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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 117 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 117/ मन्त्र 18
    ऋषिः - कक्षीवान् देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    शु॒नम॒न्धाय॒ भर॑मह्वय॒त्सा वृ॒कीर॑श्विना वृषणा॒ नरेति॑। जा॒रः क॒नीन॑ इव चक्षदा॒न ऋ॒ज्राश्व॑: श॒तमेकं॑ च मे॒षान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शु॒नम् । अ॒न्धाय॑ । भर॑म् । अ॒ह्व॒य॒त् । सा । वृ॒कीः । अ॒श्वि॒ना॒ । वृ॒ष॒णा॒ । नरा॑ । इति॑ । जा॒रः । क॒नीनः॑ऽइव । च॒क्ष॒दा॒नः । ऋ॒ज्रऽअ॑श्वः । श॒तम् । एक॑म् । च॒ । मे॒षान् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शुनमन्धाय भरमह्वयत्सा वृकीरश्विना वृषणा नरेति। जारः कनीन इव चक्षदान ऋज्राश्व: शतमेकं च मेषान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शुनम्। अन्धाय। भरम्। अह्वयत्। सा। वृकीः। अश्विना। वृषणा। नरा। इति। जारः। कनीनःऽइव। चक्षदानः। ऋज्रऽअश्वः। शतम्। एकम्। च। मेषान् ॥ १.११७.१८

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 117; मन्त्र » 18
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राजविषयमाह ।

    अन्वयः

    हे वृषणा नराऽश्विना सा वृकीः शतमेकं च मेषानह्वयदितीव ऋज्राश्वश्चक्षदानो जारः कनीनइव युवामन्धाय भरं शुनमधत्तम् ॥ १८ ॥

    पदार्थः

    (शुनम्) सुखम् (अन्धाय) चक्षुर्हीनाय (भरम्) पोषणम् (अह्वयत्) उपदिशेत् (सा) (वृकीः) स्तेनस्त्री। अत्र सुपां० इति सोः स्थाने सुः। (अश्विना) सभासेनेशौ (वृषणा) सुखवर्षकौ (नरा) (इति) प्रकारार्थे (जारः) व्यभिचारी वृद्धो वा (कनीनइव) यथा प्रकाशमानो जनः (चक्षदानः) चक्षो विद्यावचो दीयते येन सः (ऋज्राश्वः) ऋजुगतिमदश्वः पुरुषः (शतम्) (एकम्) (च) समुच्चये (मेषान्) अवीन् ॥ १८ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। राजपुरुषा अविद्यान्धान् जनानन्यायकारिणां सकाशात्सतीः स्त्रीर्जाराणां संबन्धाद्वृकाणां सकाशादजाइव विमोच्य सततं पालयेयुः ॥ १८ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राज-विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (वृषणा) सुख वर्षाने और (नरा) धर्म-अधर्म का विवेक करनेहारे (अश्विना) सभा सेनाधीशो ! (सा) वह (वृकीः) चोर की स्त्री (शतम्) सौ (च) और (एकम्) एक (मेषान्) भेंड़-मेढ़ों को (अह्वयत्) हाँक देकर जैसे बुलावे (इति) इस प्रकार वा (ऋज्राश्वः) सीधी चाल चलनेहारे घोड़ोंवाला (चक्षदानः) जिससे कि विद्या वचन दिया जाता है उस (जारः) बुड्ढे वा जार कर्म करनेहारे चालाक (कनीनइव) प्रकाशमान मनुष्य के समान तुम (अन्धाय) अन्धे के लिये (भरम्) पोषण अर्थात् उसकी पालना और (शुनम्) सुख धारण करो ॥ १८ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। राजपुरुष अविद्या से अन्धे हो रहे जनों को अन्यायकारियों से, उत्तम सती स्त्रियों को लंपट वेश्याबाजों से, जैसे भेड़ियों से भेड़-बकरों को बचावें, वैसे निरन्तर बचा कर पालें ॥ १८ ॥

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    विषय

    शुनं भरम्

    पदार्थ

    १. प्रस्तुत मन्त्र में लोभवृत्ति ही मानो अश्विनीदेवों से कहती है कि (ऋज्राश्वः) = अर्जन ही - अर्जन में प्रवृत्त इन्द्रियाश्वोंवाले ऋज्राश्व ने (शतमेकं च) = अपने एक सौ एक , अर्थात् सब (मेषान्) = कर्तव्यों को (चक्षदानः) = उसी प्रकार टुकड़े - टुकड़े करके मेरे लिए दे दिया है (इव) = जैसे कि (कनीनः) = यौवन के सौन्दर्य से चमकनेवाला कोई (जारः) = पारदारिक [पर - पत्नी से प्रेम करनेवाला] पर - स्त्री के लिए अपना सब धन दे डालता है । यह तो अपने सब कर्तव्यों को भूल ही गया है । २. (सा वृकीः) = वह लोभवृत्ति ही इस (अन्धाय) = अन्धे बने हुए ऋज्राश्व के लिए (शुनम्) = सुख और (भरम्) = शरीर के उचित पोषण को (अह्वयत्) = आपसे माँगती है , (इति) = इस कारण से आपसे माँगती है कि आप (अश्विना) = इसे उचित कार्यों में व्याप्त करनेवाले हो [अश व्याप्तौ] , (वृषणा) = इसपर सुखों का वर्षण करनेवाले हो अथवा इसे शक्तिशाली बनानेवाले हो और (नरा) = [नॄ नये] इसे उन्नति - पथ पर ले - चलनेवाले हो । ३. लोभवृत्ति को भी ऋज्राश्व की दुर्दशा पर करुणा आ जाती है और वह उसकी दुर्दशा को दूर करने के लिए अश्विनीदेवों से प्रार्थना करती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - ऋज्राश्व लोभ की बलिवेदी पर सब कर्तव्यों की भेंट चढ़ा बैठता है , प्राणसाधना उसे फिर से कर्तव्य - परायण बनाती है ।

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    विषय

    सौ मेषों का रहस्य ऋज्राश्व की कथा का रहस्य।

    भावार्थ

    हे ( अश्विना ) विद्वान् प्रमुख पुरुषो ! हे ( घृषणा ) सुखों की प्रजा पर वर्षा करने हारे ! हे ( नरा ) नायको ! ( इति ) इस प्रकार से ( अन्धाय ) अन्धे राज्यकर्त्ता पुरुष को ही जो राज व्यवस्था ( शुनम् ) सुख और ( भरम् ) प्रजा के भरण पोषण का कार्य ( अह्वयत् ) करने को कहती है (सा) वही ( वृकीः ) वृक अर्थात् भेड़िया या बाघ के समान प्रजा का नाश करनेवाली होती है । इसलिये ( ऋज्राश्वः ) ऋजु अर्थात् धर्म मार्ग पर चलने वाले इन्द्रियों का स्वामी, जितेन्द्रिय राजा सदा ( जारः ) सूर्य के समान ( कनीनः ) दीप्तिमान् होकर ( शतम् एकं च ) सौ और एक अर्थात् १०१ मेष अर्थात् वर्षों तक ( चक्षदानः ) प्रकाशमान, रहकर प्रजा को ( शुनम् ) सुख और ( भरम् ) उसके भरण पोषण ( अह्वयत् ) करने के लिये आज्ञाएं देवे। मेष राशि का भोग करना सूर्य का एक वर्ष भोगना कहाता है। इसी कारण १०० या १०१ मेष का १०० या १०१ वर्ष ही ग्रहण करना उचित है । ( २ ) ( कनीनः जार इव ) युवति कन्या का उसकी पूर्ण आयु अर्थात् जरावस्था तक पहुंचने तेजस्वी वाला युवा पुरुष पति जिस प्रकार ( ऋज्राश्वः सन् ) जितेन्द्रिय होकर १०१ वर्षो तक ( शुनं भरम् अह्वयत् ) सुख पूर्वक उसका भरण पोषण करता है । उसी प्रकार वह धर्मात्मा राजा भी प्रजा का अपनी पूर्णायु तक पालन करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः–१ निचृत् पंक्तिः । ६, २२ विराट् पंक्तिः। २१, २५, ३१ भुरिक पंक्तिः। २, ४, ७, १२, १६, १७, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। ८, ९, १०, १३-१५, २०, २३ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ५, २४ त्रिष्टुप् ॥ धैवतः ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे लांडग्यापासून शेळ्या-मेंढ्यांना वाचविले जाते तसे राजपुरुषांनी अविद्येने अंध झालेल्या लोकांना अन्याय करणाऱ्या लोकांपासून वाचवावे व लंपट वेश्यागामी वृत्तींच्या पुरुषापासून सात्त्विक स्त्रियांना वाचवून त्यांचे पालन करावे. ॥ १८ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Ashvins, generous harbingers of the showers of comfort and joy, leading lights of humanity, bring peace, comfort and ample light of the eye for the poor blind as if the she-wolf herself were to call up and save the hundred and one innocent sheep, or an old wise man of experience, or the youthful spirit of hope, or the very pupil of the eye, or the light-giver for the eye of the fast horse rider were to bring comfort, safety and light for the needy.

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