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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 117 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 117/ मन्त्र 11
    ऋषिः - कक्षीवान् देवता - अश्विनौ छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    सू॒नोर्माने॑नाश्विना गृणा॒ना वाजं॒ विप्रा॑य भुरणा॒ रद॑न्ता। अ॒गस्त्ये॒ ब्रह्म॑णा वावृधा॒ना सं वि॒श्पलां॑ नासत्यारिणीतम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सू॒नोः । माने॑न । अ॒श्वि॒ना॒ । गृ॒णा॒ना । वाज॑म् । विप्रा॑य । भु॒र॒णा॒ । रद॑न्ता । अ॒गस्त्ये॑ । ब्रह्म॑णा । व॒वृ॒धा॒ना । सम् । वि॒श्पला॑म् । ना॒स॒त्या॒ । अ॒र्ण्त्म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सूनोर्मानेनाश्विना गृणाना वाजं विप्राय भुरणा रदन्ता। अगस्त्ये ब्रह्मणा वावृधाना सं विश्पलां नासत्यारिणीतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सूनोः। मानेन। अश्विना। गृणाना। वाजम्। विप्राय। भुरणा। रदन्ता। अगस्त्ये। ब्रह्मणा। ववृधाना। सम्। विश्पलाम्। नासत्या। अरिणीतम् ॥ १.११७.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 117; मन्त्र » 11
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्युद्विद्योपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे रदन्ता सूनोरिव मानेन विप्राय वाजं गृणाना भुरणा नासत्या वावृधाना ब्रह्मणाऽगस्त्ये विश्पलां नाश्विना मित्रत्वेन प्रजया सह समरिणीतं सङ्गच्छेथाम् ॥ ११ ॥

    पदार्थः

    (सूनोः) स्वापत्यस्येव (मानेन) सत्कारेण (अश्विना) व्याप्नुवन्तौ (गृणाना) उपदिशन्तौ (वाजम्) सत्यं बोधम् (विप्राय) मेधाविने (भुरणा) सुखं धरन्तौ (रदन्ता) सुष्ठु लिखन्तौ (अगस्त्ये) अगस्तिषु ज्ञातव्येषु व्यवहारेषु साधूनि कर्माणि। अत्रागधातोरौणादिकस्तिः प्रत्ययोऽसुडागमश्च। (ब्रह्मणा) वेदेन (वावृधाना) वर्द्धमानौ। अत्र तुजादित्वादभ्यासदीर्घः। (सम्) (विश्पलाम्) विशां पालिकां विद्याम् (नासत्या) (अरिणीतम्) गच्छतम् ॥ ११ ॥

    भावार्थः

    अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। यथा मातापितरावपत्यान्यपत्यानि च मातापितरावध्यापकाः शिष्यान् शिष्या अध्यापकांश्च पतयः स्त्रीः स्त्रियः पतींश्च सुहृदो मित्राणि परस्परं प्रीणन्ति तथैव राजानः प्रजाः प्रजाश्च राज्ञः सततं प्रीणन्तु ॥ ११ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर बिजुली की विद्या का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ।

    पदार्थ

    हे (रदन्ता) अच्छे लिखनेवाले ! (सूनोः) अपने लड़के के समान (मानेन) सत्कार से (विप्राय) अच्छी सुध रखनेवाले बुद्धिमान् जन के लिये (वाजम्) सच्चे बोध को (गृणाना) उपदेश और (भुरणा) सुख धारण करते हुए (नासत्या) सत्य से भरे-पूरे (वावृधाना) वृद्धि को प्राप्त और (ब्रह्मणा) वेद से (अगस्त्ये) जानने योग्य व्यवहारों में उत्तम काम के निमित्त (विश्पलाम्) प्रजाजनों के पालनेवाली विद्या को (अश्विना) प्राप्त होते हुए सभासेनाधीशो ! तुम दोनों मित्रपने से प्रजा के साथ (समरिणीतम्) मिलो ॥ ११ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। जैसे माता-पिता संतानों और संतान माता-पिताओं, पढ़ानेवाले पढ़नेवालों और पढ़नेवाले पढ़ानेवालों, पति स्त्रियों और स्त्री पतियों तथा मित्र मित्रों को परस्पर प्रसन्न करते हैं, वैसे ही राजा प्रजाजनों और प्रजा राजजनों को निरन्तर प्रसन्न करें ॥ ११ ॥

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    विषय

    शक्ति , ज्ञान व

    पदार्थ

    १. (सूनोः) = [षू प्रेरणे] प्रेरणा देनेवाले प्रभु के (मानेन) = [मानयति] ज्ञान प्राप्त करनेवाले पुरुष से (गृणाना) = स्तुति किये जाते हुए (अश्विना) = हे प्राणापानो ! आप उस (विप्राय) = ज्ञानी पुरुष के लिए (भुरणा) = भरण व पोषण करनेवाले होते हो और (वाजं रदन्ता) = शक्ति को सिद्ध करते हो [रदन्ता - निष्पादयन्तौ] । प्रभु के ज्ञान की प्राति की ओर झुकाववाला व्यक्ति प्राणसाधना करता है । इस प्राणसाधना से जहाँ उसका ठीक से भरण - पोषण होता है , वहाँ उसे शक्ति प्राप्त होती है । २. (अगस्त्ये) = अगस्त्य में (ब्रह्मणा) = ज्ञान के द्वारा आप (वावृधाना) = सब शक्तियों का वर्धन करनेवाले होते हो । ‘तपोऽतिष्ठत्तप्यमानः समुद्रे’ इस ब्रह्मचर्यसूक्त के मन्त्रभाग में अत्यन्त बढ़े हुए ज्ञानवाले आचार्य को समुद्र कहा गया है । अगस्त्य वह है जो इस ज्ञान - समुद्र को पीने का प्रयत्न करता है , उसके मुख से निकलते हुए ज्ञान के शब्दों को पीता चलता है । इस ज्ञान के पान से ही वस्तुतः वह अगम् = पाँच पर्वोंवाले अविद्या - पर्वत को (अस्यति) = अपने से दूर फेंकनेवाला होता है । ३. अब शक्ति और ज्ञान प्राप्त करके हे (नासत्या) प्राणापानो ! आप (विश्पलाम्) = प्रजाओं के पालन की वृत्ति को (सम् अरिणीतम्) = हमारे साथ संगत करते हो । इस शक्तिशाली ज्ञानी पुरुष की प्रवृत्ति लोकसंग्रहात्मक कर्मों की ओर होती है । यज्ञात्मक कर्मों में लगा हुआ यह प्रभु का प्रिय बनता है । प्रभु का ज्ञानीभक्त ‘सर्वभूतहिते रतः’ तो होता ही है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से [क] शक्ति प्राप्त होती है , [ख] ज्ञान की वृद्धि होती है , और [ग] लोकसंग्रहात्मक कर्मों की ओर प्रवृत्ति होती है ।

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    विषय

    विद्वान् प्रमुख नायकों तथा स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( अश्विना ) विद्वान् स्त्री पुरुषो ! आप दोनों ( भुरणा ) पालन पोषण करने में समर्थ (सूनोः) पुत्र के ( मानेन ) समान ( गृणाना ) उपदेश किये जाकर (विप्राय) मेधावी, ज्ञानवान् पुरुष को ( वाजं रदन्ता) अन्न प्रदान करते हुए, ( अगस्त्ये ) ज्ञान देने में कुशल पुरुष तथा वेदोक्त कर्म के आश्रय रह कर ( ब्रह्मणा ) वेद और ब्रह्मचर्य द्वारा ( वावृधाना ) बढ़ते हुए, ( नासत्या ) कभी असत्याचरण न करते हुए ( विश्पलां ) प्रजा वर्ग के पालन करने वाली नीति को ( सम् रिणीतम् ) अच्छी प्रकार चलाओ । [२] इसी प्रकार ( अश्विना ) राष्ट्र के दो प्रमुख नायक या राजा रानी दोनों (विप्राय) विविध ऐश्वर्यो से राज्य को पूरने वाले विद्वान् वर्ग के लिये ( सूनोः मानेन ) सर्व प्रेरक सूर्य के ज्ञान से, या पुत्र के समान मान कर (गृणाना) उपदेश और आज्ञा वचन कहते हुए ( वाजम् ) सुवर्ण, रजत, रत्न आदि ऐश्वर्य और अन्न को ( रदन्ता ) भूमि से खन कर प्राप्त करते हुए, ( अगस्त्ये ब्रह्मणा ) सूर्य के आश्रय पर जल से, और ज्ञानी पुरुष के आश्रय पर ब्रह्म ज्ञान से बढ़ते हुए, प्रजा पालन की नीति को सदा सत्य स्वभाव, न्यायवान् होकर पालन करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः–१ निचृत् पंक्तिः । ६, २२ विराट् पंक्तिः। २१, २५, ३१ भुरिक पंक्तिः। २, ४, ७, १२, १६, १७, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। ८, ९, १०, १३-१५, २०, २३ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ५, २४ त्रिष्टुप् ॥ धैवतः ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात लुप्तोपमालंकार आहे. जसे माता-पिता संतानांना, संतान मातापित्यांना, अध्यापक अध्येतांना, अध्येता अध्यापकांना पती पत्नींना व पत्नी पतींना आणि मित्र मित्रांना परस्पर प्रसन्न करतात तसेच राजाने प्रजेला व प्रजेने राजाला सदैव प्रसन्न ठेवावे. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, lovers and defenders of truth and rectitude, generous harbingers of comfort, prosperity and happiness, sung and celebrated by the honour and reverence of the admirer and the lover of soma like a son, opening the channels of food, energy and knowledge for the pious and intelligent people, rising by the light of omniscience in knowledge and acts of charity in the service of Divinity, release the flow of vision, will and right policy for the advancement of humanity on the path of progress.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The science of telegraphy is taught further in the 11th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O President of the Assembly and Commander of the Army who are absolutely truthful, who write so well and are nourishers of men, you should have that friendship, respect and love towards the subjects, as a son has towards his parents and parents towards their children. You should mingle with your subjects, give true knowledge to a wise man, growing with Vedic wisdom and imparting that to others as it protects all people, so that they may always perform noble deeds.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (रदन्तौ ) सुष्ठु लिखन्तौ = Writing well. The rulers and other officers of the State should write well and should preserve all important documents. This refutes the wrong theory that in the Vedic age writing was not known. [ रद - विलेखने ] Tr. (अगस्त्ये) अगस्तिषु ज्ञातव्येषु व्यवहारेषु साधूनि कर्मणि । अत्र अग गतौ इति धातोरौणादिकस्तिप्रत्ययोऽसुडागमश्च । (विसेस्तिः उण० ४.१८०) (विष्पलाम् ) विशां पालिकां विघाम् । = The knowledge that protects all subjects.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As parents please their children and children please their parents, as teachers please their pupils and pupils please their teachers, as husbands please their wives and wives please their husbands and as friends please one another, in the same manner, rulers should always please their subjects and the subjects should constantly please their rulers.

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