ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 117/ मन्त्र 2
यो वा॑मश्विना॒ मन॑सो॒ जवी॑या॒न्रथ॒: स्वश्वो॒ विश॑ आ॒जिगा॑ति। येन॒ गच्छ॑थः सु॒कृतो॑ दुरो॒णं तेन॑ नरा व॒र्तिर॒स्मभ्यं॑ यातम् ॥
स्वर सहित पद पाठयः । वा॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ । मन॑सः । जवी॑यान् । रथः॑ । सु॒ऽअश्वः॑ । विशः॑ । आ॒ऽजिगा॑ति । येन॑ । गच्छ॑थः । सु॒ऽकृतः॑ । दु॒रो॒णम् । तेन॑ । न॒रा॒ । व॒र्तिः । अ॒स्मभ्य॑म् । या॒त॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो वामश्विना मनसो जवीयान्रथ: स्वश्वो विश आजिगाति। येन गच्छथः सुकृतो दुरोणं तेन नरा वर्तिरस्मभ्यं यातम् ॥
स्वर रहित पद पाठयः। वाम्। अश्विना। मनसः। जवीयान्। रथः। सुऽअश्वः। विशः। आऽजिगाति। येन। गच्छथः। सुऽकृतः। दुरोणम्। तेन। नरा। वर्तिः। अस्मभ्यम्। यातम् ॥ १.११७.२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 117; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजधर्ममाह ।
अन्वयः
हे नराश्विना सभासेनेशौ यः सुकृतः स्वश्वो मनसो जवीयान् रथोऽस्ति स विश आजिगाति वा युवां येन रथेन वर्त्तिर्दुरोणं गच्छथस्तेनास्मभ्यं यातम् ॥ २ ॥
पदार्थः
(यः) (वाम्) युवयोः (अश्विना) मनस्विनौ (मनसः) मननशीलाद्वेगवत्तरात् (जवीयान्) अतिशयेन वेगयुक्तः (रथः) युद्धक्रीडासाधकतमः (स्वश्वः) शोभना अश्वा वेगवन्तो विद्युदादयस्तुरङ्गा वा यस्मिन् सः (विशः) प्रजाः (आजिगाति) समन्तात्प्रशंसयति। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (येन) (गच्छथः) (सुकृतः) सुष्ठुसाधनैः कृतो निष्पादितः (दुरोणम्) गृहम् (तेन) (नरा) न्यायनेतारौ (वर्त्तिः) वर्त्तमानम् (अस्मभ्यम्) (यातम्) प्राप्नुतम् ॥ २ ॥
भावार्थः
राजपुरुषैर्मनोवद्वेगानि विद्युदादियुक्तानि विविधानि यानान्यास्थाय प्रजाः संतोषितव्या। येन येन कर्मणा प्रशंसा जायेत तत्तदेव सततं सेवितव्यं नेतरम् ॥ २ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजधर्म को अगले मन्त्र में कहते हैं ।
पदार्थ
हे (नरा) न्याय की प्राप्ति करानेवाले (अश्विना) विचारशील सभा सेनाधीशो ! (यः) जो (सुकृतः) अच्छे साधनों से बनाया हुआ (स्वश्वः) जिसमें अच्छे वेगवान् बिजुली आदि पदार्थ वा घोड़े लगे हैं, वह (मनसः) विचारशील अत्यन्त वेगवान् मन से भी (जवीयान्) अधिक वेगवाला और (रथः) युद्ध की अत्यन्त क्रीड़ा करानेवाला रथ है, वह (विशः) प्रजाजनों की (आजिगाति) अच्छे प्रकार प्रशंसा कराता और (वाम्) तुम दोनों (येन) जिस रथ से (वर्त्तिः) वर्त्तमान (दुरोणम्) घर को (गच्छथः) जाते हो (तेन) उससे (अस्मभ्यम्) हम लोगों को (यातम्) प्राप्त हूजिये ॥ २ ॥
भावार्थ
राजपुरुषों को चाहिये कि मन के समान वेगवाले, बिजुली आदि पदार्थों से युक्त, अनेक प्रकार के रथ आदि यानों को निश्चित कर प्रजाजनों को सन्तोष देवें। और जिस-जिस कर्म से प्रशंसा हो उसी-उसी का निरन्तर सेवन करें, उससे और कर्म का सेवन न करें ॥ २ ॥
विषय
मन से भी वेगवान् रथ
पदार्थ
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (यः) = जो (वाम्) = आपका (मनसः जवीयान्) = मन से भी अधिक वेगवान् (रथः) = रथ है , जो (सु - अश्वः) = उत्तम अश्वोंवाला है , (विशः) = सब प्रजाओं को (आजिगाति) = आभिमुख्येन प्राप्त होता है , (येन) = जिस रथ से आप (सुकृतः) = पुण्यकृत लोगों के (दुरोणम्) = घर को , अर्थात् स्वर्ग को (गच्छथः) = जाते हो , (तेन) = उस रथ से हे (नरा) = हमें उन्नति पथ पर ले - चलनेवाले प्राणापानो ! (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए भी (वर्तिः यातम्) = गृह पर आओ , अर्थात् हमें भी प्राप्त होओ । २. यह शरीर ही प्राणापान का रथ है । प्राणों के होने पर ही अन्य चक्षु आदि देवों का यहाँ वास होता है । प्राण गये और सब देव भी गये , इसलिए इसे प्राणापान का रथ कहा है । यह रथ अत्यन्त वेगवान् है । प्राणसाधना होने पर यह हमें शीघ्रता से उन्नति पथ पर आगे और आगे ले - चलता है । प्राणसाधना से ही इन्द्रियों के दोष दूर होते हैं और यह शरीर - रथ उत्तम इन्द्रियाश्वोंवाला होकर ‘स्वश्वः’ कहलाता है । यह रथ सब मनुष्यों को जीवन यात्रा की पूर्ति के लिए प्राप्त होता है । प्राणसाधना हमें उत्तम कर्मों में व्याप्त करके स्वर्ग - प्राप्ति का अधिकारी बनाती है । पुण्यशाली लोगों के लोकों को हम प्राप्त करनेवाले होते हैं । हमें यही अश्विनीदेवों का रथ प्राप्त हो , जिससे सब कार्यों को उत्तमता से करते हुए हम आगे बढ़ पाएँ ।
भावार्थ
भावार्थ - यह शरीर - रथ प्राणापान का है । यह हमें पुण्यकृत लोगों के लोक को प्राप्त कराता है ।
विषय
विद्वान् प्रमुख नायकों तथा स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।
भावार्थ
हे ( नरा अश्विना ) उत्तम नायक विद्वान् जनो ! ( यः ) जो ( वाम् ) आप दोनों का ( मनसः ) मन से भी ( जवीयान् ) अधिक वेग वाला ( रथः ) युद्ध क्रीडा करने वाला, ( स्वश्वः ) उत्तम अश्वों से युक्त रथ ( विशः ) प्रजाओं को ( आजिगाति ) प्राप्त होता है, अथवा प्रजाओं के मुख से आपकी प्रशंसा कराता है और (येन) जिससे आप दोनों (सुकृतः) शुभ कर्म करने वाले के ( दुरोणं ) घर तक ( गच्छथः ) जाते हो ( तेन ) उस ही रथ से ( अस्मभ्यं ) हमारे ( वर्त्तिः ) गृह पर भी ( यातम् ) आया करो । ( २ ) अध्यात्म में—प्राण अपान दोनों का मन से भी अधिक वेगवान् अर्थात् व्यापक, उत्तम प्राण आदि अश्वों सहित रथ आत्मा है । रमण कर्त्ता और रस स्वरूप होने से ‘रथ’ है, प्राणादि से युक्त होने से ‘स्वश्व’ है । मन से भी तीव्र जाने का अभिप्राय आत्मा का ज्ञानमार्ग में तीव्र होने का है ।
टिप्पणी
तद् धावतोऽन्यानत्येति तिष्टत् । ईश उप०॥ वह स्वयं उत्तम कर्त्ता होने से ‘सुकृत’ है जौर वह पुण्यात्मा के हृदय में प्रकट होता है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः–१ निचृत् पंक्तिः । ६, २२ विराट् पंक्तिः। २१, २५, ३१ भुरिक पंक्तिः। २, ४, ७, १२, १६, १७, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। ८, ९, १०, १३-१५, २०, २३ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ५, २४ त्रिष्टुप् ॥ धैवतः ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
राजपुरुषांनी मनाप्रमाणे वेगवान, विद्युत इत्यादी पदार्थांनी युक्त, अनेक रथ इत्यादी याने तयार करून प्रजेला संतुष्ट ठेवावे व ज्या ज्या कर्माची प्रशंसा होईल त्याचे निरंतर ग्रहण करावे. त्यापेक्षा वेगळ्या कर्माचे ग्रहण करू नये. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, leaders of the people, faster than thought is your chariot which reaches the people with you. Wondrously made it is, drawn by horses fast as sun beams and lightning, by which you go home to the man of noble deeds. Riding that same chariot come home for us too (and bless us with light and speed).
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O leaders of justice, O President of the Assembly and Commander of the Army, please come to our abode with that car which has been well manufactured, which is swifter than the mind of a man, drawn by electric forces or horses which appears before men and with which you repair to the dwelling of the virtuous.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(स्वश्व:) शोभना अश्वा वेगवन्तो विद्युदादयस्तुरंगा वा यस्मिन् = Having electric forces or good rapid horses. (सुकृत:) सुष्टु साधनैः कृतो निष्पादितः = Manufactured by good means.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of the King and officers of the State to please their subjects by approaching them on the cars drawn by electric forces. They should do only such acts as increase their glory and reputation.
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