ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 117/ मन्त्र 4
अश्वं॒ न गू॒ळ्हम॑श्विना दु॒रेवै॒ॠषिं॑ नरा वृषणा रे॒भम॒प्सु। सं तं रि॑णीथो॒ विप्रु॑तं॒ दंसो॑भि॒र्न वां॑ जूर्यन्ति पू॒र्व्या कृ॒तानि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअश्व॑म् । न । गू॒ळ्हम् । अ॒श्वि॒ना॒ । दुः॒ऽएवैः॑ । ऋषि॑म् । न॒रा॒ । वृ॒ष॒णा॒ । रे॒भम् । अ॒प्ऽसु । सम् । तम् । रि॒णी॒थः॒ । विऽप्रु॑तम् । दंसः॑ऽभिः । न । वा॒म् । जू॒र्य॒न्ति॒ । पू॒र्व्या । कृ॒तानि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्वं न गूळ्हमश्विना दुरेवैॠषिं नरा वृषणा रेभमप्सु। सं तं रिणीथो विप्रुतं दंसोभिर्न वां जूर्यन्ति पूर्व्या कृतानि ॥
स्वर रहित पद पाठअश्वम्। न। गूळ्हम्। अश्विना। दुःऽएवैः। ऋषिम्। नरा। वृषणा। रेभम्। अप्ऽसु। सम्। तम्। रिणीथः। विऽप्रुतम्। दंसःऽभिः। न। वाम्। जूर्यन्ति। पूर्व्या। कृतानि ॥ १.११७.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 117; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे नरा वृषणाश्विनादुरेवैर्दंसोभिः पीडितमश्वमिव विप्रुतं रेभमप्सु सुनिष्ठितं तमृषिं न सुखेन गूढं संरिणीथः। यतो वां युवयोः पूर्व्या कृतान्येतानि कर्माणि न जूर्य्यन्ति ॥ ४ ॥
पदार्थः
(अश्वम्) विद्युतम् (न) इव (गूढम्) गूढाशयम् (अश्विना) सभासेनेशौ (दुरेवैः) दुःखं प्रापकैर्दुष्टैर्मनुष्यादिप्राणिभिः (ऋषिम्) पूर्वोक्तम् (नरा) सुखनेतारौ (वृषणा) विद्यावर्षयितारौ (रेभम्) सकलविद्यागुणस्तोतारम् (अप्सु) विद्याव्यापकेषु वेदादिषु सुनिष्ठितम् (सम्) (तम्) (रिणीथः) (विप्रुतम्) विविधानां व्यवहाराणां वेत्तारम् (दंसोभिः) शिष्टानुष्ठितैः कर्मभिः (न) निषेधे (वाम्) युवयोः (जूर्य्यन्ति) जीर्य्यन्ति जीर्णानि भवेयुः (पूर्व्या) पूर्वैः कृतानि (कृतानि) कार्य्याणि विद्याप्रचाररूपाणि ॥ ४ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। राजपुरुषैर्यथा दस्युभिरपहृतं गुप्ते स्थाने स्थापितं पीडितमश्वं संगृह्य सुखेन संरक्ष्यते तथा मूढैर्दुष्कर्मकारिभिस्तिरस्कृतान् विद्याप्रचारकान्ममुष्यानखिलपीडातः पृथक्कृत्य संपूज्य सङ्गत्यैते सेव्यन्ते यानि च तेषां विद्युद्विद्याप्रचाराणि कर्माणि तान्यजरामराणि सन्तीति वेद्यम् ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (नरा) सुख की प्राप्ति (वृषणा) और विद्या की वर्षा करानेवाले (अश्विना) सभा सेनापतियो ! तुम दोनों (दुरेवैः) दुःख को पहुँचानेवाले दुष्ट मनुष्य आदि प्राणियों (दंसोभिः) और श्रेष्ठ विद्वानों ने आचरण किये हुए कर्मों से ताड़ना को प्राप्त (अश्वम्) अति चलनेवाली बिजुली के समान (विप्रुतम्) विविध प्रकार अच्छे व्यवहारों को जानने (रेभम्) समस्त विद्या गुणों की प्रशंसा करने (अप्सु) विद्या में व्याप्त होने और वेदादि शास्त्रों में निश्चय रखनेवाले (तम्) उस पूर्व मन्त्र में कहे हुए (ऋषिम्) वेद पारगन्ता विद्वान् के (न) समान (गूढम्) अपने आशय को गुप्त रखनेवाले सज्जन पुरुष को सुख से (सं, रिणीथः) अच्छे प्रकार युक्त करो, जिससे (वाम्, पूर्व्या, कृतानि) तुम लोगों के जो पूर्वजों ने किए हुए विद्याप्रचाररूप काम वे (न) नहीं (जूर्य्यन्ति) जीर्ण होते अर्थात् नाश को नहीं प्राप्त होते ॥ ४ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। राजपुरुषों से जैसे डाकुओं द्वारा हरे छिपे हुए स्थान में ठहराये और पीड़ा दिये हुए घोड़े को लेकर वह सुख के साथ अच्छी प्रकार रक्षा किया जाता है, वैसे मूढ़ दुराचारी मनुष्यों द्वारा तिरस्कार किये हुए विद्याप्रचार करनेवाले मनुष्यों को समस्त पीड़ाओं से अलगकर, सत्कार के साथ सङ्ग कर, ये सेवा को प्राप्त किये जाते हैं और जो उनके बिजुली की विद्या के प्रचार के काम हैं, वे अजर-अमर हैं, यह जानना चाहिये ॥ ४ ॥
विषय
दुःखों का नाश
पदार्थ
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! आप (दुरेवैः) = दुष्ट चालों से (गूढम्) = संवृत्त (अश्वं न) = अश्व के समान , अर्थात् जिस अश्व को दुष्ट चालों की आदत पड़ गई है , उस अश्व के समान (विप्रुतम्) = विरुद्ध गतियों में पड़े हुए (तम्) = उस (ऋषिं रेभम्) = अपने ज्ञानी [स्तोता] भक्त को , हे (नरा) = उन्नति - पथ पर ले - चलनेवाले (वृषणा) = शक्तिशाली प्राणापानो ! आप (दंसोभिः) = अपने कर्मों से (अप्सु) = व्यापक कार्यों में (संरीणीथः) = धारण करते हो [समधत्तम् - सा०] । (वाम्) = आपके ये (पूर्व्या कृतानि) = पूर्णता के सम्पादक कर्म (न जूर्यन्ति) = जीर्ण नहीं होते । २. प्राणसाधना से पूर्व एक व्यक्ति के कर्मों में कितनी भी अपूर्णता हो , प्राणसाधना होने पर , दोषों के दग्ध हो जाने से कर्मों में पवित्रता आ जाती है । प्राणापान को नरा इसलिए कहा गया है कि ये उन्नति - पथ पर ले - चलनेवाले हैं , वृषणा तो हैं ही । शक्ति की ऊर्ध्वगति के द्वारा ये साधक को शक्ति का पुञ्ज ही बना देते हैं । साधना से पूर्व विकृत चालवाले अश्व की भाँति हमारी जो भी विकृत क्रियाएँ थीं , वे सब दूर होकर हमारा आचरण ज्ञानीभक्त के आचरण के अनुरूप हो जाता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना हमारे कर्मों की विकृति को दूर करके हमें सुन्दर कर्मोंवाला बनाती है ।
विषय
विद्वान् प्रमुख नायकों तथा स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।
भावार्थ
( वृषणा अश्विना ) समस्त सुखों के वर्षक विद्वान् स्त्री पुरुषो ! एवं मुख्य अधिकारियो ! ( दुरेवैः ) दुःखदायी, दुर्गम मार्गों के अनवरत चलने आदि से पीड़ित, भय खाकर ( विप्रुतं ) भगे हुए ( गूढ़ं अश्वं न ) छुपे हुए अश्व को जिस प्रकार यत्न से आश्वासन पूर्वक खोजकर युक्ति से रथ आदि में पुनः लगाते हैं उसी प्रकार ( गूढ़ं ) अति गंभीर (ऋषिम्) ज्ञान के द्रष्टा, ( विश्रुतम् ) विविध ज्ञानों में निष्णात, (अप्सु रेभम् ) कार्यों और ज्ञानों में या आप्त जनों के बीच विद्वान्, प्रवचनकारी आचार्य ( तं ) उत्तम पुरुष को ( दंसोभिः ) विविध कार्यों से ( सं रिणीथः ) प्राप्त करो। ( वां ) आप लोगों के प्रति ( पूर्व्या ) पूर्व के विद्वानों के ( कृतानि ) किये ज्ञानोपदेश ( न जूर्यन्ति ) नष्ट नहीं होते। ( २ ) अध्यात्म में—गूढ़ भोक्ता आत्मा, अश्व के समान है । वही द्रष्टा होने से ‘ऋषि’, स्तुति कर्त्ता होने से ‘रेभ’ है । कर्म बंधनों से ‘विप्रुत’ अर्थात् विविध योनियों में चला जाता है । उसको ( दंसोभिः ) नाना कर्मानुष्ठानों द्वारा प्राप्त करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः–१ निचृत् पंक्तिः । ६, २२ विराट् पंक्तिः। २१, २५, ३१ भुरिक पंक्तिः। २, ४, ७, १२, १६, १७, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। ८, ९, १०, १३-१५, २०, २३ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ५, २४ त्रिष्टुप् ॥ धैवतः ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. डाकूंनी लुटलेल्या व गुप्त स्थानी लपविलेल्या त्रस्त अश्वांचे राजपुरुषांकडून रक्षण केले जाते तसे मूढ दुराचारी माणसांद्वारे तिरस्कृत केलेल्या, विद्या प्रचार करणाऱ्या माणसांची संपूर्ण त्रासापासून सुटका करून आदराने सेवा केली जाते. कारण त्यांचे जे विद्युत विद्येच्या प्रचाराचे काम आहे ते अजर अमर आहे हे जाणले पाहिजे. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Rebha, eminent scholar of knowledge and wisdom, dynamic and productive proclaimer of the secrets of science, is obscured among the lesser stars and kept back, by manipulators of evil design, straying around lost like a horse in the jungle. Ashvins, brave and generous heroes and leaders of humanity and guides of knowledge, redeem that seer of light with your noble actions, he would otherwise be lost and gone. All your actions, old and ancient as well as new, never fade away nor die out.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O leaders of happiness, showerers of knowledge, President of the Assembly and Commander of the Army, you protect a man who praises all sciences and virtues, is well-versed in the Vedas which are repositories of all knowledge, a seer revealing the secret wisdom, himself a great mystic, troubled by ignorant and stupid people like a horse troubled and hidden by hard-hearted persons. Such acts done by you for the preservation and propagation of knowledge never fade away. (They make you immortal).
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अश्वम्)विद्युतम = Electricity. (रेभम्) सकल विद्यागुणस्तोतारम् = Praise or admirer of all the sciences and virtues. (अप्सु)विद्याव्यापकेषु वेदादिषु सुनिष्ठितम् = Well versed in and devoted to the study of the Vedas etc. which are repositories of all knowledge. (विप्रुतम्) विविधानां व्यवहाराणाम् वेत्तारम् = Knower of all dealings.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is simile used in the Mantra. The King and officers of the State should protect the diffusers of knowledge who are troubled by ignorant and wicked persons, as a horse troubled and stolen away by robbers or thieves and kept in a hidden place is restored to its owner. They are honored, adored and served, for their actions like the propagation of electricity and other sciences are and immortal and undecidable. They do not fade away.
Translator's Notes
For the meaning of the word अश्वम् विद्युतम् see Shatapath Brahmanas 3. 6. 2. 5. अग्निर्वा अश्व: श्वेत: (शत० ३. ६. २.५ ) रेभ इति स्तोतृनाम (निघ० ३.१६) विप्रुतम् is derived from - विश्रृङ् गतोम्मतेरर्थेषु ज्ञानार्थग्रहणमत्र = Among the three meanings of गति the first of knowledge has been taken here. Though in the Vedic Lexicon Nighantu it is clearly stated in 3.16 रेभ इति स्तोतूनाम (निघ० ३.१६ ) Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and others take it to be the name of a particular sage अप्सु is from आप्लृ-व्याप्तौ hence Rishi Dayananda Sarasvati's interpretation as विद्याव्यापकेषु परिनिष्ठितम् ।
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