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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 117 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 117/ मन्त्र 15
    ऋषिः - कक्षीवान् देवता - अश्विनौ छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अजो॑हवीदश्विना तौ॒ग्र्यो वां॒ प्रोळ्ह॑: समु॒द्रम॑व्य॒थिर्ज॑ग॒न्वान्। निष्टमू॑हथुः सु॒युजा॒ रथे॑न॒ मनो॑जवसा वृषणा स्व॒स्ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अजो॑हवीत् । अ॒श्वि॒ना॒ । तौ॒ग्र्यः । वा॒म् । प्रऽऊ॑ळ्हः । स॒मु॒द्रम् । अ॒व्य॒थिः । ज॒ग॒न्वान् । निः । तम् । ऊ॒ह॒थुः॒ । सु॒ऽयुजा॑ । रथे॑न । मनः॑ऽजवसा । वृ॒ष॒णा॒ । स्व॒स्ति ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अजोहवीदश्विना तौग्र्यो वां प्रोळ्ह: समुद्रमव्यथिर्जगन्वान्। निष्टमूहथुः सुयुजा रथेन मनोजवसा वृषणा स्वस्ति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अजोहवीत्। अश्विना। तौग्र्यः। वाम्। प्रऽऊळ्हः। समुद्रम्। अव्यथिः। जगन्वान्। निः। तम्। ऊहथुः। सुऽयुजा। रथेन। मनःऽजवसा। वृषणा। स्वस्ति ॥ १.११७.१५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 117; मन्त्र » 15
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे वृषणाऽश्विना दम्पती युवां यो वां तौग्र्यः प्रोढोऽव्यथिर्न जगन्वान् सेनासमुदायः समुद्रमजोहवीत्तं सुयुजा मनोजवसा रथेन स्वस्ति निरुहथुः ॥ १५ ॥

    पदार्थः

    (अजोहवीत्) पुनःपुनः स्पर्द्धेत (अश्विना) विद्यासुशीलव्यापिनौ (तौग्र्यः) तुग्रेण बलेन निर्वृत्तः सेनावृन्दः (वाम्) युवयोः (प्रोढः) प्रकर्षेणोढः प्राप्तः (समुद्रम्) (अव्यथिः) अविद्यमाना व्यथिर्व्यथा यस्य सः (जगन्वान्) भृशं गन्ता (नः) नितराम् (तम्) (ऊहथुः) प्रापयेतम् (सुयुजा) सुष्ठुयुक्तेन (रथेन) (मनोजवसा) मनोवद्वेगेन गच्छता (वृषणा) सुबलौ (स्वस्ति) सुखेन ॥ १५ ॥

    भावार्थः

    यदा कृतब्रह्मचर्य्यः पुरुषः शत्रुविजयाय समुद्रपारं गन्तुमिच्छेत्तदा सभार्यः सबल एव वेगवद्भिर्यानैर्गच्छेदागच्छेच्च ॥ १५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (वृषणा) उत्तम बलवाले (अश्विना) विद्या और उत्तम शीलों में व्याप्त स्त्री-पुरुषो ! तुम दोनों जो (वाम्) तुम्हारा (तौग्र्यः) बल से सिद्ध हुआ (प्रोढः) उत्तमता से प्राप्त (अव्यथिः) जिसको व्यथा कष्ट नहीं है (जगन्वान्) जो निरन्तर गमन करनेवाला सेना का समुदाय है वह (समुद्रम्) समुद्र का (अजोहवीत्) बार-बार तिरस्कार करे अर्थात् उससे उत्तीर्ण हो उसकी गम्भीरता न गिने, (तम्) उस उक्त सेना समुदाय को (सुयुजा) सुन्दरता से जुड़े (मनोजवसा) मन के समान वेग से जाते हुए (रथेन) रमणीय विमान आदि यानसमुदाय से (स्वस्ति) सुखपूर्वक (निरूहथुः) निर्वाहो अर्थात् एक देश से दूसरे देश को पहुँचाओ ॥ १५ ॥

    भावार्थ

    जब ब्रह्मचर्य किये पुरुष शत्रुओं के विजय के लिये समुद्र के पार जाना चाहें तब स्त्री और सेना के साथ ही वेगवान् यानों से जावें-आवें ॥ १५ ॥

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    विषय

    तौग्र्य की प्राणसाधना

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में तुग्र का वर्णन था । यह तुग्र भोगमार्ग में ऐसा उलझा हुआ था कि औरों की हिंसा करके भी इसे भोग - साधन जुटाने का विचार हुआ । इसने अपने पुत्र को भी इस विषय समुद्र में धकेला । तुग्र - पुत्र का सारा वातावरण विषय - वासनामय होना स्वाभाविक ही है , परन्तु यह (समुद्रं प्रोढः) = विषय - समुद्र में प्राप्त कराया हुआ (तौग्र्यः) = तुग्र का पुत्र , हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (वाम् अजोहवीत्) = आप दोनों को पुकारता था । इस तौग्र्य ने प्राणसाधना आरम्भ की । परिणामतः यह (अव्यथिः) = विषय - वासनाओं से पीड़ित होने से बच गया और (जगन्वान्) = अपनी यात्रा में उद्दिष्ट स्थल पर जानेवाला बना । २. हे (वृषणा) = शक्तिशाली प्राणापानो ! आप (तम्) = इस तौग्र्य को (सुयुजा) = उत्तम इन्द्रियाश्वों से जुते हुए (मनोजवसा) = मन के समान वेगवाले (रथेन) = इस शरीर रथ के द्वारा (निः ऊहथुः) = विषय - समुद्र से ऊपर उठाते ही हो और इस प्रकार (स्वस्ति) = उसका कल्याण - ही - कल्याण होता है । पिता के अनुरूप पुत्र के होने की सम्भावना बहुत ही है , परन्तु यहाँ तुग्र - पुत्र प्राणसाधना में चलता है और परिणामतः तुग्रत्व से दूर होकर , उत्तम इन्द्रियोंवाला बनकर जीवन - यात्रा को पूर्ण करता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से विषयासक्त पिता का पुत्र भी वातावरण के प्रभाव से पीड़ित नहीं होता और उत्तम इन्द्रियोंवाला बनकर उद्दिष्ट स्थल की और आगे बढ़ता है ।

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    विषय

    विद्वान् प्रमुख नायकों तथा स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( अश्विना ) स्त्री पुरुषो ! एक दूसरे के हृदय में व्यापक ! एक दूसरे से सुखों के भोग करने हारे (वां) तुम दोनों में से (प्रोढः) प्रत्येक विवाहित पुरुष (अव्यथिः) बिना व्यथा या पीड़ा के ही ( समुद्रं जगन्वान् ) समुद्र के पार जाने हारा है वह ( प्रोढः ) उत्तम रीति से गृहस्थ का भार उठाने में समर्थ होकर ही ( तौग्र्यः ) पालन करने योग्य पुत्रों को उत्पन्न करने में समर्थ होकर ( अजोहवीत् ) आहुति करे, अर्थात् वीर्याधान करे । तब दोनों ( वृषणा ) वीर्य निषेक करने और धारण करने में बलवान् होकर ( मनोजवसा ) मन के वेग से जाने वाले ( रथेन ) रमण करने योग्य गृहस्थ रूप रथ, या परस्पर के सुख से ( सु-युजा ) परस्पर उत्तम रीति से युक्त होकर ( स्वस्ति ) कुशलपूर्वक ( तम् ) उस गृहस्थ कार्य का ( निर् ऊहथुः ) निर्वाह करें । इति पञ्चदशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः–१ निचृत् पंक्तिः । ६, २२ विराट् पंक्तिः। २१, २५, ३१ भुरिक पंक्तिः। २, ४, ७, १२, १६, १७, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। ८, ९, १०, १३-१५, २०, २३ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ५, २४ त्रिष्टुप् ॥ धैवतः ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जेव्हा ब्रह्मचर्ययुक्त पती शत्रूंवर विजय प्राप्त करण्यासाठी समुद्र पार करू इच्छितो तेव्हा पत्नी व सेनेसह वेगवान यानाबरोबर जावे-यावे. ॥ १५ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Ashvins, generous and brave experts of energy, power and motion, let the powerful force assigned to the sea on the move call on you and you would transport it without trouble by the chariot meticulously driven at the speed of thought for the good of all.

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