ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 117/ मन्त्र 12
कुह॒ यान्ता॑ सुष्टु॒तिं का॒व्यस्य॒ दिवो॑ नपाता वृषणा शयु॒त्रा। हिर॑ण्यस्येव क॒लशं॒ निखा॑त॒मुदू॑पथुर्दश॒मे अ॑श्वि॒नाह॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठकुह॑ । यान्ता॑ । सु॒ऽस्तु॒तिम् । का॒व्यस्य॑ । दिवः॑ । न॒पा॒ता॒ । वृ॒ष॒णा॒ । श॒यु॒ऽत्रा । हिर॑ण्यस्यऽइव । क॒लश॑म् । निऽखा॑तम् । उत् । ऊ॒प॒थुः॒ । द॒श॒मे । अ॒श्वि॒ना॒ । अह॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
कुह यान्ता सुष्टुतिं काव्यस्य दिवो नपाता वृषणा शयुत्रा। हिरण्यस्येव कलशं निखातमुदूपथुर्दशमे अश्विनाहन् ॥
स्वर रहित पद पाठकुह। यान्ता। सुऽस्तुतिम्। काव्यस्य। दिवः। नपाता। वृषणा। शयुऽत्रा। हिरण्यस्यऽइव। कलशम्। निऽखातम्। उत्। ऊपथुः। दशमे। अश्विना। अहन् ॥ १.११७.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 117; मन्त्र » 12
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे यान्ता नपाता वृषणा शयुत्राऽश्विना युवां दशमेऽहन् हिरण्यस्येव निखातं कलशं दिवः काव्यस्य सुष्टुतिं कुहोदूपथुः ॥ १२ ॥
पदार्थः
(कुह) कुत्र (यान्ता) गच्छन्तौ (सुष्टुतिम्) प्रशस्तां स्तुतिम् (काव्यस्य) कवेः कर्मणः (दिवः) विज्ञानयुक्तस्य (नपाता) अविद्यमानपतनौ (वृषणा) श्रेष्ठौ कामवर्षयितारौ (शयुत्रा) यौ शयून् शयानान् त्रायतस्तौ (हिरण्यस्येव) यथा सुवर्णस्य (कलशम्) घटम् (निखातम्) मध्यावकाशम् (उत्) (ऊपथुः) वपतः (दशमे) (अश्विना) (अहन्) दिने ॥ १२ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथा धनाढ्याः सुवर्णादीनां पात्रेषु दुग्धादिकं संस्थाप्य प्रपच्य भुञ्जानाः स्तूयन्ते तथा शिल्पिनावेतद्विद्यान्यायमार्गेषु प्रजाः संवेश्य धर्मन्यायोपदेशैः परिपक्वाः संसाध्य राज्यश्रीसुखं भुञ्जानौ प्रशंसितौ कुह स्याताम् ? धार्मिकेषु विद्वत्स्वित्युत्तरम् ॥ १२ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (यान्ता) गमन करने (नपाता) न गिरने (वृषणा) श्रेष्ठ कामनाओं की वर्षा कराने और (शयुत्रा) सोते हुए प्राणियों की रक्षा करनेवाले (अश्विना) सभा सेनाधीशो ! तुम दोनों (दशमे) दशवें (अहन्) दिन (हिरण्यस्येव) सुवर्ण के (निखातम्) बीच में पोले (कलशम्) घड़ा के समान (दिवः) विज्ञानयुक्त (काव्यस्य) कविताई की (सुष्टुतिम्) अच्छी बढ़ाई को (कुह) कहाँ (उदूपथुः) उत्कर्ष से बोते हो ॥ १२ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे धनाढ्यजन सुवर्ण आदि धातुओं के वासनों में दूध, घी, दही आदि पदार्थों को धर और उनको पकाकर खाते हुए प्रशंसा पाते हैं, वैसे दो शिल्पीजन इस विद्या और न्यायमार्गों में प्रजाजनों का प्रवेश कराकर धर्म और न्याय के उपदेशों से उनको पक्के कर राज्य और धन के सुख को भोगते हुए प्रशंसित कहाँ होवें ? इसका यह उत्तर है कि धार्मिक विद्वान् जनों में होवें ॥ १२ ॥
विषय
‘काव्य’ द्वारा अश्विनी - स्तवन
पदार्थ
१. हे प्राणापानो ! आप (काव्यस्य) = कवि के पुत्र , अर्थात् अत्यन्त क्रान्तदर्शी मेरे द्वारा की जानेवाली (सुष्टुतिम्) = उत्तम स्तुति व आराधना को (कुह) = किस समय [कब] (यन्ता) = प्राप्त होओगे ? कब मैं क्रान्तदर्शी बनकर , समझदार बनकर आपकी आराधना में लगूंगा ? २. आप (दिवः न पाता) = ज्ञान के नष्ट न होने देनेवाले हो । प्राणसाधना से बुद्धि तीव्र होकर ज्ञान - उन्नति होती है , ज्ञान में कमी नहीं आती । (वृषणा) = आप अपने साधक को शक्तिशाली बनाते हो , (शयुत्रा) = परमात्मा में निवास करनेवाले [शयु] का आप त्राण करते हो । प्राणसाधना से वृत्ति प्रभु प्रवण बनती है और मनुष्य रोगों तथा पापों का शिकार होने से बचा रहता है । ३. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! आप (हिरण्यस्य) = सोने के (निखातम्) = गाढ़े हुए (कलशम् इव) = कलश की भाँति विषयों में फंसे हुए पुरुष को (दशमे अहन्) = दस दशकोंवाले जीवन के इस दसवें दिन में (उदूपथुः) = ऊपर प्राप्त कराते हो । जैसे स्वर्णकलश जब तक गढ़ा रहता है , चमकता नहीं , ऊपर आते ही चमकने लगता है , इसी प्रकार विषयों में आसक्त पुरुष अपनी श्री को खो बैठता है । प्राणसाधना इसे विषयों से ऊपर उठाती है और पुनः शोभा - सम्पन्न बनाती है । प्राणसाधना जब नियमपूर्वक चलेगी तो मनुष्य अवश्य काम - क्रोधादि को जीतकर वैषयिक वृत्ति से ऊपर उठेगा और जीवन के दसवें दशक में भी शोभा - सम्पन्न बना रहेगा । इसकी शक्तियों का ह्रास नहीं होगा और श्री इसे अन्त तक न छोड़ेगी । ४. मनुष्य का यह शरीर हिरण्यकलश के समान है । जैसे भूमि में गाढ़ दिये जाने पर हिरण्यकलश अपनी शोभा खो बैठता है , इसी प्रकार हम विषय वासनारूपी मिट्टी में गढ़ जाते हैं और अपनी शोभा खो बैठते हैं । प्राणसाधना हमें ऊपर उठाती है और फिर से चमक प्राप्त कराती है ।
भावार्थ
भावार्थ - समझदार व्यक्ति प्राणसाधना करता है । इससे उसका ज्ञान नष्ट नहीं होता , शक्ति बनी रहती है , प्रभु - प्रवणता प्राप्त होती है और विषयासक्ति से ऊपर उठकर यह ९० या ९५ वर्ष में भी श्रीसम्पन्न बना रहता है ।
विषय
विद्वान् प्रमुख नायकों तथा स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।
भावार्थ
हे ( दिवः ) ज्ञान विज्ञान युक्त सूर्य के समान प्रकाशमान, ( काव्यस्य ) परम मेधावी परमेश्वर के रचे हुए वेदमय ज्ञान को अथवा ( दिवः ) तेजोमय वीर्य, ब्रह्मचर्य को ( नपाता ) कभी नष्ट न करते हुए ( वृषणा ) बलवान् वीर्य सेचन में समर्थ युवा ( अश्विना ) स्त्री पुरुषो ! आप दोनों ( सुस्तुतिं यन्ता ) उत्तम स्तुति को या कीर्ति को प्राप्त करते यशस्वी होकर ( हिरण्यस्य ) सुवर्ण के भरे ( निखातं कलशम् इव ) गड़े हुए कलसे के समान ( कुह शयुत्रा ) किस शयन स्थान पर या ( कुह ) किस आश्रम में और किस महान् उद्देश्य के निमित्त (शयुत्रा) शयन करते हुए ( दशमे अहन् ) दसवें दिन ( हिरण्यस्य ) हित और रमण योग्य, हुए, एवं आत्मा के ( निखातं ) गुप्त रूप से छुपे ( कलशं ) षोडशकला युक्त आत्मा रूप बीज को ( उद् ऊपथुः ) उत्तम रूप से बीज वपन करते हो । रजो दर्शन से दसवें दिन अर्थात् स्नान से पांचवीं रात्रि गर्भाधान करने पर सन्तान अति उत्तम होती है यह गर्भ विज्ञान वादियों का सिद्धान्त है । किस आश्रम में ? यह प्रश्न है । गृहस्थ में । यह उत्तर है । [ २ ] राष्ट्र के प्रमुख पाठक भी ( दिवः नपाता ) न्याय प्रकाश और राजसभा को स्थिर रखने वाले, बलवान् ( शयुत्रा ) सुख से होती हुई प्रजा को पालन करने वाले होकर सुवर्ण से भरे कलसे के समान ( दशमे अहनि ) दसवें दिन ( कुह निखातम् उदूपथुः ) किस आश्रय पर उदवपन करते हैं अर्थात् समस्त शक्ति का वपन करते हैं ? उत्तर है राजा या विद्वानों के आश्रय पर नव दिनों के अनन्तर दसवें दिन राज्याभिषेक होता है । [ ३ ] ( दिवः नपाता ) सूर्य के पुत्र के समान दिन और रात्रि से उत्पन्न हिरण्य कलश के समान तेजस्वी सूर्य को उत्पन्न करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः–१ निचृत् पंक्तिः । ६, २२ विराट् पंक्तिः। २१, २५, ३१ भुरिक पंक्तिः। २, ४, ७, १२, १६, १७, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। ८, ९, १०, १३-१५, २०, २३ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ५, २४ त्रिष्टुप् ॥ धैवतः ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपकालंकार आहे. जसे धनाढ्य लोक सुवर्ण इत्यादी धातूंच्या भांड्यात दूध, तूप, दही इत्यादी पदार्थ ठेवून शिजवून खातात व प्रशंसेस पात्र होतात. तसेच शिल्पीजन (कारागीर लोक) विद्या व न्यायाने प्रजेला मार्गी लावून धर्म व न्यायाच्या उपदेशाने त्यांना परिपक्व करतात. राज्याचे व धनाचे सुख भोगत प्रशंसित होऊन ते कोणत्या स्थानी निवास करतील? तर त्याचे उत्तर असे की धार्मिक विद्वान लोकात निवास करतील. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, children of light, generous and brave, guardians of sleeping humanity, moving on the paths of divinity, where do you find celebration in poetry and discover the golden vessel of spiritual treasure buried under the folds of earthly existence, on the tenth day of yajnic performance, and then sow the seeds of piety? (The answer is: among the lovers of knowledge, children of divinity).
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O active, never falling down showerers of noble desires, learned President of the Assembly and Commander of the Army, protecting sleeping people, like a hidden vessel full of gold, where did you show the seed of poetry full of sublime wisdom, on the tenth day ?
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(दिव:) विज्ञानयुक्तस्य = Full of wisdom. (शयुत्रा) यौ शयून् - शयानान् त्रायतः तौ = Protecting the sleeping men and women.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As rich men keep milk and other articles in the Vessels of gold and silver etc. and are glorified on account of their virtues, in the same manner, artists establishing the people in the paths of knowledge and justice and making them mature by the sermons on wisdom and justice, enjoying the prosperity and beauty of the kingdom and being admired by all, where do they dwell? The answer to this question is that they dwell among or in association with the righteous and learned persons.
Translator's Notes
Sayanacharya gives two different interpretations of शयुत्ना which is so clear, as explained by Rishi Dayananda Sarasvati in the manure given above. It shows the duty of the President of the Assembly and other officers of the State to make arrangements for proper watch at night so that men and women may sleep well without any anxiety. Sayanacharya takes it to mean (1) शयुना-शयने निवासस्थाने or in dwelling. (2) शयुत्नेत्येतदश्विनोविशेषणम् । शयुनाम्नस्त्रायको Protector of a person named This is erroneous as it is opposed to the Principles of the Vedic terminology as it is given in the Meemansa aphorisms like परन्तु श्रुति सामान्य मात्रम् (मीमांसा १-३३ ) There can not be proper nouns in the Vedas but only common nouns denoting certain attributes. Even Sayanacharya admits that there is no mention of Rebha in the text and yet supposes the reference to him. The exact significance of the दशमेऽहन् or tenth day is a matter of research yet. It may signify that after testing the ability and other virtues of the pupil, secret knowledge may be given to him.
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