ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 117/ मन्त्र 9
पु॒रू वर्पां॑स्यश्विना॒ दधा॑ना॒ नि पे॒दव॑ ऊहथुरा॒शुमश्व॑म्। स॒ह॒स्र॒सां वा॒जिन॒मप्र॑तीतमहि॒हनं॑ श्रव॒स्यं१॒॑तरु॑त्रम् ॥
स्वर सहित पद पाठपु॒रु । वर्पां॑सि । अ॒श्वि॒ना॒ । दधा॑ना । नि । पे॒दवे॑ । ऊ॒ह॒थुः॒ । आ॒शुम् । अश्व॑म् । स॒ह॒स्र॒ऽसाम् । वा॒जिन॑म् । अप्र॑तिऽइतम् । अ॒हि॒ऽहन॑म् । श्र॒व॒स्य॑म् । तरु॑त्रम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
पुरू वर्पांस्यश्विना दधाना नि पेदव ऊहथुराशुमश्वम्। सहस्रसां वाजिनमप्रतीतमहिहनं श्रवस्यं१तरुत्रम् ॥
स्वर रहित पद पाठपुरु। वर्पांसि। अश्विना। दधाना। नि। पेदवे। ऊहथुः। आशुम्। अश्वम्। सहस्रऽसाम्। वाजिनम्। अप्रतिऽइतम्। अहिऽहनम्। श्रवस्यम्। तरुत्रम् ॥ १.११७.९
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 117; मन्त्र » 9
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथात्र तारविद्यामूलमाह ।
अन्वयः
हे अश्विना पुरु वर्पांसि दधाना सन्तौ युवां पेदवे श्रवस्यमप्रतीतं वाजिनमहिहनं सहस्रसामाशुं तरुत्रमश्वं न्यूहथुः ॥ ९ ॥
पदार्थः
(पुरु) बहूनि। शेश्छन्दसीति शेर्लोपः। (वर्पांसि) रूपाणि (अश्विना) शिल्पिनौ (दधाना) धरन्तौ (नि) (पेदवे) गमनाय। पदधातोरौणादिरुः प्रत्ययो वर्णव्यत्ययेनास्यैकारश्च। (ऊहथुः) वाहयतम् (आशुम्) शीघ्रगमकम् (अश्वम्) विद्युदाख्यमग्निम् (सहस्रसाम्) सहस्राण्यसंख्यातानि कर्माणि सतति संभजति तम् (वाजिनम्) वेगवन्तम् (अप्रतीतम्) अदृश्यम् (अहिहनम) मेघस्य हन्तारम् (श्रवस्यम्) श्रवस्यन्ने पृथिव्यादौ भवम् (तरुत्रम्) समुद्रादितारकम् ॥ ९ ॥
भावार्थः
नहीदृशेन सद्योगमकेन विद्युदग्न्यादिना विना देशान्तरं सुखेन शीघ्रं गन्तुमागन्तुं सद्यः समाचारं ग्रहीतुं च कश्चिदपि शक्नोति ॥ ९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब यहाँ तारविद्या के मूल का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ।
पदार्थ
हे (अश्विना) शिल्पीजनो ! (पुरु) बहुत (वर्पांसि) रूपों को (दधाना) धारण किए हुए तुम दोनों (पेदवे) शीघ्र जाने के लिये (श्रवस्यम्) पृथिवी आदि पदार्थों में हुए (अप्रतीतम्) गुप्त (वाजिनम्) वेगवान् (अहिहनम्) मेघ के मारनेवाले (सहस्रसाम्) हजारों कर्मों को सेवन करने (आशुम्) शीघ्र पहुँचानेवाले (तरुत्रम्) और समुद्र आदि से पार उतारनेवाले (अश्वम्) बिजुली रूप अग्नि को (न्यूहथुः) चलाओ ॥ ९ ॥
भावार्थ
ऐसे शीघ्र पहुँचानेवाले बिजुली आदि अग्नि के विना एक देश से दूसरे देश को सुख से जाने-आने तथा शीघ्र समाचार लेने को कोई समर्थ नहीं हो सकता है ॥ ९ ॥
विषय
‘आशु व तरुत्र’ इन्द्रियाश्व
पदार्थ
१.हे (अश्विना) = प्राणापानो ! आप (पुरू वर्पांसि) = पालक व पूरक रूपों को (दधाना) = धारण करते हुए (पेदवे) = [पद् गतौ] गतिशील पुरुष के लिए (अश्वम्) = उस इन्द्रियरूप अश्व को (ऊहथुः) = प्राप्त कराते हो जोकि (आशुम्) = कर्मों में व्याप्त होनेवाला है , अर्थात् प्राणसाधना से इन्द्रियों के मल दूर होकर उनकी कार्यक्षमता बढ़ जाती है । ये प्राण हमें तेजस्वी बनाते हैं । हमारा रूप ओजस्विता से पूर्ण प्रतीत होता है । २. प्राणसाधना उस इन्द्रियाश्व को प्राप्त कराती है जो (सहस्त्रसाम्) = हमें सहस्र संख्याक धनों का प्राप्त करानेवाला है , (वाजिनम्) = शक्तिशाली है , (अप्रतीतम्) = [अ प्रति इतम्] जो शत्रुओं से आक्रान्त नहीं होता , (अहिहनम्) = [आहन्ति] वासनाओं को नष्ट करनेवाला है , (श्रवस्यम्) = वासना - विनाश के द्वारा ज्ञान - साधन के लिए उत्तम है और (तरुत्रम्) = सब विघ्नों को तैर जानेवाला है । इस प्रकार के इन्द्रियाश्वों को प्राप्त करके हम जीवन यात्रा को क्यों न पूर्ण कर सकेंगे !
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना गतिशील को उत्तमरूप प्राप्त कराती है और इन्द्रियाश्वों को शीघ्रता से कर्मों में व्याप्त होनेवाला तथा विघ्नों से तैर जानेवाला बनाती है ।
विषय
विद्वान् प्रमुख नायकों तथा स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।
भावार्थ
हे ( अश्विना ) विद्वान् शिल्पियो ! ( पुरु ) बहुत से ( वर्षांसि ) रूपों या पदार्थो को ( दधाना ) बनाते हुए ( पेदवे ) दूर जाने के लिये ( सहस्रसाम् ) अति बल को धारण करने वाले, ( वाजिनम् ) वेगवान्, ( अप्रतीतम् ) अदृश्य या बेरोक, अतुल्य बल, ( अहिहनम् ) आगे आने वाली रोक अर्थात् डाट [ पिस्टन ] पर धक्का मारने वाले ( श्रवस्यम् ) श्रवण करने योग्य, शब्दकारी ( तरुत्रम् ) दूर तक पहुंचा देने वाले, ( आशुं ) शीघ्रगामी ( अश्वम् ) अश्व अर्थात् अग्नि या विद्युत को ( ऊहथुः ) भगाओ । ( २ ) हे स्त्री पुरुषो ! तुम दोनों नाना प्रकार के रूप या ऐश्वर्यों को धारण करके भी ( पेदवे ) परम पद प्राप्त करने के लिये ( सहस्रसां ) सहस्त्रों उपदेश देने वाले ( वाजिनम् ) ज्ञानवान्, ( अप्रतीतम् ) अति गूढ़, ( अहिहनम् ) अज्ञान नाशक, ( श्रवस्यम् ) वेद ज्ञान में कुशल, ( तरुत्रम् ) संसार से तराने वाले आचार्य और परमेश्वर का ( ऊहथुः ) अवलम्बन करो । उसको अपने सब कार्यों में और हृदय में धारण करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः–१ निचृत् पंक्तिः । ६, २२ विराट् पंक्तिः। २१, २५, ३१ भुरिक पंक्तिः। २, ४, ७, १२, १६, १७, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। ८, ९, १०, १३-१५, २०, २३ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ५, २४ त्रिष्टुप् ॥ धैवतः ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
विद्युत इत्यादी अग्नीशिवाय तात्काळ एका देशाहून दुसऱ्या देशात सुखपूर्वक जाण्यायेण्यासाठी व तात्काळ वार्ता कळण्यासाठी कोणी समर्थ असू शकत नाही. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, harbingers of many things for good and comfortable life, assuming various forms of workers and designers, you give to the traveller and transporter the instant motive power such as electricity, fast, serving a thousand purposes, invisible, present in earth and consumable fuels, breaker of the cloud and capable of crossing the seas.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Ashvins (artisans) you who are beautiful and assume various forms, give for quick movement a horse in the form of electricity which is present on the earth, is accomplisher of innumerable works, powerful, swift, rapid, invisible, destroyer of clouds and taking across the ocean.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(पेदवे) गमनाय पदधातोरौणादिक उप्रत्यय:, वर्णव्यत्ययेनास्येकारश्च (अश्वम्) विद्युदाख्यमग्निम् = Fire in the form of electricity or quick movement. (अप्रतीतम्) अदृश्यम् = Invisible. (श्रवस्यम्) श्रवसि अन्ने पृथिव्यादौ भवम् = Presient on earth etc. (तरुत्रम् ) समुद्रादितारकम् = That takes across the ocean.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is not possible to go to distant countries easily and to get the news soon from distant places without the use of electricity to various steamers and telegraph etc.
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