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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 164 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 15
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    सा॒कं॒जानां॑ स॒प्तथ॑माहुरेक॒जं षळिद्य॒मा ऋष॑यो देव॒जा इति॑। तेषा॑मि॒ष्टानि॒ विहि॑तानि धाम॒शः स्था॒त्रे रे॑जन्ते॒ विकृ॑तानि रूप॒शः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सा॒क॒म्ऽजाना॑म् । स॒प्तथ॑म् । आ॒हुः॒ । ए॒क॒ऽजम् । षट् । इत् । य॒माः । ऋष॑यः । दे॒व॒ऽजाः । इति॑ । तेषा॑म् । इ॒ष्टानि॑ । विऽहि॑तानि । धा॒म॒ऽशः स्था॒त्रे । रे॒ज॒न्ते॒ । विऽकृ॑तानि । रू॒प॒ऽशः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    साकंजानां सप्तथमाहुरेकजं षळिद्यमा ऋषयो देवजा इति। तेषामिष्टानि विहितानि धामशः स्थात्रे रेजन्ते विकृतानि रूपशः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    साकम्ऽजानाम्। सप्तथम्। आहुः। एकऽजम्। षट्। इत्। यमाः। ऋषयः। देवऽजाः। इति। तेषाम्। इष्टानि। विऽहितानि। धामऽशः। स्थात्रे। रेजन्ते। विऽकृतानि। रूपऽशः ॥ १.१६४.१५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 15
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 16; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पृथिव्यादीनां रचनाविशेषमाह ।

    अन्वयः

    हे विद्वांसो यूयं साकंजानां मध्ये यदेकजं महत्तत्त्वं सप्तथमाहुः। यत्र षड् देवजा यमा ऋषय ऋतवो वर्त्तन्ते तेषां मध्ये यानि धामश इष्टानीश्वरेण विहितानि यानि रूपशो विकृतानि स्थात्रे रेजन्ते तानीदिति विजानीत ॥ १५ ॥

    पदार्थः

    (साकंजानाम्) सहैव जातानाम् (सप्तथम्) सप्तमम् (आहुः) कथयन्ति (एकजम्) एकस्मात्कारणज्जातम् (षट्) (इत्) एव (यमाः) नियन्तारः (ऋषयः) गन्तारः (देवजाः) देवाद्विद्युतो जाताः (इति) प्रकारार्थे (तेषाम्) (इष्टानि) संगतानि (विहितानि) ईश्वरेण रचितानि (धामशः) धामानि धामानि (स्थात्रे) स्थिरस्य कारणस्य मध्ये। अत्र षष्ठ्यर्थे चतुर्थी। (रेजन्ते) कम्पन्ते (विकृतानि) विकारमवस्थान्तरं प्राप्तानि (रूपशः) रूपैः सह ॥ १५ ॥

    भावार्थः

    येऽत्र जगति पदार्थाः सन्ति ते सर्वे ब्रह्मनियोगतो युगपज्जायन्ते नात्र रचनायां क्रमाकाङ्क्षाऽस्ति कुतः परमेश्वरस्य सर्वव्यापकत्वाऽनन्तसामर्थ्यवत्त्वाभ्याम्। अतः स स्वयमचलितः सन् सर्वाणि भुवनानि चालयति, स ईश्वरोऽविकारः सन् सर्वान् विकारयति, यथा क्रमेण ऋतवो वर्त्तन्ते स्वानि लिङ्गान्युत्पादयन्ति तथैव पदार्था उत्पद्यमानाः स्वान् स्वान् गुणान् प्राप्नुवन्ति ॥ १५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब पृथिव्यादिकों की रचना विशेष की व्याख्या करते हैं ।

    पदार्थ

    हे विद्वानो ! तुम (साकंजानाम्) एक साथ उत्पन्न हुए पदार्थों के बीच में जिस (एकजम्) एक कारण से उत्पन्न महत्तत्त्व को (सप्तथम्) सातवाँ (आहुः) कहते हैं, जहाँ (षट्) छः (देवजाः) देदीप्यमान बिजुली से उत्पन्न हुए (यमाः) नियन्ता अर्थात् सबको यथायोग्य व्यवहारों में वर्त्तानेवाले (ऋषयः) आप सब में मिलनेवाले ऋतु वर्त्तमान हैं (तेषाम्) उनके बीच जिन (धामशः) प्रत्येक स्थान में (इष्टानि) मिले हुए पदार्थों को ईश्वर ने (विहितानि) रचा है और जो (रूपशः) रूपों के साथ (विकृतानि) अवस्थान्तर को प्राप्त हुए (स्थात्रे) स्थित कारण के बीच (रेजन्ते) चलायमान होते उन सबको (इत्) ही (इति) इस प्रकार से जानो ॥ १५ ॥

    भावार्थ

    जो इस जगत् में पदार्थ हैं वे सब ब्रह्म के निश्चित किये हुए व्यवहार से एक साथ उत्पन्न होते हैं। यहाँ रचना में क्रम की आकाङ्क्षा नहीं है क्योंकि परमेश्वर के सर्वव्यापक और अनन्त सामर्थ्यवाला होने से। इससे वह आप अचलित हुआ सब भुवनों को चलाता है और वह ईश्वर विकाररहित होता हुआ सबको विकारयुक्त करता है। जैसे क्रम से ऋतु वर्त्तमान हैं और अपने अपने चिह्नों को समय समय में उत्पन्न करते हैं, वैसे ही उत्पन्न होते हुए पदार्थ अपने-अपने गुणों को प्राप्त होते हैं ॥ १५ ॥

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    विषय

    शक्ति न कि स्वाद [धामशः न कि रूपश:]

    पदार्थ

    १. (साकं जानाम्) = पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और मन आत्मा के साथ शरीर में प्रवेश करनेवाले हैं। ज्ञानेन्द्रियों और मन का कार्य साथ-साथ ही चलता है। मन के साथ होने पर ही ये इन्द्रियाँ कार्य करती हैं। इन छह के अतिरिक्त (सप्तम्) = एक सातवाँ बुद्धितत्त्व भी है जिसे (एकजम्) = [एक मुख्य] मुख्य आत्मतत्त्व के साथ रहनेवाला (आहुः) = कहते हैं। आत्मतत्त्व इस शरीररूपी रथ का रथी है तो बुद्धि सारथि । २. इस उत्तम बुद्धिरूप सारथि से नियन्त्रित ये (षट्) = छह (यमाः) = इन्द्रियाँ (इति) = नियन्त्रित कहलाती हैं (इत्) = यह ठीक ही है। नियन्त्रित अवस्था में ये छह [मन+ -ज्ञानेन्द्रियाँ] जीवात्मा के लिए (ऋषय:) = तत्त्वज्ञान का दर्शन करानेवाले होते हैं। ज्ञान प्राप्ति के साथ संयत होने की अवस्था में ये (देवजाः) = दिव्य गुणों को जन्म देनेवाले होते हैं। संयत होने पर ये निर्विषय रहकर हमारी जीवन-यात्रा की पूर्ति के साधन बनेंगे। यात्रा की पूर्ति के लिए घोड़े सबल भी होने चाहिएँ। ३. इनकी सबलता के लिए प्रभु ने (तेषाम्) = उन सब इन्द्रियरूप घोड़ों के (धामशः) = शक्ति के दृष्टिकोण से (इष्टानि) = वाञ्छनीय पदार्थ (विहितानि) = बनाये हैं । ४. ये ही सांसारिक भोज्य पदार्थ जब (रूपश:) = सौन्दर्य व स्वाद के लिए सेवन किये जाते हैं तब ये (विकृतानि) = विकृत होकर (स्थात्रे) = शरीररूप रथ पर रहनेवाले अधिष्ठाता जीव के लिए (रेजन्ते) = कम्पित, विचलित करनेवाले हो जाते हैं। सारा नाड़ी-संस्थान नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- यदि मन और ज्ञानेन्द्रियाँ- ये छह नियन्त्रित रहें तो मनुष्य देव और ऋषि बनता है विपरीत अवस्था में आसुरीवृत्तियाँ पनपती हैं और शरीर नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है।

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    विषय

    सात सांकंज और ६ ऋषियों का वर्णन।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( साकं-जानां ) एक साथ उत्पन्न हुए वसन्तादि ऋतुओं में से ( सप्तथम् ) सातवें को ( एकजम् आहुः ) एक अधिक मास से ही उत्पन्न हुआ बतलाते हैं और ( षट् यमाः इत् ऋषयः देवजाः इति आहुः ) छः यम अर्थात् जोड़े २, दो दो मासों के बने ऋतुओं को ऋषि, क्रान्तदर्शी विद्वान् 'देवज' अर्थात् तेजस्वी सूर्य से ही उत्पन्न हुआ बतलाते हैं। ( तेषाम् ) उनके ( इष्टानि ) समस्त प्राणियों को अभिलषित स्वरूप ( रूपशः विकृतानि ) प्रत्येक के भिन्न २ रूपमें प्रति पदार्थ विकार को प्राप्त हुए हैं, वे ( स्थात्रे धामशः विहितानि ) स्थिर सूर्य के ही धारण सामर्थ्य या तेज के अनुसार विविध रूप से बनते हैं उसी प्रकार आत्मा से अधिष्ठित देह में ( साकं-जानां ) एक साथ उत्पन्न शिरोगत सातों प्राणों में से ( सप्तथम् ) सातवें मुख्य प्राण को ( ऋषयः ) अध्यात्म वेदी ऋषिजन ( एकजं आहुः ) एक मात्र आत्मा के ही मुख्य बल से एवं अकेला ही उत्पन्न हुआ बतलाते हैं और ( षट् इत् यमा देवजाः इति ) शेष छहों जोड़े २ प्राण 'देव' अर्थात् आत्मा की शक्ति से उत्पन्न होते बतलाते हैं ( तेषाम् ) उनके (इष्टानि ) अभिलषित रूप आदि विषय भी ( स्थात्रे धामशः ) स्थाता, के धारण सामर्थ्य के अनुसार ही रचे हैं वे सब ( रूपशः ) प्रत्येक रूप २ प्रति देह में ( विकृतानि रेजन्ते ) विकृत होकर गति करते हैं। इति षोडशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः॥ देवता—१-४१ विश्वदेवाः। ४२ वाक् । ४२ आपः। ४३ शकधूमः। ४३ सोमः॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च। ४५ वाक्। ४६, ४७ सूर्यः। ४८ संवत्सरात्मा कालः। ४९ सरस्वती। ५० साध्या:। ५१ सूर्यः पर्जन्यो वा अग्नयो वा। ५२ सरस्वान् सूर्यो वा॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप्। ८, ११, १८, २६,३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप्। २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२, त्रिष्टुप्। १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक् त्रिष्टुप्। १२, १५, २३ जगती। २९, ३६ निचृज्जगती। २० भुरिक पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः। ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती। ५१ विराड् नुष्टुप्।। द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या जगात जे पदार्थ आहेत ते सर्व ब्रह्माने निश्चित केलेल्या व्यवहाराने एकाच वेळी उत्पन्न होतात. येथे रचनेत क्रमाची अपेक्षा नाही, कारण परमेश्वर सर्वव्यापक व अनन्त सामर्थ्यवान असल्यामुळे तो अचल आहे व सर्व जगाला चालवितो. ईश्वर स्वतः विकाररहित असून सर्वांना विकारयुक्त करतो. जसे क्रमाने ऋतू वर्तमान असतात व आपापली चिन्हे वेळोवेळी उत्पन्न करतात तसेच उत्पन्न झालेले पदार्थ आपापल्या गुणधर्मासह असतात. ॥ १५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The seven simultaneously born of one-unborn, they call a septet, that is, seven-in-one or one-in-seven. Six of them are yamas, twin movers. They are rshis, mixers, born of devas, light and energy. Their properties and actions according to their place and character are created and ordained, and they, each in its form and character, move around for and in the unmoved mover.$(These seven are the seven lokas: Bhuh, Bhuvah, Svah, Mahah, Janah, Tapah and Satyam. Sometimes the lokas are associated with seven Rshis. Sometimes they are described as seven senses and sometimes seven vital energies. All these refer, in fact point, to a theory of correspondences existing at the physical, mental and spiritual levels, or at the levels of matter, energy, thought and spirit. And this is a subject of high research and deep meditation.)

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The creation of the earth etc. is dealt.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned men! of the six seasons which are born together), the Mahat Tatva (the biggest element) is said to be the seventh. It is the product of one eternal material cause -Prakriti or matter. These six seasons are controllers of various objects. They are also movers according to their due time and born of energy power. These various objects which are under the steady sun undergo many changes in different forms. We should know their real nature and various forms.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    These various articles in the world are produced by God simultaneously. The cause God is Omnipresent and Omniscient. Therefore, though God Himself does not move, He moves all the worlds. He Himself is Immutable, but He creates various mutations in the objects made by Him. The seasons come per their turn and have their distinguishing marks. Likewise all objects when coming into existence manifest their attributes.

    Foot Notes

    (सप्तथम् ) सप्तमं मरुत् तत्त्वम् = The great principle known also as महान् in Sankhya. (देवजा) देवाद् विद्युतो जाताः = Born out of electricity.

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