथ सन्ध्या व स्वाध्याय आदि करना’ - ये सब प्रतिदिन के नित्य कर्म कहाते हैं । इनमें प्रवृत्त होना ही वर्तिका है , परन्तु जब मनुष्य लोभाभिभूत होकर धन कमाने में उलझ जाता है तब ये सब कार्य गौण हो जाते हैं । सन्ध्या और स्वाध्याय तो समाप्त ही हो जाते हैं । इस बात को काव्यमयी भाषा में इस प्रकार कहते हैं कि इसकी वर्तिका को तो वृक ने [वृक आदाने] धनग्रहण की वृत्ति ने निगल ही लिया । प्राणसाधना होने पर वृत्ति शुद्ध बनती है , मनुष्य लोभाभिभूत नहीं रहता , उसके सन्ध्या - स्वाध्याय आदि सब कार्य ठीक से होने लगते हैं । यही वृक के मुख से वर्तिका की मुक्ति है । २. इस प्रकार हे प्राणापानो ! आप (जयुषा) = इस विजयशील रथ से (अद्रेः सानु) = उन्नति - पर्वत के शिखर पर (विययथुः) = जाते हो । प्राणसाधना से लोभादि की अशुभ वृत्तियों नष्ट होकर हमारे जीवन में शुभ वृत्तियों जागती हैं और हम दिन - प्रतिदिन उन्नति करते हुए उन्नति - पर्वत के शिखर पर पहुँचनेवाले बनते हैं । ३. हे प्राणापानो ! इस प्रकार आप (विश्वाचः) = इस विविध गतियुक्त पुरुष के - सब दैनिक कार्यों को ठीक से करनेवाले पुरुष के (जातम्) = विकास को (विषेण) = विषयरूप विष से (अहतम्) = नष्ट नहीं होने देते [न हतम् - अहतम्] । लोभाक्रान्त होने पर दैनिक कार्यक्रम विलुप्त हो जाता है और मनुष्य की उन्नति रुक जाती है । प्राणसाधना मनुष्य को इन प्रलोभनों से ऊपर उठाकर , अपने कार्यक्रम को ठीक प्रकार से करनेवाले पुरुष को उन्नति - पथ पर ले - जाती है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से हम लोभ में न फँसेंगे और अपने नियमित कार्यों को ठीक प्रकार करते हुए पूर्ण विकास को प्राप्त करेंगे ।
विषय
विद्वान् प्रमुख नायकों तथा स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।
भावार्थ
हे ( अश्विना ) सेना और सभा के मुख्य अध्यक्ष पुरुषो ! ( वृकस्य आस्नः ) भेड़िये के मुख से जिस प्रकार कोई दयालु पुरुष बटेरी छुड़ा दे उसी प्रकार भेड़िये के स्वभाव वाले प्रजाभक्षक शासक के ( आस्त्रः ) मुख या भक्षण कर जाने वाले रक्त शोषक उपायों से आप दोनों ( यत् ) जब २ भी प्रजागण को ( अमुञ्चतम् ) छुड़ाते हो तब २ वह प्रजा ( वर्त्तिका ) सुख से व्यवहार और व्यापार से रहने वाली या उद्योग धन्धों से जीने वाली प्रजा आप दोनों को ( अजोहवीत् ) उत्तम नामों से पुकारती है । और आप दोनों ( जयुषा ) विजयशील स्थादि साधन से तथा शत्रु जयकारी उपाय से ( अद्रेः सानु ) पर्वत के शिखर के समान ऊंचे से ऊंचे पद तक ( वि ययथुः ) विशेष प्रकार से पहुंचते हो । और तब ( विश्वाचः ) सब तरफ फैली शत्रु सेना के ( जातम् ) रक्खे पदार्थों के ( विषेण ) विष के समान घातक और दूषक पदार्थ से तथा ( विष्वाचः ) विविध दिशाओं में फैले प्रजाजन के ( जातम् ) प्रत्येक पदार्थ या बच्चे २ तक को (विषेण) अपने व्यापक राज्य प्रबन्ध से (अहतम्) प्राप्त होते हो । उसको अपने वश कर लेते हो । ( २ ) वर्त्तिका नाम उषा को दिन और रात्रि दोनों ( वृकस्य ) विशेष दीप्ति वाले सूर्य के मुख से पृथक् करते हैं ( अद्रेः सानु ) उदयाचल के शिखर पर प्रतिदिन विजयशील, प्रमुख रथ या स्वरूप से जाते हैं । ( विश्वाचः ) विविध देशों में व्याप्त अन्धकार के ( जातं ) प्रभाव को ( विषेण ) व्यापक तेज से ( अहतम् ) विनष्ट करते हैं । ( ३ ) इसी प्रकार वृक स्वभाव से तुम माता पिता अपनी सुवृत्त, शीलसम्पन्न पति के अधीन रहनेवाली कन्या को बचाओ । ऐसी ( वर्त्तिका वाम् अजोहवीत् ) वह कन्या तुम से प्रार्थना करती है । अपने विजयी रथ से पर्वत के उच्च शिखर तक चढ़ा मेव जिस प्रकार से जल से सब पदार्थों पर बरसता है उसी प्रकार ( विषेण ) व्यापन गुण ( विश्वाचः ) सब देशों के पुरुषों को मिल जावो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः–१ निचृत् पंक्तिः । ६, २२ विराट् पंक्तिः। २१, २५, ३१ भुरिक पंक्तिः। २, ४, ७, १२, १६, १७, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। ८, ९, १०, १३-१५, २०, २३ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ५, २४ त्रिष्टुप् ॥ धैवतः ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जसा बलवान, दयाळू, शूरवीर लांडग्याच्या मुखातून शेळीला सोडवितो तसे राजपुरुषाने डाकूच्या भयापासून प्रजेला वेगळे ठेवावे. जर शत्रू पर्वतीय प्रदेशात राहत असेल तर अन्न पान इत्यादी दूषित करून त्यांना ताब्यात घ्यावे. ॥ १६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, heroes of tempestuous speed and movement, let the army, stuck up, besieged, and helpless as a poor bird, call upon you for help any time which you rescue from the wolfish mouth of the enemy. Mount up to the peak of the mountain by your victory chariot and destroy the advancing army of the enemy with your reinforcements.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of a King are told further in the sixteenth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Ashvins (President of the Assembly and Chief Commander of the army) when an army engaged in battle invokes you, you save her from the mouth of the band of enemies like the quail from the mouth of the wolf by a kindhearted hero. You go to the top of the mountain by your triumphant chariot. With your destructive power, you annihilate the strength of the foes' army.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(वर्तिका) संग्रामे प्रवर्तमाना (सेना) = The army engaged in the battle. (वृत्-वर्तने) Tr. (विष्वाचः) विविधगतिमतः शत्रुमण्डलस्य = Of the band of active and powerful enemies. (विषेण) विपर्ययकरेण निजबलेन = By destructive force or by poison as an alternative meaning.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of the King and the officers of the State to save and protect the subjects from the fear of thieves and robbers, as a kind-hearted hero saves a quail or she goat from the mouth of a wolf. When it seems that to slay the powerful and active foes camping in the hills is impossible, they may be subdued by poisoning their food and water, as the last step.
Translator's Notes
Besides giving the myth of a quail being saved from the mouth of a wolf when she invoked Ashvins, Sayanacharya gives another interpretation following Yaskacharya, according to which by वर्तिका is meant " Dawn” वर्तते प्रतिदिनम् आवर्तते इति वर्तिका उषा: वृक इति विवृतज्योतिष्क: सूर्य उच्यते and by वृक is meant the sun. आदित्योऽपि वृक उच्यते यदा वक्ते (निरुक्ते २.२१ ) This interpretation is better than the Mythical absurd interpretation unless that is taken as figurative or allegorical as Rishi Dayananda Sarasvati has done.
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