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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 117 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 117/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कक्षीवान् देवता - अश्विनौ छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ऋषिं॑ नरा॒वंह॑स॒: पाञ्च॑जन्यमृ॒बीसा॒दत्रिं॑ मुञ्चथो ग॒णेन॑। मि॒नन्ता॒ दस्यो॒रशि॑वस्य मा॒या अ॑नुपू॒र्वं वृ॑षणा चो॒दय॑न्ता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋषि॑म् । न॒रौ॒ । अंह॑सः । पाञ्च॑ऽजन्यम् । ऋ॒बीसा॑त् । अत्रि॑म् । मु॒ञ्च॒थः॒ । ग॒णेन॑ । मि॒नन्ता॑ । दस्योः॑ । अशि॑वस्य । मा॒याः । अ॒नु॒ऽपू॒र्वम् । वृ॒ष॒णा॒ । चो॒दय॑न्ता ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋषिं नरावंहस: पाञ्चजन्यमृबीसादत्रिं मुञ्चथो गणेन। मिनन्ता दस्योरशिवस्य माया अनुपूर्वं वृषणा चोदयन्ता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋषिम्। नरौ। अंहसः। पाञ्चऽजन्यम्। ऋबीसात्। अत्रिम्। मुञ्चथः। गणेन। मिनन्ता। दस्योः। अशिवस्य। मायाः। अनुऽपूर्वम्। वृषणा। चोदयन्ता ॥ १.११७.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 117; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथाध्ययना“ऽध्यापनाख्यमाह।

    अन्वयः

    हे नरौ वृषणा चोदयन्ताऽशिवस्य दस्योर्माया मिनन्ताऽनुपूर्वं पाञ्चजन्यमत्रिं गणेनर्षिमृबीसादंहसो मुञ्चथः ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (ऋषिम्) वेदपारगाध्यापकम् (नरौ) विद्यानेतारौ (अंहसः) विद्याध्ययननिरोधकाद्विघ्नाख्यात् पापात् (पाञ्चजन्यम्) पञ्चसु जनेषु प्राणादिषु भवां प्राप्तयोगसिद्धिम् (ऋबीसात्) नष्टविद्याप्रकाशविद्यारूपात्। ऋबीसमपगतभासमपहृतभासमन्तर्हितभासं गतभासं वा। निरु० ६। ३५। (अत्रिम्) अविद्यमानान्यात्ममनः शरीरदुःखानि येन तम् (मुञ्चथः) (गणेन) अन्याध्यापकविद्यार्थिसमूहेन (मिनन्ता) हिंसन्तौ (दस्योः) उत्कोचकस्य (अशिवस्य) सर्वस्मै दुःखप्रदस्य (मायाः) कपटादियुक्ताः क्रियाः (अनुपूर्वम्) अनुकूलाः पूर्वे वेदोक्ता आप्तसिद्धान्ता यस्य तम् (वृषणा) सुखस्य वर्षकौ (चोदयन्ता) विद्यादिशुभगुणेषु प्रेरयन्तौ ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    राजपुरुषाणामिदमुत्तमतमं कर्मास्ति यद्विद्याप्रचारकर्त्तॄणां दुःखात् संरक्षणं सुखे संस्थापनं दस्य्वादीनां निवर्त्तनं स्वयं विद्याधर्मयुक्ता भूत्वा विदुषो विद्याधर्मप्रचारे संप्रेर्य्य धर्मार्थकाममोक्षान् संसाधयेयुः ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब पढ़ने और पढ़ाने रूप राजधर्म का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ।

    पदार्थ

    हे (नरौ) विद्या प्राप्ति कराने (वृषणा) सुख के वर्षाने (चोदयन्ता) और विद्या आदि शुभ गुणों में प्रेरणा करनेवाले तथा (अशिवस्य) सबको दुःख देनेहारे (दस्योः) उचक्के की (मायाः) कपट क्रियाओं को (मिनन्ता) काटनेवाले सभासेनाधीशो ! तुम दोनों (अनुपूर्वम्) अनुकूल वेद में कहे और उत्तम विद्वानों में माने हुए सिद्धान्त जिसके, उस (पाञ्चजन्यम्) प्राण, अपान, उदान, व्यान और समान में सिद्ध हुई योगसिद्धि को और जिसके सम्बन्ध में (अत्रिम्) आत्मा, मन और शरीर के दुःख नष्ट हो जाते हैं, उस (गणेन) पढ़ने-पढ़ानेवालों के साथ वर्त्तमान (ऋषिम्) वेदपारगन्ता अध्यापक को, (ऋबीसात्) नष्ट हुआ है विद्या का प्रकाश जिससे उस अविद्यारूप अन्धकार (अंहसः) और विद्या पढ़ाने को रोक देने रूप अत्यन्त पाप से (मुञ्चथः) अलग रखते हो ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    राजपुरुषों का यह अत्यन्त उत्तम काम है जो विद्याप्रचार करनेहारों को दुःख से बचाना, उनको सुख में राखना और डाकू उचक्के आदि दुष्ट जनों को दूर करना और वे राजपुरुष आप विद्या और धर्मयुक्त हो विद्वानों को विद्या और धर्म्म के प्रचार में लगाकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि करें ॥ ३ ॥

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    विषय

    अशिव दस्यु की माया का निवारण

    पदार्थ

    १. (नरौ) = हे उन्नति - पथ पर ले - चलनेवाले प्राणापानौ ! आप (पाञ्चजन्यम्) = प्राण , अपान , व्यान , उदान व समानरूप पाँचों प्राणों का विकास करनेवाले अथवा पाञ्चजनों [ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य , शूद्र और निषाद] के हित में प्रवृत्त (ऋषिम्) = तत्त्वद्रष्टा (अत्रिम्) = काम , क्रोध , लोभ इन तीनों से रहित अत्रि को (गणेन) = कर्मेन्द्रियों व ज्ञानेन्द्रियों के गणों के साथ - इन्द्रियगण के साथ (अंहसः) = पाप से (मुञ्चथः) = मुक्त करते हो और (ऋबीसात्) = [अपगतभासः] अत्यन्त अन्धकारमय असुर्यलोक से मुक्त करते हो । पाप से मुक्त होने पर असुर्यलोक से मुक्ति तो हो ही जाती है । पाप ही नरक व असुर्यलोक का कारण है । प्राणसाधना से इन्द्रियों के दोष दूर होते हैं और मनुष्य तत्त्वद्रष्टा [ऋषि] , लोकहित में प्रवृत्त [पाञ्चजन्य] व काम - क्रोध - लोभ से अतीत [अत्रि] बनता है । ऐसा बनकर यह पापों से ऊपर उठता है और ऋबीस [Abyss] में पतन से छुटकारा पाता है । २. हे प्राणापानो ! आप (अशिवस्य) = सदा अकल्याण करनेवाले (दस्योः) = उत्तमवृत्तियों का उपक्षय करनेवाले वृत्र = काम की (मायाः) = ज्ञान पर आवरण डालनेवाली वासनाओं को (मिनन्त) = हिंसित करते हो । प्राणसाधना से वासनाओं का विनाश होता है और इस प्रकार वासनाओं का विनाश करते हुए (वृषणा) = सुखों का वर्षण करनेवाले अथवा शक्तिशाली प्राणापान (अनुपूर्वम्) = सृष्टि के प्रारम्भ में दिये गये वेदज्ञान के अनुसार (चोदयन्ता) = कर्मों में प्रेरित करते हैं । प्राणसाधना से हमारी अशुभवृत्ति दूर होती है , शुभवृत्ति जागती है और इस प्रकार हम वेदानुकूल कार्य करनेवाले बनते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से अशुभवृत्तियों का नाश होता है और हम पाञ्चजन्य , अत्रि व ऋषि बन पाते हैं ।

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    विषय

    विद्वान् प्रमुख नायकों तथा स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( नरा ) नायक पुरुषो ! या राजदम्पती ! आप दोनों ( ऋबीसात् ) प्रकाशरहित, अन्धकारमय ( अंहसः ) पाप, अज्ञान से ( ऋषिम् ) वेद शास्त्रज्ञ ( पाञ्चजन्यम् ) पांचों जन ब्राह्मण आदि चार वर्ण तथा तद्-वाह्य इन सब मनुष्य मात्र के हितकारी, (अत्रिम्) विविध तापों और विविध बन्धनों से रहित पुरुष को ( गणेन सह ) उनके गण सहित ( मुञ्चथः ) बन्धन से छुड़ाओ। और ( अशिवस्य दस्योः ) अमङ्गल जनक, अकल्याणकारी ( दस्योः ) प्रजा के नाशकारी दुष्ट पुरुष के ( मायाः ) छल कपट के जालों को (मिनन्ता) नाश करते हुए ( अनुपूर्वम् ) पूर्व के सत् सिद्धान्तों के अनुकूल (वृषणा) बलवान् होकर ( चोदयन्ता ) प्रेरित करते हैं । ( २ ) अध्यात्म में—संसार बंधन ‘ऋबीस’ है। पांच प्राणों से युक्त भोक्ता चेतन आत्मा ‘अत्रि’ है । प्राण गण ‘गण’ हैं। आत्म स्वरूप, सर्वप्रपञ्चोपशम, अमात्र ‘शिव’ है । तद्विपरीत अनात्म प्रत्यय ‘अशिव माया’ है । प्राण अपान का अभ्यास उसको दूर करता है । देखो ऋ० १। ११६। ८॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः–१ निचृत् पंक्तिः । ६, २२ विराट् पंक्तिः। २१, २५, ३१ भुरिक पंक्तिः। २, ४, ७, १२, १६, १७, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। ८, ९, १०, १३-१५, २०, २३ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ५, २४ त्रिष्टुप् ॥ धैवतः ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजपुरुषांचे हे अत्यंत उत्तम काम आहे की, जे विद्येचा प्रचार करतात त्यांचे दुःख दूर करावे. त्यांना सुखी करावे व चोर, उचले इत्यादी दुष्ट लोकांना दूर सारावे. राजपुरुष स्वतः विद्या व धर्मयुक्त असावेत. विद्वानांना विद्या व धर्माच्या प्रचाराची प्रेरणा देऊन धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष सिद्ध करावा. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, leaders of humanity, generous and inspiring as ever before with universal knowledge and human values, destroyers of the envious demonics and their crooked powers, you save Atri, visionary scholar free from the three bonds of physical, mental and spiritual ailments, self-realised soul with mastery over all the five pranic energies and dedicated to all the five classes of universal humanity without discrimination, and you deliver him along with his band of teachers and scholars from the evil of prison in utter darkness, against the light of reason, knowledge and rectitude, into which, such men of light and freedom are thrown by the envious and wicked blood suckers of society.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Now the subject of reading and teaching is dealt with.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O leaders of knowledge, Showerers of joy, urging upon all to acquire knowledge and other virtues, destroying the devices of the malignant wicked persons, you liberate a man who is free from the spiritual, mental and physical miseries. a follower of eternal Vedic Principles, one who has attained the Yogic Siddhis (accomplishments) by the practice of Pranayama etc. from all ignorance. sins and obstacles that come in the way of his study and diffusion of knowledge, along with other teachers and students.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अंहसः) विद्याध्ययननिरोधकाद् विघ्नाख्यात् पापात् = From all sin and obstacles that obstruct the acquirement of knowledge. (पांचजन्यम् ) पंचसु जनेषु प्राणादिषु भवं, प्राप्त योगसिध्दिं = One who has attained the Yogic Siddhis (accomplishments) by the practice of Pranayama etc. [ ऋबीसात ] नष्टविद्या प्रकाशात् अविद्यारूपात् । ऋवीसमपगतभासम् अपहृतभासम् अन्तहितभासं गतभास वा [निरु० ६.३५] = From ignorance where the light of knowledge is lost. (अत्रिम ) अविद्यमानानि आत्ममनः शरीरदुःखानि येन = Free from the spiritual, mental and physical miseries. (अनुपूर्वम्) अनुकूला: पूर्ववेदोक्ता आप्तसिद्धान्ता यस्य = Following the eternal Vedic principles.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the greatest duty of the King and other officers of the State, to protect the propagators or diffusers of knowledge from all miseries and to establish them in happiness, to remove all robbers, thieves and other wicked persons. They should accomplish the four objects of human life. i. e. Dharma (righteousness) Artha (Wealth) Kama (fulfilment of noble desire) and Moksha (emancipation) being themselves endowed with Vidya (wisdom) and Dharma, and to induce all to propagate them.

    Translator's Notes

    The word पंचजना: means according to Nighantu and Nirukta all men as stated in the Nighantu पंचजनाइति मनुष्यनामसु (निघ० २.३ ) and पंचजना : चत्वारो वर्णा निषादपंचमा इत्यौपमन्यवः (निरुक्ते ३.२.८) So it may mean benefactor of all humanity. Rishi Dayananda himself has given the meaning of पञ्चानाम् in Rig 1. 176. 3 as ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्र निषादानाम् in his commentary on Rig 2. 34. 14 he has said. प्राणापान व्यानोदानसमानान् It is note - worthy that ar used in the Mantra has been explained by Sayanacharya also as प्रेरयन्तौ but he adds निवारयन्तौ Though every grammarian knows that the two words are opposite to each other. Rishi Dayananda explains it correctly as विद्यादिशुभगुणेषु प्रेरयन्तौ Who is more faithful to the text is for impartial scholars to judge.

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