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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 117 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 117/ मन्त्र 23
    ऋषिः - कक्षीवान् देवता - अश्विनौ छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सदा॑ कवी सुम॒तिमा च॑के वां॒ विश्वा॒ धियो॑ अश्विना॒ प्राव॑तं मे। अ॒स्मे र॒यिं ना॑सत्या बृ॒हन्त॑मपत्य॒साचं॒ श्रुत्यं॑ रराथाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सदा॑ । क॒वी॒ इति॑ । सु॒ऽम॒तिम् । आ । च॒के॒ । वा॒म् । विश्वाः॑ । धियः॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । प्र । अ॒व॒त॒म् । मे॒ । अ॒स्मे इति॑ । र॒यिम् । ना॒स॒त्या॒ बृ॒हन्त॑म् । अ॒प॒त्य॒ऽसाच॑म् । श्रुत्य॑म् । र॒रा॒था॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सदा कवी सुमतिमा चके वां विश्वा धियो अश्विना प्रावतं मे। अस्मे रयिं नासत्या बृहन्तमपत्यसाचं श्रुत्यं रराथाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सदा। कवी इति। सुऽमतिम्। आ। चके। वाम्। विश्वाः। धियः। अश्विना। प्र। अवतम्। मे। अस्मे इति। रयिम्। नासत्या बृहन्तम्। अपत्यऽसाचम्। श्रुत्यम्। रराथाम् ॥ १.११७.२३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 117; मन्त्र » 23
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे नासत्या कवी अश्विना वां सुमतिमहमाचके युवां मे मह्यं विश्वा धियः सदा प्रवतमस्मे बृहन्तमपत्यसाचं श्रुत्यं रयिं रराथाम् ॥ २३ ॥

    पदार्थः

    (सदा) (कवी) सर्वेषां क्रान्तप्रज्ञौ (सुमतिम्) धर्म्यां धियम् (आ) (चके) शृणुयाम्। कै शब्देऽस्माल्लिट् व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (वाम्) युवयोः (विश्वाः) अखिलाः (धियः) धारणावतीर्बुद्धीः (अश्विना) विद्याप्रापकौ (प्र) (अवतम्) प्रवेशयतम् (मे) मह्यम् (अस्मे) अस्मभ्यम् (रयिम्) धनम् (नासत्या) (बृहन्तम्) अतिप्रवृद्धम् (अपत्यसाचम्) पुत्रपौत्रादिसमेतम् (श्रुत्यम्) श्रोतुं योग्यम् (रराथाम्) दद्यातम्। अत्र राधातोर्लोटि बहुलं छन्दसीति शपः श्लुर्व्यत्ययेनात्मनेपदं च ॥ २३ ॥

    भावार्थः

    विद्यार्थिभी राजादिगृहस्थैश्चाप्तानां विदुषां सकाशादुत्तमाः प्रज्ञाः प्रापणीयास्ते च विद्वांसस्तेभ्यो विद्यादिधनं प्रदाय सततं सुशिक्षितान् धार्मिकान् विदुषः संपादयन्तु ॥ २३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (नासत्या) सत्यव्यवहारयुक्त (कवी) सब पदार्थों में बुद्धि को चलाने और (अश्विना) विद्या की प्राप्ति करानेवाले सभासेनाधीशो ! (वाम्) तुम लोगों की (सुमतिम्) धर्मयुक्त उत्तम बुद्धि को मैं (आ, चके) अच्छे प्रकार सुनूँ। तुम दोनों (मे) मेरे लिये (विश्वाः) समस्त (धियः) धारणावती बुद्धियों को (सदा) सब दिन (प्र, अवतम्) प्रवेश कराओ तथा (अस्मे) हम लोगों के लिये (बृहन्तम्) अति बढ़े हुए (अपत्यसाचम्) पुत्र-पौत्र आदि युक्त (श्रुत्यम्) सुनने योग्य (रयिम्) धन को (रराथाम्) दिया करो ॥ २३ ॥

    भावार्थ

    विद्यार्थी और राजा आदि गृहस्थों को चाहिये कि शास्त्रवेत्ता विद्वानों के निकट से उत्तम बुद्धियों को लेवें और वे विद्वान् भी उनके लिये विद्या आदि धन को दे निरन्तर उन्हें अच्छी सिखावट सिखाय के धर्मात्मा विद्वान् करें ॥ २३ ॥

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    विषय

    ‘सुमति’ व ‘श्रुत्य रयि’

    पदार्थ

    १. (कवी) = क्रान्तदर्शी - तीव्र बुद्धिदाता प्राणापानो ! मैं (वाम्) = आपकी (सुमतिम्) = कल्याणी मति को सदा - सदा (आचके) = चाहता हूँ । प्राणसाधना के द्वारा मुझे कल्याणी मति प्राप्त हो , ऐसा मैं चाहता हूँ । २. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! आप (मे) = मेरी (विश्वा धियः) = सब बुद्धियों को (प्रावतम्) = सुरक्षित करो । प्राणसाधना से मेरी बुद्धि में कभी विकार न आये । ३. हे (नासत्या) = सब असत्यों को दूर करनेवाले प्राणापानो ! आप (अस्मे) = हमारे लिए (रयिम्) = उस ऐश्वर्य को (रराथाम्) = दीजिए जोकि (बृहन्तम्) = वृद्धि का कारणभूत है , (अपत्यसाचम्) = उत्तम सन्तानों से हमारा सम्बन्ध करनेवाला है और (श्रुत्यम्) = ज्ञान के लिए अनुकूल है । प्राणसाधक की सम्पत्ति उसकी उन्नति का ही कारण बनती है , यह कभी उसके ह्रास का कारण नहीं होती । इस सम्पत्ति से सन्तान विकृत आचरणवाली नहीं होती और यह सम्पत्ति हमारे ज्ञान पर पर्दा नहीं डालती ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से सुमति व धी की प्राप्ति होती है । इस साधना के साथ सम्पत्ति अवनति का कारण नहीं बनती , हमारी सन्तानों को ठीक रखती है और ज्ञान के लिए उपयोगी होती है ।

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    विषय

    सौ मेषों का रहस्य ऋज्राश्व की कथा का रहस्य।

    भावार्थ

    हे (कवी) दूरदर्शी विद्वान् और विदुषी स्त्री पुरुषो! मैं ( वाम् ) आप दोनों की ( सुमतिम् ) शुभ कर्मानुकूल मति, ज्ञान और अनुमति को ( आचके ) प्राप्त करूं । (मे) मुझे ( विश्वा धियः ) समस्त कर्मों, ज्ञानों और रक्षा आदि अनुग्रह का आप लोग ( प्र अवतम् ) प्रदान करें। हे (नासत्या) सदा सत्य व्यवहारशील स्त्री पुरुषो ! आप दोनों ( अस्मे ) हमें ( अपत्य साचं ) पुत्र पौत्रादि को प्राप्त होने वाले ( बृहन्तम् ) बड़े भारी ( श्रुत्यम् ) प्रसिद्ध और श्रवण या गुरूपदेश द्वारा प्राप्त होने योग्य वेदज्ञानमय ( रयिम् ) ऐश्वर्य का ( रराथाम् ) प्रदान करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः–१ निचृत् पंक्तिः । ६, २२ विराट् पंक्तिः। २१, २५, ३१ भुरिक पंक्तिः। २, ४, ७, १२, १६, १७, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। ८, ९, १०, १३-१५, २०, २३ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ५, २४ त्रिष्टुप् ॥ धैवतः ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्यार्थी व राजा इत्यादी गृहस्थांनी शास्त्रवेत्त्या विद्वानांकडून उत्तम बुद्धी प्राप्त करावी व विद्वानांनीही विद्या इत्यादी धन देऊन त्यांना चांगली शिकवण देऊन धर्मात्मा विद्वान करावे. ॥ २३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, poetic visionaries of creation, high- priests of truth and reality, harbingers of cosmic intelligence and energy, I pray to you, always bless me with universal vision and understanding and protect it from doubt. Give us the wealth which is reputable and honourable, blest with family and children, and which is ever growing higher and higher.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O wise, absolutely truthful, conveyors of knowledge. O Ashvins Teachers and Preachers, let me always listen to the advice of your righteous intellect. Protect all my pure understanding or intellect for ever. Grant us abundant and excellent wealth (both spiritual and material) together with noble progeny.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (चके) शृणुयाम् | कै शब्दे अस्मात् लिट् व्यत्ययेनात्मनेपदम् ।। = Let me hear. (कवी) सर्वेषां त्रकांतप्रज्ञौ = wise. Extra-ordinarily wise, exceeding all in intellectual power.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of all students and the rulers etc. who are householders to get all good knowledge and advice from absolutely truthful scholars. It is also the duty of those scholars to make them highly learned and righteous by giving them the wealth of knowledge and wisdom.

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