ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 117/ मन्त्र 6
तद्वां॑ नरा॒ शंस्यं॑ पज्रि॒येण॑ क॒क्षीव॑ता नासत्या॒ परि॑ज्मन्। श॒फादश्व॑स्य वा॒जिनो॒ जना॑य श॒तं कु॒म्भाँ अ॑सिञ्चतं॒ मधू॑नाम् ॥
स्वर सहित पद पाठतत् । वा॒म् । न॒रा॒ । शंस्य॑म् । प॒ज्रि॒येण॑ । क॒क्षीव॑ता । ना॒स॒त्या॒ । परि॑ज्मन् । श॒फात् । अश्व॑स्य । वा॒जिनः॑ । जना॑य । श॒तम् । कु॒म्भान् । अ॒सि॒ञ्च॒त॒म् । मधू॑नाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तद्वां नरा शंस्यं पज्रियेण कक्षीवता नासत्या परिज्मन्। शफादश्वस्य वाजिनो जनाय शतं कुम्भाँ असिञ्चतं मधूनाम् ॥
स्वर रहित पद पाठतत्। वाम्। नरा। शंस्यम्। पज्रियेण। कक्षीवता। नासत्या। परिज्मन्। शफात्। अश्वस्य। वाजिनः। जनाय। शतम्। कुम्भान्। असिञ्चतम्। मधूनाम् ॥ १.११७.६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 117; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे पज्रियेण कक्षीवता सह वर्तमानौ नासत्या नरा वां यत् परिज्मन् वाजिनोऽश्वस्य शफादिव विद्युद्वेगात् जनाय मधूनां शतं कुम्भानसिञ्चतं तद्वां युवयोः शंस्यं कर्म विजानीमः ॥ ६ ॥
पदार्थः
(तत्) (वाम्) युवयोः (नरा) नृषूत्तमौ नायकौ (शंस्यम्) प्रशंसनीयम् (पज्रियेण) प्राप्तव्येषु भवेन (कक्षीवता) शिक्षकेण विदुषा सहितेन (नासत्या) (परिज्मन्) परितः सर्वतो गच्छन्ति यस्मिन्मार्गे (शफात्) खुरात् शं फणति प्रापयतीति शफो वेगस्तस्माद्वा। अत्रान्येभ्योऽपि दृश्यत इति डः पृषोदरादित्वान्मलोपश्च। (अश्वस्य) तुरगस्य (वाजिनः) वेगवतः (जनाय) शुभगुणविद्यासु प्रादुर्भूताय विदुषे (शतम्) (कुम्भान्) कलशान् (असिञ्चतम्) सुखेन सिञ्चतम् (मधूनाम्) उदकानाम्। मध्वित्युदकना०। निघं० १। १२। ॥ ६ ॥
भावार्थः
राजपुरुषैर्मनुष्यादिसुखाय मार्गेऽनेककुम्भजलेन सेचनं प्रत्यहं कारयितव्यम् यतस्तुरङ्गादीनां पादापस्करणाद्धूलिर्नोत्तिष्ठेत् येन मार्गे स्वसेनास्था जनाः सुखेन गमनागमने कुर्य्युः। एवमीदृशानि स्तुत्यानि कर्माणि कृत्वा प्रजाः सततमाह्लादितव्याः ॥ ६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (पज्रियेण) प्राप्त होने योग्यों में प्रसिद्ध हुए (कक्षीवता) शिक्षा करनेहारे विद्वान् के साथ वर्त्तमान (नासत्या) सत्य व्यवहार वर्त्तनेवाले (नरा) मनुष्यों में उत्तम सबको अपने-अपने ढंग में लगानेहारे सभासेनाधीशो ! तुम दोनों जो (परिज्मन्) सब प्रकार से जिसमें जाते हैं उस मार्ग को (वाजिनः) वेगवान् (अश्वस्य) घोड़ा की (शफात्) टाप के समान बिजुली के वेग से (जनाय) अच्छे गुणों और उत्तम विद्याओं में प्रसिद्ध हुए विद्वान् के लिये (मधूनाम्) जलों के (शतम्) सैकड़ों (कुम्भान्) घड़ों को (असिञ्चतम्) सुख से सींचो अर्थात् भरो (तत्) उस (वाम्) तुम लोगों के (शंस्यम्) प्रशंसा करने योग्य काम को हम जानते हैं ॥ ६ ॥
भावार्थ
राजपुरुषों को चाहिये कि मनुष्य आदि प्राणियों के सुख के लिये मार्ग में अनेक घड़ों के जल से नित्य सींचाव कराया करें, जिससे घोड़े, बैल आदि के पैरों की खूदन से धूर न उड़े। और जिससे मार्ग में अपनी सेना के जन सुख से आवें-जावें। इस प्रकार ऐसे प्रशंसित कामों को करके प्रजाजनों को निरन्तर आनन्द देवें ॥ ६ ॥
विषय
कुम्भों का मधु से सेचन
पदार्थ
१. हे (नरा) = आगे ले - चलनेवाले ! (नासत्या) = असत्य से दूर हटानेवाले प्राणापानो ! (वाम्) = आपका (तत्) = वह कार्य (पज्रियेण) = शक्तिशाली [powerful] , (कक्षीवता) = दृढनिश्चयी पुरुष से (परिज्मन्) = इस संसार - यात्रा में (शंस्यम्) = प्रशंसनीय होता है कि आप (वाजिनः) = शक्तिशाली (अश्वस्य) = कार्यों में व्याप्त रहनेवाले पुरुष के (शफात्) = शरीरवृक्ष के मूल [root of a tree] से , मूलाधारचक्र के समीप होनेवाले वीर्यकोश से (शतम्) = सौ वर्षपर्यन्त , जीवन - भर (कुम्भान्) = इन शरीर - कलशों को , अन्नमयादि कोशों को (मधूनां असिञ्चतम्) = मधुओं से - सोम [वीर्य] से सिक्त कर देते हो । प्राणसाधना से शक्ति की ऊर्ध्वगति होती है और वह सोम शरीर में ही व्याप्त हो जाता है । २. जीवनपर्यन्त ये शरीर - कलश सोमशक्ति से भरे रहते हैं और ये यथार्थतः कोश कहलाने के योग्य होते हैं । सोम को यहाँ मधु कहा गया है । जैसे मधु सब ओषधियों का सारभूत होता है , इसी प्रकार यह सोम अन्न का सारभूत होता है । वीर्यकोश में इसका सञ्चय होता है । प्राणापान इसे ऊर्ध्वगति देकर शरीर में व्याप्त करते हैं । यही शफ [root] से , मूल से मधु का ऊपर उठना है । ३. यह सोम का ऊपर उठना (जनाय) = सब प्रकार के विकासों के लिए होता है । सोम के शरीर में व्याप्त होने पर ही हमारी सब प्रकार की उन्नतियाँ होती हैं । हमारे जीवन में अश्विनीदेवों का यह कार्य तभी होता है जब हम ‘पज्रिय व कक्षीवान्’ बनते हैं । हमें शक्तिशाली और दृढ़निश्चयी बनकर इस प्राणसाधना के कार्य में प्रवृत्त होना है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से वीर्य की ऊर्ध्वगति होकर हमारे अन्नादि कोश शतवर्षपर्यन्त अपने - अपने ऐश्वर्य से परिपूर्ण रहते हैं ।
विषय
विद्वान् प्रमुख नायकों तथा स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।
भावार्थ
हे ( नासत्या नरा ) असत्याचरण से रहित सभा सेनाध्यक्षो ! उत्तम स्त्री पुरुषो ! ( पज्रियेण ) ज्ञान करने योग्य, शास्त्रों में विद्वान् ( कक्षीवता ) उत्तम नियम व्यवस्था में बद्ध पुरुष, ( वां ) तुम दोनों को ( तत् शंस्यम् ) उस ज्ञान का उपदेश करे जिससे ( वाजिनः ) वेगवान् ( अश्वस्य ) अश्व या अश्व सेना के ( शफाद् ) वेगवान् शत्रु शमनकारी आक्रमण से ही ( जनाय ) राष्ट्रवासी जन के सुख के लिये ( परिज्मन् ) मार्ग २ में ( मधूनां ) मधुर सुखकारी पदार्थों के ( शतं कुम्भान् ) जलों के घंटों के समान सैकड़ों पात्र ( आसिञ्चतम् ) आप दोनों प्रदान करो ।
टिप्पणी
विशेष देखो सू० ११६ । मन्त्र० । मेघ से जल के समान और घड़ों के जल से छिड़काव के समान राजा अपने पराक्रम से ऐश्वर्य सुख बरसा दे ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः–१ निचृत् पंक्तिः । ६, २२ विराट् पंक्तिः। २१, २५, ३१ भुरिक पंक्तिः। २, ४, ७, १२, १६, १७, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। ८, ९, १०, १३-१५, २०, २३ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ५, २४ त्रिष्टुप् ॥ धैवतः ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
राजपुरुषांनी माणसांच्या सुखासाठी रस्त्यावर घट भरून पाण्याचे सिंचन करावे. ज्यामुळे घोडे, बैल इत्यादींच्या पायाची धूळ उडता कामा नये व त्या मार्गावर सेना सुखाने जावी यावी. अशा प्रकारचे प्रशंसित कार्य करून प्रजेला सतत आनंदित ठेवावे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, dedicated to truth and nature, leaders of scientists and pharmacists, that work of yours is of universal value and worthy of praise by eminent scholars by which you manufacture a horse-hoof measure of herbal essence and from that prepare a hundred potfuls of honey sweet restorative tonics for the ailing people.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O President of the Assembly and commander of the Army, O good leaders, It is your noble act that you who are absolutely truthful being present with a noble ever alert learned teacher, you arrange hundred jars of water to be sprinkled daily on the roads for the convenience of all men and for the welfare of the hoof and speed of the horses.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(पज्त्रियेरण) प्राप्तव्येषु भवेन = Noble person who is to be attained or desired by all. (कक्षीवता) शिक्षकेन विदुषा सह = With the learned teacher. (शफात् ) खुरात् शंकरगति प्रापयतीति शफो वेगस्तस्माद् वा अत्रान्येभ्योऽपि दृश्यत इति डः पृषोदरादित्वान्मलोपः | (मधूनाम्) उदकानाम् । मध्वित्युदकनाम (निघ० १.१२.६ ) = From hoof or speed.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The King and officers of the State should get the water sprinkled with hundreds of water pots everyday for the comfort and happiness of all men, so that the dust from the hoofs of the horses may not go up and men of the army may go and come conveniently without any difficulty. They should please their subjects by doing such noble deeds for the welfare and comfort of all.
Translator's Notes
The word पज्त्रिय is drieved from पद-गतौ गतेस्त्रयोऽर्था: ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च अत्र प्राप्त्यर्थग्रहणम् पदधातोरौणदिकोरकू वर्णव्यत्ययेन दस्य जः, ततोभवार्थे घः ॥ कक्षीवान् has been explained by Rishi Dayananda Sarasvati as बृहतः कक्षयो विद्याप्रदेशा विदिताः सन्ति यस्य सः in Rig. 1. 126. 2 So it means a very learned person-knower of many sciences. कक्षा इत्यंगुलिनामसु (निघ० २.५) अत्र कक्षशव्दात् भवे छन्दसीति यत् । ततः प्रशंसायां मतुप् || Shri Sayanacharya explains असिञ्चतम् as अपूरयतम् though that is not the meaning in धातु पाठ It is षिच्-क्षरणे तुदा० Sayanacharya has therefore to add सिंचतित्र पूरणार्थ: Rishi Dayananda has given the natural and well-known meaning of sprinkling as shown above. Who is more faithful to the text is for impartial scholars to decide.
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