ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 117/ मन्त्र 22
आ॒थ॒र्व॒णाया॑श्विना दधी॒चेऽश्व्यं॒ शिर॒: प्रत्यै॑रयतम्। स वां॒ मधु॒ प्र वो॑चदृता॒यन्त्वा॒ष्ट्रं यद्द॑स्रावपिक॒क्ष्यं॑ वाम् ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒थ॒र्व॑णाय । अ॒श्वि॒ना॒ । द॒धी॒चे । अश्व्य॑म् । शिरः॑ । प्रति॑ । ऐ॒र॒य॒त॒म् । सः । वा॒म् । मधु॑ । प्र । वो॒च॒त् । ऋ॒त॒ऽयन् । त्वा॒ष्ट्रम् । यत् । द॒स्रौ॒ । अ॒पि॒ऽक॒क्ष्य॑म् । वा॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आथर्वणायाश्विना दधीचेऽश्व्यं शिर: प्रत्यैरयतम्। स वां मधु प्र वोचदृतायन्त्वाष्ट्रं यद्दस्रावपिकक्ष्यं वाम् ॥
स्वर रहित पद पाठआथर्वणाय। अश्विना। दधीचे। अश्व्यम्। शिरः। प्रति। ऐरयतम्। सः। वाम्। मधु। प्र। वोचत्। ऋतऽयन्। त्वाष्ट्रम्। यत्। दस्रौ। अपिऽकक्ष्यम्। वाम् ॥ १.११७.२२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 117; मन्त्र » 22
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे दस्रावश्विना वां युवां यदाथर्वणाय दधीचेऽश्व्यं शिरः प्रत्यैरयतम्। स ऋतायन् सन् वामपिकक्ष्यं त्वाष्ट्रं मधु प्रवोचत् ॥ २२ ॥
पदार्थः
(आथर्वणाय) छिन्नसंशयस्य पुत्राय (अश्विना) सत्कर्मसु प्रेरकौ (दधीचे) दधीन् विद्याधर्मधरानञ्चति पूजयति तस्मै (अश्व्यम्) अश्वेषु भवम् (शिरः) उत्तमं स्वाङ्गम् (प्रति) (ऐरयतम्) प्रापयतम् (सः) (वाम्) युवाभ्याम् (मधु) मधुरम्। मन धातोरयं प्रयोगः। (प्र) (वोचत्) उपदिशेत् (ऋतायन्) ऋतं सत्यमात्मन इच्छन् (त्वाष्ट्रम्) तूर्णं यः सकला विद्या अश्नुते तस्येदं विज्ञानम्। त्वष्टा तूर्णमश्नुत इत नैरुक्ताः। निरु० ८। १३। (यत्) यस्मै (दस्रौ) दुःखनिवर्त्तकौ (अपिकक्ष्यम्) कक्षासु विद्याप्रदेशेषु भवा बोधाः कक्ष्यास्तान् प्रति वर्त्तते तत् (वाम्) युवम् ॥ २२ ॥
भावार्थः
सभासेनेशादयो राजपुरुषा विद्वत्सु श्रद्दधीरन् सत्कर्मसु प्रेरयन्तु ते च युष्मभ्यं सत्यमुपदिश्य प्रमादादधर्माच्च निवर्त्तयेयुः ॥ २२ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (दस्रौ) दुःख की निवृत्ति करने और (अश्विना) अच्छे कामों में प्रवृत्त करानेहारे सभासेनाधीशो ! (वाम्) तुम दोनों (यत्) जिस (आथर्वणाय) जिसके संशय कट गए उसके पुत्र के लिये तथा (दधीचे) विद्या और धर्मों को धारण किये हुए मनुष्यों की प्रशंसा करनेवाले के लिये (अश्व्यम्) घोड़ों में हुए (शिरः) उत्तम अङ्ग को (प्रत्यैरयतम्) प्राप्त करो (सः) वह (ऋतायन्) अपने को सत्य व्यवहार चाहता हुआ (वाम्) तुम दोनों के लिये (अपिकक्ष्यम्) विद्या की कक्षाओं में हुए बोधों के प्रति जो वर्त्तमान उस (त्वाष्ट्रम्) शीघ्र समस्त विद्याओं में व्याप्त होनेवाले विद्वान् के (मधु) मधुर विज्ञान का (प्र, वोचत्) उपदेश करे ॥ २२ ॥
भावार्थ
सभासेनाधीश आदि राजजन विद्वानों में श्रद्धा करें और अच्छे कामों में प्रेरणा दें और वे तुम लोगों के लिये सत्य का उपदेश देकर प्रमाद और अधर्म से निवृत्त करें ॥ २२ ॥
विषय
अश्व्यं शिराः
पदार्थ
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! आप (आथर्वणाय) = [अथ अर्वाड् - within] अन्तः निरीक्षण करनेवाले अथवा हृदयस्थ प्रभु की ओर चलनेवाले (दधीचे) = ध्यानशील पुरुष के लिए (अश्व्यं शिरः) = [अशू व्याप्तौ] सब विषयों के व्यापन में उत्तम मस्तिष्क को (प्रत्यैरयतम्) = प्राप्त कराते हो । प्राणसाधना से ध्यानशील पुरुष को अत्यन्त तीव्र बुद्धि प्राप्त होती है । यह बुद्धि सभी विषयों का व्यापन करनेवाली होती है । (सः) = वह दध्यङ् आथर्वण (ऋतायन्) = अपने जीवन में ऋत का वर्धन करता हुआ - जीवन को बड़ा नियमित बनाता हुआ (वाम्) = आपके (मधु) = [अन्नं वै मधु ताँ ११/१०/३] अन्न का (प्रवोचत्) = उपदेश करता है । यवादि सात्त्विक अन्न ही प्राणसाधक को ग्रहण करने चाहिएँ , ऐसा उपदेश देता है । २. इस मधु के उपदेश के साथ हे (दस्रौ) = वासना विनाशक प्राणापानो ! (यत्) = जो (वाम्) = आपका , आपकी साधना से प्राप्त होनेवाला (त्वाष्ट्रम्) = संसार निर्माता प्रभु - सम्बन्धी (अपिकक्ष्यम्) = अत्यन्त रहस्यमय ज्ञान है , उसका भी उपदेश करता है ।
भावार्थ
भावार्थ - ध्यानी प्राणसाधक को सर्वविद्याओं का व्यापन करनेवाला मस्तिष्क प्राप्त होता है । वह प्राणसाधना के लिए अनुकूल अन्न का उपदेश देता हुआ प्रभु - सम्बन्धी रहस्यमय ज्ञान का भी प्रवचन करता है ।
विषय
सौ मेषों का रहस्य ऋज्राश्व की कथा का रहस्य।
भावार्थ
हे ( अश्विना ) अश्व सेना और विद्वत्सभा के स्वामी वीर सेना और विद्वत् सभा के नायक अध्यक्ष पुरुषो ! आप दोनों ( आथर्वणाय ) न हिंसा करने वाले, प्रजापालक और शान्तिविधायक, प्रजापति के पद पर कार्य करने वाले, ( दधीचे ) राष्ट्र को धारण करने के सामर्थ्य को प्राप्त विद्वान्, बलवान् पुरुष को ही ( अश्व्यं शिरः ) अश्व सेना और राष्ट्र का मुख्य पद ( प्रति ऐरयतम् ) प्रदान करो । और हे ( दस्त्रा ) शत्रुओं के नाश करने में कुशल पुरुषो ! ( सः ) वह मुख्य पुरुष ( ऋतयन् ) ऐश्वर्य की कामना करता हुआ ( वां ) आप दोनों को ( त्वाष्ट्रं ) शिल्पियों से बनाये गये ( मधु ) मधुर एवं शत्रुओं का पीड़न और स्तम्भन करने वाला बल, या शस्त्रास्त्र साधन तथा ऐश्वर्य और ज्ञान ( प्रवोचत् ) प्राप्त कराता है। और ( यत् ) जितना भी ( अपिकक्ष्यं ) कक्षाओं में उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ ज्ञान है उसका भी उपदेश करता है । [२] अथवा—( सः ) वह ( ऋतयन् ) सत्य ज्ञान और न्याय शासन चाहता हुआ ( त्वाष्ट्रं मधु प्रवोचत् ) सूर्य या विद्युत् के समान तेजस्वी शासन या आज्ञा और आचार्य के समान ज्ञान का उपदेश करे। ( अपिकक्ष्यम् ) गुरु जिस प्रकार उत्तरोत्तर कक्षाओं में कहने योग्य ज्ञान की वृद्धि करता है उसी प्रकार उत्तरोत्तर बढ़ते हुए अधिकारी युक्त श्रेणियों में प्राप्त होने योग्य शासनाधिकार और तदुपयोगी ज्ञान भी प्रदान करे ।
टिप्पणी
‘दधीचे’—इन्द्रियं वै दधि । तै० २। १। ५६। दधि हैवास्य लोकस्य रूपम् । श० ७। ५। १।३॥ सोमो वै दधि । कौ० ८।९॥ वाङ् वै दध्यङ् आथर्वणः ॥ श० ६। ४।२। ३॥ ‘आथर्वणाय’—प्राणो वा अथर्वा श० ६। ४। २। २॥ अथ अर्वाङ् एव मेतासु अप्सु अन्विच्छ। गो० पू० १। ४॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः–१ निचृत् पंक्तिः । ६, २२ विराट् पंक्तिः। २१, २५, ३१ भुरिक पंक्तिः। २, ४, ७, १२, १६, १७, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। ८, ९, १०, १३-१५, २०, २३ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ५, २४ त्रिष्टुप् ॥ धैवतः ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
सभासेनाधीश इत्यादी राजजनांनी विद्वानांवर श्रद्धा ठेवावी. चांगल्या कामात प्रेरणा द्यावी. त्यांनी तुमच्यासाठी सत्याचा उपदेश करून प्रमाद व अधर्म यांच्यापासून दूर करावे. ॥ २२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
For the child of the man of faith beyond doubt and question, for the admirer of men of knowledge and rectitude, you create the best and most dynamic brain and inspire him. Ashvins, generous and creative, the inspired man, in search of the honey sweets of life and nourishment, speaks of the science of yajna and of the science of anatomy and the structure of the forms of life, for you and all.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued in the 22nd Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Ashvins (President of the Assembly and Chief Commander of the Army) O destroyers of all distress, you give honor to the extra-ordinary head or brain of a mighty “Karma Yogi ", to a person who is the son of a great Yogi, froe from all doubt, himself the worshipper of the upholders of Vidya (Knowledge ) and Dharma ( righteousness ) and true to his promise, he gives to you in turn, the sweet knowledge and instructions received from great scholars.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(आथर्वणाय) छिन्नसंशयस्य पुत्राय = The son of a man free from all doubt-a man of true wisdom. (दधीचे) दधीन् विद्याधर्मधरान् अञ्चति पूजयति तस्मै = For a worshipper or devotee of the upholders of Vidya and Dharma. (त्वाष्ट्रम्) तूर्णय: सकला विद्याअश्नुते तस्येदं विज्ञानम् त्वष्टा तूर्णमश्नुते इति नैरुक्ता: (निरुक्ते ८ .१३) = Knowledge received from great scholars. (अमिकक्ष्यम् ) कक्षासु विद्याप्रदेशेषु भवा बोधा: कक्ष्याः तान् प्रति वर्तते तत् । = Knowledge connected with various fields or departments.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is proper on the part of the President of the Assembly and Commander of the Army to have genuine faith in highly learned persons and urge upon all to engage themselves in righteous acts. It is the duty of great scholars to preach truth and keep all persons away from idleness and un-righteousness.
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