ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 117/ मन्त्र 8
यु॒वं श्यावा॑य॒ रुश॑तीमदत्तं म॒हः क्षो॒णस्या॑श्विना॒ कण्वा॑य। प्र॒वाच्यं॒ तद्वृ॑षणा कृ॒तं वां॒ यन्ना॑र्ष॒दाय॒ श्रवो॑ अ॒ध्यध॑त्तम् ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒वम् । श्यावा॑य । रुश॑तीम् । अ॒द॒त्त॒म् । म॒हः । क्षो॒णस्य॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । कण्वा॑य । प्र॒ऽवाच्य॑म् । तत् । वृ॒ष॒णा॒ । कृ॒तम् । वाम् । यत् । ना॒र्स॒दाय॑ । श्रवः॑ । अ॒धि॒ऽअध॑त्तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
युवं श्यावाय रुशतीमदत्तं महः क्षोणस्याश्विना कण्वाय। प्रवाच्यं तद्वृषणा कृतं वां यन्नार्षदाय श्रवो अध्यधत्तम् ॥
स्वर रहित पद पाठयुवम्। श्यावाय। रुशतीम्। अदत्तम्। महः। क्षोणस्य। अश्विना। कण्वाय। प्रऽवाच्यम्। तत्। वृषणा। कृतम्। वाम्। यत्। नार्सदाय। श्रवः। अधिऽअधत्तम् ॥ १.११७.८
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 117; मन्त्र » 8
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनरत्र राजधर्ममाह ।
अन्वयः
हे वृषणाऽश्विना युवं युवां महः क्षोणस्य सकाशाच्छ्यावाय कृण्वाय रुशतीमदत्तम्। यद्वां युवयोः प्रवाच्यं कृतं श्रवोऽस्ति तन्नार्सदायाध्यधत्तम् ॥ ८ ॥
पदार्थः
(युवम्) युवाम् (श्यावाय) ज्ञानिने। श्यैङ्धातोरौणादिको वन्। (रुशतीम्) प्रकाशिकां विद्याम् (अदत्तम्) दद्यातम् (महः) महतः (क्षोणस्य) अध्यापकस्य (अश्विना) बहुश्रुतौ (कण्वाय) मेधाविने (प्रवाच्यम्) प्रकर्षेण वक्तुं योग्यं शास्त्रम् (तत्) (वृषणा) बलिष्ठौ (कृतम्) कर्त्तव्यम् कर्म (वाम्) युवयोः (यत्) (नार्सदाय) नृषु नायकेषु सीदति तदपत्याय। (श्रवः) श्रवणम् (अध्यधत्तम्) उपरि धरतम् ॥ ८ ॥
भावार्थः
सभाध्यक्षेण यादृश उपदेशो धीमतः प्रति क्रियेत तादृश एव सर्वलोकाधीशायोपदिशेत्। एवमेव सर्वान् मनुष्यान् प्रति वर्त्तितव्यम् ॥ ८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर यहाँ राजधर्म का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ।
पदार्थ
हे (वृषणा) बलवान् (अश्विना) बहुत ज्ञान-विज्ञान की बातें सुने जाने हुए सभा सेनाधीशो ! (युवम्) तुम दोनों (महः) बड़े (क्षोणस्य) पढ़ानेवाले के तीर से (श्यावाय) ज्ञानी (कण्वाय) बुद्धिमान् के लिये (रुशतीम्) प्रकाश करनेवाली विद्या को (अदत्तम्) देवो तथा (यत्) जो (वाम्) तुम दोनों का (प्रवाच्यम्) भली-भाँति कहने योग्य शास्त्र (कृतम्) करने योग्य काम और (श्रवः) सुनना है (तत्) उसको तथा (नार्सदाय) उत्तम-उत्तम व्यवहारों में मनुष्य आदि को पहुँचानेहारे जनों में स्थित होते हुए के लड़के को (अध्यधत्तम्) अपने पर धारण करो ॥ ८ ॥
भावार्थ
सभाध्यक्ष पुरुष से जिस प्रकार का उपदेश अच्छे बुद्धिमानों के प्रति किया जाता हो, वैसा ही सब लोकों के स्वामी के लिये उपदेश करें। ऐसे ही सब मनुष्यों के प्रति वर्त्ताव करना चाहिये ॥ ८ ॥
विषय
श्री - तेजस् - ज्ञान
पदार्थ
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (युवम्) = आप (श्यावाय) = [श्यै गतौ] गतिशील पुरुष के लिए (रुशतीम्) = चमकती हुई , शोभा की कारणभूत लक्ष्मी को (अदत्तम्) = देते हो । प्राणसाधना से मनुष्य की क्रियाशीलता बढ़ती है और यह आरोचमान लक्ष्मी को प्राप्त करनेवाला बनता है । एवं प्राणसाधना अभ्युदय का हेतु बनती है । २. हे प्राणापानो ! आप (क्षोणस्य) = ज्ञान के निवासस्थानभूत आचार्य के (कण्वाय) = मेधावी शिष्य के लिए (महः) = तेजस्विता को देते हो । प्राणसाधना करनेवाला विद्यार्थी जहाँ आचार्य का प्रिय शिष्य बनकर ज्ञान का संग्रह करता है , वहाँ वह वीर्य की ऊर्ध्वगति से तथा वासनाओं से दूर रहकर वीर्यरक्षण से तेजस्वी भी बनता है । ३. हे (वृषणा) = शक्ति का वर्षण करनेवाले प्राणापानो ! (वाम्) = आपका (तत्) = वह (कृतम्) = कर्म (प्रवाच्यम्) = अत्यन्त प्रशंसा के योग्य हुआ (यत्) = कि आपने (नार्षदाय) = नार्षद के लिए (श्रवः) = ज्ञान को (अधि + अधत्तम्) = आधिक्येन धारण किया । नार्षद का अर्थ है नृ+षद्+पुत्र । ‘नृ’ से अभिप्राय माता - पिता व आचार्य का है , जो हमें जीवन - यात्रा में आगे और आगे ले - चलते हैं । उनके समीप रहनेवाला व्यक्ति नार्षद है । यह जीवन में उत्तम चरित्र और शीलवाला बनकर ज्ञानी बनता ही है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से क्रियाशीलता में वृद्धि होकर लक्ष्मी प्राप्त होती है , तेजस्विता व ज्ञान का लाभ होता है ।
विषय
विद्वान् प्रमुख नायकों तथा स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।
भावार्थ
हे ( वृषणा ) सुखों के वर्षण करने हारे, ( अश्विना ) प्रमुख राज्य के भोक्ता पुरुषो ! आप दोनों ( श्वावाय ) ज्ञानवान् पुरुष ( रुशतीम् ) दीप्ति से युक्त तेजस्विनी विद्या का ( अदत्तम् ) दान करो । ( शोणस्य ) उपदेश करने वाले अध्यापक या एक स्थान में गुरु के अधीन रह कर विद्याभ्यास करने वाले, अन्तेवासी, ब्रह्मचारी, (कण्वाय) ज्ञानवान् पुरुष के लिये ( महः ) महान् सामर्थ्य और तेज प्रदान करो। और ( यत् ) जो आप दोनों ( नार्षदाय ) नायक तथा प्रजा के पुरुषों के ऊपर शासक रूप से विराजने वाले अध्यक्ष और आचार्य को ( प्रवाच्यम् ) प्रवचन करने योग्य ( कृतम् ) सुसम्पन्न (श्रवः) ज्ञान और यश ( अधि अधत्तम् ) प्रदान करते हो ( वां तत् ) वह भी तुम दोनों का ही श्रेष्ठ काम है । ( २ ) अध्यात्म में—आत्मा ही चेतन और ज्ञानवान् होने से ‘श्याव’, देश में निवास करने से ‘क्षोण’, प्रकाश स्वरूप होने से ‘कण्व’, प्राण रूप देह के नायकों पर अधिष्ठाता होने से ‘नार्षद’ है । ज्ञान दीप्ति ‘रुशती’ है । ब्रह्म ज्ञान ‘महः’ है । आत्मज्ञान ‘श्रवः’ है । वह गुरुपदेश से प्राप्त होने से ‘प्रवाच्य’ है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः–१ निचृत् पंक्तिः । ६, २२ विराट् पंक्तिः। २१, २५, ३१ भुरिक पंक्तिः। २, ४, ७, १२, १६, १७, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। ८, ९, १०, १३-१५, २०, २३ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ५, २४ त्रिष्टुप् ॥ धैवतः ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
सभाध्यक्षाकडून ज्या प्रकारचा उपदेश चांगल्या बुद्धिमानांसाठी केला जातो तसाच सर्व लोकांच्या स्वामीसाठी करावा. असाच व्यवहार सर्व माणसांसाठी करावा. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, brave and generous harbingers of fulfilment for the lover of learning, give brilliance of knowledge for the learned teacher and his resident pupil, give great strength of will and purpose, and for the successor of the man presiding over people and pupils, give communicable knowledge, strength of action, right reputation and the will to listen above all.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Again the duties of a King are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O mighty highly educated leaders, President of the Assembly and commander of the Army! You give illuminating or shining knowledge to a wise and learned person through a good teacher, who utters always words of deep wisdom. You give to the son of a noble leader, the knowledge of the sublime shastra (which must be instructed) and of the duties to be performed.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(श्यावाय) ज्ञानिने | श्यैङ् धातोरौणादिको वन् = For a learned person. (रुशतीम् ) प्रकाशिकां विद्याम् = Illuminating knowledge. (क्षोणस्य) अध्यापकस्य = of a teacher. (कण्वाय) मेधाविने = To a wise man. (नार्सदाय) नृषुनायकेषु सीदति तदपत्याय = For the son of a leader.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The President should give proper instruction to intelligent persons and to rulers on earth. He should deal with all men lovingly and justly.
Translator's Notes
(रुशतीम् ) is from रुश- भासार्थ : धातुकल्पद्रुमादौ = Illuminating or shining (knowledge) (क्षोणस्य ) is derived from क्षु-शब्दे इत्यस्मादौणादिको न प्रत्ययः = Of a teacher who utters good words of wisdom. Sayanacharya gives two quite different so-called stories or myths in his commentary. In the first story, he explains क्षोण as क्षोणस्य-क्षोणाय दृष्टिराहित्येन गन्तुम् अशक्ताय एकस्मिन्नेव स्थाने निवसते कण्वाय महः तेजः - तैजसं चक्षुरिन्द्रियमदत्तम् || = Gave eye-sight to Kanva who was blind & therefore could not go anywhere. क्षि-निवास गत्योः According to the other quite different story.अपर आह = He explains क्षीणः as शब्दकारी वीणाबिशेष: तस्य श्रवः (शब्दम्) अध्यधत्तम् उषसो विज्ञानार्थमधिकं कुरुतम् ॥ Which of these two quite different stories is to be relied upon ? None of them, of course as they are imaginary or ingenuous. Rishi Dayananda Sarasvati never relied upon these absurd myths and gave derivative meanings of the Vedic words and Universal teachings. Even Prof. Wilson who has mainly translated Sayanacharya's Sanskrit Commentary into English was forced to remark in his notes on volume 1, P. 358. "The blindness of Kanwa is not adverted to in any of his hymns hither to met with.
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