Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 117 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 117/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कक्षीवान् देवता - अश्विनौ छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सु॒षु॒प्वांसं॒ न निर्ॠ॑तेरु॒पस्थे॒ सूर्यं॒ न द॑स्रा॒ तम॑सि क्षि॒यन्त॑म्। शु॒भे रु॒क्मं न द॑र्श॒तं निखा॑त॒मुदू॑पथुरश्विना॒ वन्द॑नाय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒षु॒प्वांस॑म् । न । निःऽऋ॑तेः । उ॒पऽस्थे॑ । सूर्य॑म् । न । द॒स्रा॒ । तम॑सि । क्षि॒यन्त॑म् । शु॒भे । रु॒क्मम् । न । द॒र्श॒तम् । निऽखा॑तम् । उत् । ऊ॒प॒थुः॒ । अ॒श्वि॒ना॒ । वन्द॑नाय ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुषुप्वांसं न निर्ॠतेरुपस्थे सूर्यं न दस्रा तमसि क्षियन्तम्। शुभे रुक्मं न दर्शतं निखातमुदूपथुरश्विना वन्दनाय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुषुप्वांसम्। न। निःऽऋतेः। उपऽस्थे। सूर्यम्। न। दस्रा। तमसि। क्षियन्तम्। शुभे। रुक्मम्। न। दर्शतम्। निऽखातम्। उत्। ऊपथुः। अश्विना। वन्दनाय ॥ १.११७.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 117; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजधर्मविषयमाह ।

    अन्वयः

    हे दस्राश्विना युवां वन्दनाय निर्ऋतेरुपस्थे तमसि क्षियन्तं सुषुप्वांसं न सूर्यं नाशुभे रुक्मं न दर्शतं निखातमुदूपथुः ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (सुषुप्वांसम्) सुखेन शयानम् (न) इव (निर्ऋतेः) भूमेः। निर्ऋतिरिति पृथिवीना०। निघं० १। १। (उपस्थे) उत्सर्गे (सूर्य्यम्) सवितारम् (न) इव (दस्रा) दुःखहिंसकौ (तमसि) रात्रौ। तम इति रात्रिना०। १। ७। (क्षियन्तम्) निवसन्तम् (शुभे) शोभनाय (रुक्मम्) सुवर्णम्। रुक्ममिति हिरण्यना०। निघं० १। २। (न) इव (दर्शतम्) द्रष्टव्यं रूपम् (निखातम्) फालकृष्टं क्षेत्रम् (उत्) उर्ध्वम (ऊपथुः) वपेतम् (अश्विना) कृषिकर्मविद्याव्यापिनौ (वन्दनाय) स्तवनाय ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    अत्र तिस्र उपमाः। यथा प्रजास्थाः प्राणिनः सुराज्यं प्राप्य रात्रौ सुखेन सुप्त्वा दिने स्वाभीष्टानि कर्माणि सेवन्ते, सुशोभायै सुवर्णादिकं प्राप्नुवन्ति, कृष्यादिकर्माणि कुर्वन्ति तथा सुप्रजाः प्राप्य राजपुरुषा महीयन्ते ॥ ५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    अब अगले मन्त्र में राजधर्म विषय को कहते हैं ।

    पदार्थ

    हे (दस्रा) दुःख का विनाश करनेवाले (अश्विना) कृषि कर्म को विद्या में परिपूर्ण सभा सेनाधीशो ! तुम दोनों (वन्दनाय) प्रशंसा करने के लिये (निर्ऋतेः) भूमि के (उपस्थे) ऊपर (तमसि) रात्रि में (क्षियन्तम्) निवास करते और (सुषुप्वांसम्) सुख से सोते हुए के (न) समान वा (सूर्य्यम्) सूर्य के (न) समान और (शुभे) शोभा के लिये (रुक्मम्) सुवर्ण के (न) समान (दर्शतम्) देखने योग्य रूप (निखातम्) फारे से जोते हुए खेत को (उदूपथुः) ऊपर से बोओ ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में तीन उपमालङ्कार हैं। जैसे प्रजास्थ जन अच्छे राज्य को पाकर रात्रि में सुख से सोके दिन में चाहे हुए कामों में मन लगाते हैं वा अच्छी शोभा होने के लिये सुवर्ण आदि वस्तुओं को पाते वा खेती आदि कामों को करते हैं, वैसे अच्छी प्रजा को प्राप्त होकर राजपुरुष प्रशंसा पाते हैं ॥ ५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सूर्य व स्वर्ण के समान

    पदार्थ

    १. (निर्ऋतेः उपस्थे) = दुराचार की गोद में (सुषुष्वासं न) = सोये हुए - से पुरुष को है (अश्विना) = प्राणापानो ! आप (वन्दनाय) = प्रभुस्तवन के लिए (उदूपथुः) = खड़ा करते हो । प्राणसाधना से सम्पूर्ण दुराचरण को छोड़कर यह पुरुष प्रभुस्तवन आदि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त हो जाता है । २. हे (दस्रा) = सब बुराइयों का क्षय करनेवाले प्राणापानो ! उस पुरुष को आप ऊपर उठाते हो जो (सूर्यं न) = सूर्य के समान था , परन्तु उस सूर्य के समान जो (तमसि क्षियन्तम्) = अन्धकार में निवास कर रहा हो । आकाश में चमकते हुए सूर्य को जब बादल ढक देते हैं , तब वह सूर्य अन्धकार में रह रहा होता है । बादल हटते हैं तो वह फिर से चमक उठता है । इसी प्रकार प्राणसाधना से वासना का आवरण हटता है और मनुष्य का निर्मल चरित्र चमक उठता है । ३. आप इस व्यक्ति को उन विपरीत कर्मों से इस प्रकार ऊपर उठा देते हो न जैसे कि (दर्शतं रुक्मम्) = एक दर्शनीय चमकीले स्वर्ण को जो (निखातम्) = भूमि में गड़ा हुआ होता है । इस सोने को ऊपर उठाते हैं तो यह (शुभे) = शोभा के लिए होता है । इसी प्रकार व्यसनों में गढ़े हुए इस पुरुष को प्राणापान ऊपर उठाते हैं और वह वन्दनादि शुभकर्मों में प्रवृत्त होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना के बिना मनुष्य अशुभाचरणों में पड़ा रहता है । प्राणसाधना से वह वन्दनादि कर्मों में प्रवृत्त होता है और सूर्य व स्वर्ण के समान चमक उठता है ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    विद्वान् प्रमुख नायकों तथा स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( दस्रा ) प्रजा के दुःखों को दूर करने वाले, दुष्ट पुरुषों के नाश करने वाले, ( अश्विना ) विद्वान् स्त्री पुरुषो ! एवं प्रमुख नायको ! ( सुसुप्वांस न ) सोते हुए पुरुष को जिस प्रकार जगा के खड़ा कर दिया जाता है उसी प्रकार ( निर्ऋतेः उपस्थे ) भूमि की पीठ पर मानो सोते हुए, ( निखातम् ) उसमें गड़े हुए, मिट्टी के नीचे पड़े अन्न को ( उद् ऊपथुः ) बीज वपन द्वारा उगाओ । ( तमसि क्षियन्तं ) अन्धकार में छुपे हुए ( सूर्यं न ) सूर्य के समान तेजस् या चेतना, आयु और जीवन देने वाले अन्न को उत्पन्न करो। और ( निखातं दर्शतं ) भीतर गड़े, दर्शनीय ( रुक्मं न ) दीप्तियुक्त सुवर्ण को जैसे (शुभे) शोभा अर्थात् शरीर भूषा के लिये खना जाता है उसी प्रकार देह में रुचि और दीप्ति को उत्पन्न करने वाले अन्न को भूमि से बीज वपन द्वारा प्राप्त करो। (२) इसी प्रकार स्त्री पुरुष भी अपने ही उत्पादक रमणकारी अंगों में सोते हुए से, अर्थात् गुप्त अन्धकार में रहते सूर्य के समान राजस तामस कर्म में निगूढ़, छुपे सुवर्ण के समान गुप्त जीवात्मा को बालक रूप में ( वन्दनाय ) अपनी कीर्ति के लिये ( उद् ऊपथुः ) वीर्य निषेक अर्थात् बीज वपन द्वारा उत्पन्न करें । (३) इसी प्रकार साधक स्त्री पुरुष भी भीतर सोते हुए अर्थात् गूढ़, ( तमसि क्षियन्तं ) तामस-आवरण में छुपे सूर्य के समान, स्वप्रकाश, सुवर्ण के समान कान्तिमान् आत्मा को ( वन्दनाय ) उत्तम स्तुति के लिये चुनें और उसका ज्ञान करें ।

    टिप्पणी

    रुक्माभंस्वप्नधीगम्यं तं विद्यात् शुक्रममृतम् । उप०। देखो० सू० ११६॥ ११॥१३॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः–१ निचृत् पंक्तिः । ६, २२ विराट् पंक्तिः। २१, २५, ३१ भुरिक पंक्तिः। २, ४, ७, १२, १६, १७, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। ८, ९, १०, १३-१५, २०, २३ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ५, २४ त्रिष्टुप् ॥ धैवतः ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात तीन उपमालंकार आहेत. जसे सुराज्य असेल तर प्रजा रात्री सुखाने झोपून दिवसा इच्छित कामात मन लावते शोभायमान होण्यासाठी सुवर्ण इत्यादी वस्तू प्राप्त केल्या जातात, शेती इत्यादी काम केले जाते. तसे चांगली प्रजा असेल तर राजपुरुषांची प्रशंसा होते. ॥ ५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, heroic and generous powers of action, destroyers of want and suffering, like the soul’s awareness covered in deep sleep, like the dormant seed enfolded in the soil, like the sun resting as if in the night cover of darkness, like the lovely shining fold buried in the folds of the earth, the face of beauty and truth is hidden. Awaken the awareness of life divine, generate the life of the seed, let the sun arise, bring out the hidden gold of the earth, and sow the seeds of life, energy and light so that all may see, honour and admire the grandeur of existence.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of a King are told in the fifth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O destroyers of miseries, experts, in the science of agriculture, for getting admiration, you put some seeds in the field, like a person sleeping in the lap of the mother earth fearlessly at night, like the ornament, used for embellishment and like the bright sun.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (निऋते:) भूमे: निॠतिरितिपृथिवीनाम (निध० १.१ ) = Of the earth. (तमसि) रात्रौ तम इति रात्रिनाम ( निघ० १.७ ) = At night. (अश्विना) कृषिकर्मविद्याव्यापिनौ = Experts in the science of agriculture. (वन्दनाय) स्तवनाय = For getting praise or admiration.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There are three similes used in the Mantra. As people sleep well and without any anxiety when there is a good Government and after getting up do their deeds in day time as men get gold and its ornaments for embellishment and as they do agriculture and other works, in the same manner, the king and officers of the State get delighted and are respected on getting good subjects.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top