ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 117/ मन्त्र 25
ए॒तानि॑ वामश्विना वी॒र्या॑णि॒ प्र पू॒र्व्याण्या॒यवो॑ऽवोचन्। ब्रह्म॑ कृ॒ण्वन्तो॑ वृषणा यु॒वभ्यां॑ सु॒वीरा॑सो वि॒दथ॒मा व॑देम ॥
स्वर सहित पद पाठए॒तानि॑ । वा॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ । वी॒र्या॑णि । प्र । पू॒र्व्याणि॑ । आ॒यवः॑ । अ॒वो॒च॒न् । ब्रह्म॑ । कृ॒ण्वन्तः॑ । वृ॒ष॒णा॒ । यु॒वऽभ्या॑म् । सु॒ऽवीरा॑सः । वि॒दथ॑म् । आ । व॒दे॒म॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एतानि वामश्विना वीर्याणि प्र पूर्व्याण्यायवोऽवोचन्। ब्रह्म कृण्वन्तो वृषणा युवभ्यां सुवीरासो विदथमा वदेम ॥
स्वर रहित पद पाठएतानि। वाम्। अश्विना। वीर्याणि। प्र। पूर्व्याणि। आयवः। अवोचन्। ब्रह्म। कृण्वन्तः। वृषणा। युवऽभ्याम्। सुऽवीरासः। विदथम्। आ। वदेम ॥ १.११७.२५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 117; मन्त्र » 25
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स्त्रीपुरुषौ कदा विवाहं कुर्यातामित्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे वृषणाऽश्विना वां यान्येतानि पूर्व्याणि वीर्याणि कर्माणि तान्यायवः प्रवोचन् युवभ्यां ब्रह्म कृण्वन्तो सुवीरासो वयं विदथमावदेम ॥ २५ ॥
पदार्थः
(एतानि) प्रशंसितानि (वाम्) युवयोः (अश्विना) प्रशंसितकर्मव्यापिनौ स्त्रीपुरुषौ (वीर्याणि) पराक्रमयुक्तानि कर्माणि (प्र) (पूर्व्याणि) पूर्वैर्विद्वद्भिः कृतानि (आयवः) मनुष्याः। आयव इति मनुष्यना०। निघं० २। ३। (अवोचन्) वदन्तु (ब्रह्म) अन्नं धनं वा। ब्रह्मेत्यन्नना०। निघं० २। ७। तथा ब्रह्मेति धनना०। निघं० २। १०। (कृण्वन्तः) निष्पादयन्तः (वृषणा) विद्यावर्षकौ (युवाभ्याम्) प्राप्तयुवावस्थाभ्यां युवाभ्याम् (सुवीरासः) सुशिक्षाविद्यायुक्ता वीराः पुत्राः पौत्रा भृत्याश्च येषां ते (विदथम्) विज्ञानकारकमध्ययनाध्यापनं यज्ञम् (आ) (वदेम) उपदिशेम ॥ २५ ॥
भावार्थः
मनुष्या यैर्विद्वद्भिर्लोकोपकारकाणि विद्याधर्मोपदेशप्रचाराणि कर्माणि कृतानि क्रियन्ते वा तेषां प्रशंसामन्नादिना धनेन वा तत् सेवां च सततं कुर्वन्तु। नहि केचिद्विद्वत्सङ्गेन विना विद्यादिरत्नानि प्राप्तुं शक्नुवन्ति। न किल केचित् कपटादिदोषरहितानामाप्तानां विदुषां सङ्गाध्ययने अन्तरा सुशीलतां विद्यावृद्धिं च कर्त्तुं समर्थयन्ति ॥ २५ ॥अत्र राजप्रजाऽध्ययनाध्यापनादिकर्मवर्णनात् पूर्वसूक्तार्थेन सहैतत्सूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ॥इति प्रथमस्याष्टमे सप्तदशो वर्गः। सप्तदशोत्तरशततमं सूक्तं च समाप्तम् ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर स्त्री-पुरुष कब विवाह करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (वृषणा) विद्या के वर्षाने और (अश्विनौ) प्रशंसित कर्मों में व्याप्त स्त्रीपुरुषो ! (वाम्) तुम दोनों के जो (एतानि) ये प्रशंसित (पूर्व्याणि) अगले विद्वानों ने नियत किये हुए (वीर्याणि) पराक्रमयुक्त काम हैं उनको (आयवः) मनुष्य (प्रावोचन्) भली-भाँति कहें, (युवभ्याम्) तरुण अवस्थावाले तुम दोनों के लिये (ब्रह्म) अन्न और धन को (कृण्वन्तः) सिद्ध करते हुए (सुवीरासः) जिनके अच्छी सिखावट और उत्तम विद्यायुक्त वीर पुत्र, पौत्र और सेवक हैं, वे हम लोग (विदथम्) विज्ञान करानेवाले पढ़ने-पढ़ाने रूप यज्ञ का (आ, वदेम) उपदेश करें ॥ २५ ॥
भावार्थ
मनुष्य जिन विद्वानों ने लोक के उपकारक विद्या और धर्मोपदेश से प्रचार करनेवाले काम किये वा जिनसे किये जाते हैं, उनकी प्रशंसा और अन्न वा धन आदि से सेवा करें क्योंकि कोई विद्वानों के सङ्ग के विना विद्या आदि उत्तम-उत्तम रत्नों को नहीं पा सकते। न कोई कपट आदि दोषों से रहित शास्त्र जाननेवाले विद्वानों के सङ्ग और उनसे विद्या पढ़ने के विना अच्छी शीलता और विद्या की वृद्धि करने को समर्थ होते हैं ॥ २५ ॥इस सूक्त में राजा, प्रजा और पढ़ने-पढ़ाने आदि कामों के वर्णन से पूर्व सूक्तार्थ के साथ इस सूक्त के अर्थ की सङ्गति है, यह समझना चाहिये ॥यह १ अष्टक के ८ वे अध्याय में सत्रहवाँ वर्ग और एक सौ सत्रहवाँ सूक्त पूरा हुआ ॥
विषय
ज्ञान , वीरता , यज्ञ
पदार्थ
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (वाम्) = आपके (एतानि) = इन - उपर्युक्त मन्त्रों में वर्णित (पूर्व्याणि) = पालन व पूरणात्मक (वीर्याणि) = वीरतायुक्त कर्मों को (आयवः) = गतिशील मनुष्य (प्र अवोचन्) = प्रकर्षेण प्रतिपादित करते हैं । २. हे (वृषणा) = सब सुखों का वर्षण करनेवाले प्राणापानो ! (युवभ्याम्) = आपकी साधना के द्वारा (ब्रह्म कृण्वन्तः) = ज्ञान का सम्पादन करते हुए हम (सुवीरासः) = उत्तम वीर बनकर अथवा उत्तम वीर सन्तानोंवाले होते हुए (विदथम्) = ज्ञानपूर्वक स्तोत्रों का (आवदेम) = सदा उच्चारण करें । हम प्रभु - स्तवन करनेवाले बनें अथवा [विदथ - यज्ञ] यज्ञमय जीवनवाले बनें ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से हमारा ज्ञान बढ़ता है , हम वीर बनते हैं और यज्ञमय जीवनवाले होते हैं ।
विशेष / सूचना
विशेष - सूक्त का आरम्भ इन शब्दों से हुआ है कि प्राणसाधना से हमें प्रभु - प्रेरणा सुन पड़ती है और उस प्रेरणा को क्रियान्वित करने के लिए शक्ति मिलती है [१] । समाप्ति पर कहते हैं कि इस साधना से हम ज्ञानी , वीर व यज्ञशील बनते हैं [२५] । इस साधना से हमारा शरीर रथ बड़ा सुन्दर बनता है इन शब्दों से अगला सूक्त आरम्भ होता है -
विषय
सौ मेषों का रहस्य ऋज्राश्व की कथा का रहस्य।
भावार्थ
हे ( अश्विना ) विद्यावान् स्त्री पुरुषो ! सभा-सेनाध्यक्षो ! तथा गुरु शिष्यो ! ( एतानि ) ये नाना प्रकार के (वीर्याणि) वीर जनों के योग्य बल और वीर्य द्वारा साधने योग्य, ( पूर्व्याणि ) पूर्व के विद्वानों तथा सब से पूर्व विद्यमान परमेश्वर या वेद द्वारा प्रतिपादित हैं जिन को ( आयवः ) विद्वान् जन ( प्र अवोचन् ) शिष्यों को उपदेश किया करें । हे ( वृषणा ) सुखों के वर्षक, बलवान् पुरुषो ! हम लोग ( सुवीरासः ) उत्तम पुत्रों, प्राणों और पुरुषों से सहायवान् होकर ( ब्रह्म कृण्वन्तः ) ऐश्वर्य और वेद ज्ञान का सम्पादन करते हुए ( विदथम् ) विज्ञान का (आवदेम) सर्वत्र उपदेश करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः–१ निचृत् पंक्तिः । ६, २२ विराट् पंक्तिः। २१, २५, ३१ भुरिक पंक्तिः। २, ४, ७, १२, १६, १७, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। ८, ९, १०, १३-१५, २०, २३ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ५, २४ त्रिष्टुप् ॥ धैवतः ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या लोकांनी उपकारक विद्या व धर्मोपदेशाचा प्रचार केलेला आहे. त्यांची प्रशंसा करून माणसांनी त्यांना अन्न किंवा धन इत्यादींनी सेवा करावी. कारण कोणीही विद्वानांच्या संगतीशिवाय विद्या इत्यादी उत्तम उत्तम रत्नांना प्राप्त करू शकत नाही. कपट इत्यादी दोषांनीरहित शास्त्र जाणणाऱ्या विद्वानांच्या संगतीशिवाय व विद्या शिकल्याशिवाय कुणी चांगले शील व विद्येची वृद्धी करण्यास समर्थ होऊ शकत नाहीत. ॥ २५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, brave and generous heroes of noble action, these are the great actions you have ever done and still do and which people celebrate in song. We pray that, blest with friends and brave children, singing songs of celebration for you, creating food and energy for life and living for yajna, we may live, and praise and propagate the yajnic way of creative life (as yours).
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O showerers of knowledge, virtuous men and women ! These are your admirable deeds as done by the ancient learned people that men now proclaim with great reverence. May we instruct people about the Yajna in the form of learning and teaching, acquiring good food and wealth, under your guidance and being blessed with highly educated and brave children, grand children and attendants.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of men to praise and serve with food and wealth those learned persons who have engaged themselves in the propagation of Vidya and Dharma and other benevolent acts. It is not possible for any one to obtain the gems of knowledge without the association of great scholars. It is also not possible for any one to spread knowledge and good character without the association with and education from absolutely truthful learned persons who are free from deceit and other evils.
Translator's Notes
As there is mention of learning and teaching etc. in this hymn, it is connected with the previous hymn. Here ends the commentary on the 117th hymn and seventh Verga of first Mandala of the Rigveda Samhita.
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