ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 117/ मन्त्र 14
यु॒वं तुग्रा॑य पू॒र्व्येभि॒रेवै॑: पुनर्म॒न्याव॑भवतं युवाना। यु॒वं भु॒ज्युमर्ण॑सो॒ निः स॑मु॒द्राद्विभि॑रूहथुरृ॒ज्रेभि॒रश्वै॑: ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒वम् । तुग्रा॑य । पू॒र्व्येभिः॑ । एवैः॑ । पु॒नः॒ऽम॒न्यौ । अ॒भ॒व॒त॒म् । यु॒वा॒ना॒ । यु॒वम् । भु॒ज्युम् । अर्ण॑सः । निः । स॒मु॒द्रात् । विऽभिः॑ । ऊ॒ह॒थुः॒ । ऋ॒ज्रेभिः॑ । अश्वैः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
युवं तुग्राय पूर्व्येभिरेवै: पुनर्मन्यावभवतं युवाना। युवं भुज्युमर्णसो निः समुद्राद्विभिरूहथुरृज्रेभिरश्वै: ॥
स्वर रहित पद पाठयुवम्। तुग्राय। पूर्व्येभिः। एवैः। पुनःऽमन्यौ। अभवतम्। युवाना। युवम्। भुज्युम्। अर्णसः। निः। समुद्रात्। विऽभिः। ऊहथुः। ऋज्रेभिः। अश्वैः ॥ १.११७.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 117; मन्त्र » 14
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे पुनर्मन्यो युवानां कृतविद्यौ स्त्रीपुंसौ युवं युवां तुग्राय पूर्व्येभिरेवैः सुखिनावभवतम्। युवं युवां विभिरिव युक्तैर्ऋज्रेभिरश्वैरर्णसः समुद्राद्भुज्युं निरूहथुः ॥ १४ ॥
पदार्थः
(युवम्) युवाम् (तुग्राय) बलाय (पूर्व्येभिः) पूर्वैः कृतैः (एवैः) विज्ञानादिभिः (पुनर्मन्यौ) पुनः पुनर्मन्येते विजानीतस्तौ (अभवतम्) भवेतम् (युवाना) प्राप्तयौवनौ (युवम्) युवाम् (भुज्युम्) शरीरात्मपालकं पदार्थसमूहम् (अर्णसः) प्रचुरजलात् (निः) नितराम् (समुद्रात्) जलद्रावाधारात् (विभिः) वियति गन्तृभिः पक्षिभिरिव (ऊहथुः) वहतम् (ऋज्रेभिः) ऋजुगमकैः (अश्वैः) आशुगामिभिर्विद्युदादिना निर्मितैर्विमानादियानैः ॥ १४ ॥
भावार्थः
स्त्रीपुरुषौ पूर्वैराप्तैः कृतानि कर्माण्यनुष्ठाय धर्मयुक्तेन ब्रह्मचर्य्येण पूर्णा विद्या अवाप्य क्रियाकौशलेन विमानादियानानि संपाद्य भूगोलस्याभितो विहृत्य नित्यमानन्देताम् ॥ १४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (पुनर्मन्यौ) बार-बार जाननेवाले (युवाना) युवावस्था को प्राप्त विद्या पढ़े हुए स्त्री-पुरुषो ! (युवम्) तुम दोनों (तुग्राय) बल के लिये (पूर्व्येभिः) अगले सज्जनों से किये हुए (एवैः) विज्ञान आदि उत्तम व्यवहारों से सुखी (अभवतम्) होओ, (युवम्) तुम दोनों (विभिः) आकाश में उड़नेवाले पक्षियों के समान (ऋज्रेभिः) जिनसे हाल न लगे उन जोड़े हुए सरल चाल से चलाने और (अश्वैः) शीघ्र जानेवाले बिजुली आदि पदार्थों से बने हुए विमानादि यानों से (अर्णसः) अगाध जल से भरे हुए (समुद्रात्) समुद्र से पार (भुज्युम्) शरीर और आत्मा की पालना करनेवाले पदार्थों को (निरूहथुः) निर्वाहो अर्थात् निरन्तर पहुँचाओ ॥ १४ ॥
भावार्थ
स्त्री-पुरुष अगले महात्मा, ऋषि, महर्षियों ने किये जो काम हैं, उनका आचरण कर धर्मयुक्त ब्रह्मचर्य्य से शीघ्र पूर्ण विद्याओं को पाकर क्रिया की कुशलता से विमान आदि यानों को बनाकर भूगोल के सब ओर विहार कर नित्य आनन्दयुक्त हों ॥ १४ ॥
विषय
विषय - समुद्र से ऊपर
पदार्थ
१. हे (युवाना) = [यु मिश्रणामिश्रणयोः] बुराइयों को दूर करनेवाले और अच्छाइयों का हमारे साथ सम्पर्क करनेवाले प्राणापानो ! (युवम्) = आप (तुग्राय) = [तुज हिंसायाम्] अपने भोग - साधनों की वृद्धि के लिए औरों का हिंसन करनेवाले तुग्र के लिए (पूर्व्येभिः) = पालन व पूरण करनेवाले , शरीर को रोगों से बचानेवाले तथा मन की न्यूनताओं को दूर करके उसका पूरण करनेवाले (एवैः) = कर्मों से (पुनर्मन्यौ) = पुनः ज्ञान देनेवाले (अभवतम्) = होते हो । मनुष्य की प्रवृत्ति तनिक विषयों की ओर झुकी और उसका ज्ञान नष्ट हुआ । वह औरों की हिंसा करके भी अपने भोग - साधनों को जुटानेवाला हो जाता है । यही तन है । [तुज हिंसायाम] । प्राणसाधना से यह फिर ज्ञान प्राप्त करता है और इसकी तुग्रता नष्ट हो जाती है । २. हे प्राणापानो ! (युवम्) = आप (भुज्युम्) = इस भोगप्रवण व्यक्ति को (अर्णसः) = विषय - जल से परिपूर्ण (समुद्रात्) = इस भवसागर से (विभिः) = इन इन्द्रियरूप अश्वों के द्वारा [वि - horse] (निः ऊहथुः) = पार उतारते हो - बाहर करते हो , उन इन्द्रियाश्वों के द्वारा जो (ऋज्रेभिः) = ऋजुमार्ग से चलनेवाले हैं तथा (अश्वैः) = [अशू व्याप्तौ] सदा कर्मों में व्याप्त रहनेवाले हैं । प्राणापान की साधना से इन्द्रियों सरल व कर्मव्याप्त बनती हैं । इन्द्रियों के ऐसा बनने पर मनुष्य विषय - समुद्र में डूबने से बचा रहता है । ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना हमारे नष्ट ज्ञान को पुनः प्राप्त कराती है । हम भोगप्रवण न रहकर सरलतापूर्वक कर्मों को करनेवाले बनकर विषय - समुद्र से ऊपर ऊठ जाते हैं ।
विषय
विद्वान् प्रमुख नायकों तथा स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।
भावार्थ
हे स्त्री पुरुषो ! आप दोनो ! ( युवाना ) युवा, बलवान् और परस्पर संगत होकर ( तुग्राय ) शत्रुओं के नाशकारी, बल सम्पादन करने के लिये पालने योग्य, अथवा बलवान् पुत्र उत्पन्न करने के लिये (पूर्व्येभिः) पूर्व के विद्वानों से उपदेश किये ( एवैः ) ज्ञानों, उपायों और मार्गों से ( पुनर्मन्यौ अभवतम् ) पुनः मननशील या पुनः परस्पर सम्मत होवो और ( युवं ) तुम दोनों ( अर्णसः समुद्रात् ) जल से भरे समुद्र से ( भुज्युम् ) भोग योग्य रत्नादि ऐश्वर्य और व्यापार योग्य पदार्थ या परस्पर के सुख को ( विभिः ) विमानों और गतिशील नौकराआदि साधनों से और (ऋजैभिः अश्वैः) सधे हुए सुशील अश्वों से, या उत्तम कार्य में लगी इन्द्रियों से ( नि-ऊहथुः ) देश से देशान्तर ले जाया करो। ( २ ) अथवा—पूर्व के आचार्यों से दिखाये या सनातन से चले आये वेद ज्ञानों द्वारा पुनः मननशील होकर युवा होवें । और ( अर्णसः समुद्रात् ) जल के समुद्र से ( भुज्युम् ) भोग्य रत्नादि के समान स्त्री पुरुष जन ( ऋजैभिः विभिः अश्वैः ) ऋजु, सरल धर्म मार्ग में चलने वाले ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों से युक्त होकर ( भुज्युम् ) पालने योग्य वीर्य या ब्रह्मचर्य को ( निर् ऊहथुः ) धारण करें, या परस्पर भोग्य गृहस्थ कर्म का वहन करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः–१ निचृत् पंक्तिः । ६, २२ विराट् पंक्तिः। २१, २५, ३१ भुरिक पंक्तिः। २, ४, ७, १२, १६, १७, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। ८, ९, १०, १३-१५, २०, २३ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ५, २४ त्रिष्टुप् ॥ धैवतः ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
स्त्री-पुरुषांनी पूर्वीचे महात्मा ऋषी-महर्षींनी केलेल्या कार्याप्रमाणे आचरण करून धर्मयुक्त ब्रह्मचर्याने पूर्ण विद्या प्राप्त करून क्रियाकौशल्याने विमान इत्यादी यान तयार करून भूगोलात सर्वत्र वावरून सदैव आनंदात राहावे. ॥ १४ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Ashvins, masters of the secrets of nature, youth and age, for the sake of vitality and energy and by the acts and achievements of the ancients, you grow young and come to know each other again, and you carry the man of joy and tonics of rejuvenation from and beyond the bottomless ocean of water and air by transports flying like birds straight and unobstructed.
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